समान नागरिक कानून संविधान सम्मत।
सुरेंद्र किशोर।
समान नागरिक कानून संविधान सम्मत है। डा.राममनोहर लोहिया समान सिविल संहिता के पक्षधर थे। पर, आज के उनके अधिकतर तथाकथित शिष्य डा. लोहिया के उस विचार के आज सख्त खिलाफ हैं। क्योंकि इनके लिए देश नहीं, बल्कि ‘‘वोट बैंक’’ और उस आधार पर मिल रही सत्ता अधिक प्यारी है। जबकि आज का कटु सत्य यह है कि यदि समान नागरिक संहिता जल्द से जल्द लागू नहीं किया जाएगा तो संभवतः इस देश का ‘‘मौजूदा लोकतांत्रिक स्वरूप’’ कायम नहीं रह पाएगा।
हाल में एक मौलाना को यह कहते हुए मैंने यू ट्यूब पर सुना- ‘‘आज हम अपने लक्ष्य के करीब पहुंच रहे हैं।’’ उनका लक्ष्य क्या है? उनका लक्ष्य है आबादी बढ़ाकर और घुसपैठ करवा कर भारत में सन 2047 तक इस्लामिक शासन कायम करना। उस लक्ष्य को हासिल करने में जो राजनीतिक दल उनकी आज मदद कर रहे हैं, उन्हें उत्तर प्रदेश के हाल के चुनाव में 92 प्रतिशत मुसलमानों ने एकजुट होकर वोट दिया।
भारतीय संविधान में नीति निदेशक तत्वों वाला एक चैप्टर है- ‘‘राज्य की नीति के निदेशक तत्व’’। उसके अनुच्छेद- 44 में दर्ज है- ‘‘राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा।’’
सन 1967 में डा.लोहिया इस संहिता के मुद्दे पर अपना लोक सभा चुनाव हारने को भी तैयार थे। हालांकि समान सिविल संहिता की आज जितनी जरूरत है,1967 में वह उतना जरूरी नहीं थी।
1967 का वह प्रकरण इस प्रकार है। सन 1967 के आम चुनाव से ठीक पहले पत्रकारों के पूछने पर डा. लोहिया ने कहा था कि ‘‘समान नागरिक कानून लागू होना ही चाहिए।’’ उस बयान पर जब उनके कुछ समाजवादी मित्रों ने कहा कि ‘‘अब तो आप चुनाव हार जाइएगा क्योंकि आपके चुनाव क्षेत्र में मुस्लिमों की बड़ी आबादी है।’’ उसके जवाब में डा.लोहिया ने कहा ‘‘मैं सिर्फ चुनाव जीतने के लिए नहीं,बल्कि देश बनाने के लिए राजनीति में हूं।’’ उल्लेखनीय है कि सन 1967 में कन्नौज लोकसभा क्षेत्र से डा.लोहिया मात्र चार सौ मतों से विजयी हुए थे। यानी, हारते -हारते जीते।
आज लोहियावादी सिद्धांतों के लिए कौन लोहियावादी नेता ऐसा खतरा उठाने को तैयार है?… शायद कोई नहीं। भले देश तेलहंडे में चला जाए! आज के अन्य अनेक नेता और बुद्धिजीवीगण भी अपनी सुविधा के अनुसार ही अपने-अपने महापुरुषों को टुकड़ों में देखते हैं और दिखाते हैं।
डा.लोहिया के सामाजिक न्याय वाले पक्ष को तो अनेक पिछड़े लोहियावादी उछालते हैं। अच्छा करते हैं। किंतु रामायण मेला या व्यक्तिगत ईमानदारी वाले आदर्शों की चर्चा तक नहीं करते… उसका पालन कौन कहे!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)