रामगढ़- सौंदर्य, शांति और पर्यावरण बचाने होंगे।
नवीन जोशी।
रामगढ़ (जिला नैनीताल, उत्तराखण्ड) में पूरा एक मास बिताकर आज हम लौट रहे हैं। पिछले वर्ष भी एक महीने यहां रहे थे। इस बार और भी आराम व आनंद मिला क्योंकि आबादी एवं बाजार से थोड़ा दूर एक बगीचे के बीच रहे। महानगरों की भीड़-भाड़, शोर और दमघोंटू प्रदूषण से बचकर कुछ समय पहाड़ पर बिताना नई ऊर्जा से भर जाना होता है। यह एक जगह, स्थानीय समाज तथा उनसे जुड़े विविध मुद्दों को निकट से जानने-समझने का अवसर भी होता है।
अंग्रेजी शासन के समय से ही रामगढ़ शांतिप्रिय लोगों की पसंदीदा जगह रहा है। शांति एवं एकांत में समय बिताने के शौकीन कुछ अंग्रेजों ने यहां अपने लिए बंगले बनवाए थे। निकट ही महेशखान के जंगल में अंग्रेजों का बनवाया हुआ डाकबंगला है, 113 वर्ष पुराना, जो अब वन विभाग के पास है।
महादेवी वर्मा जब 1933 में शांतिनिकेतन गईं तो गुरुदेव ने उन्हें रामगढ़ के सौंदर्य तथा शांति के बारे में बताया। एक-दो वर्ष बाद बदरीनाथ से लौटते हुए महादेवी रामगढ़ आईं। इसकी शांति, शीतलता और हरियाली ने उन्हें प्रभावित किया। तब उन्होंने उमागढ़ में जमीन ली और 1936 में ‘मीरा कुटीर’ बनवाया।
वे प्रति वर्ष गर्मियों में यहां रहती थीं। उनकी कई रचानाएं यहीं लिखी गईं। उन्हीं के आमंत्रण पर मीरा कुटीर में कई लेखक आए, रहे और उन्होंने यहां साहित्य सृजन भी किया। मीरा कुटीर आज एक स्मारक के रूप में मौजूद है। वहां एक अतिथिगृह भी लगभग तैयार है, जहां लेखक ठहर सकेंगे।
ग्वालियर के सिंधिया के घराने ने कभी यहां बहुत बड़ा इलाका खरीदा था, जो उनके ट्रस्ट के नियमों से बंधा होने के कारण आज तक बिचौलियों और अतिक्रमण से बचा हुआ है। आज़ादी से पहले और बाद में तो बहुत सारे नेताओं, अधिकारियों, उद्यमियों, लेखकों-पत्रकारों ने यहां अपने कॉटेज बनवाए।
रेलवे स्टेशन काठगोदाम यहां से मात्र डेढ़ घण्टे की दूरी पर है। नैनीताल एक घण्टे से भी कम समय में पहुंचा जा सकता है। तब भी सबसे अच्छी बात यह रही कि नैनीताल जैसी भीड़-भाड़ और शोर-शराबे से यह बचा रहा। रेलवे स्टेशन से दूर होने के बावजूद रानीखेत और कौसानी जैसी सुंदर जगहें ‘बिगड़’ गईं लेकिन रामगढ़ अपना सौंदर्य और शांति बचाता आया था।
पिछले करीब एक-डेढ़ दशक से रामगढ़ को भी भू-दलालों, बिचौलियों, अराजक पर्यटकों, बड़े होटल व्यवसाइयों और नवधनाढ्यों की नज़र लग गई है। इस दौरान यहां बेहिसाब निर्माण हुए हैं।
छोटे-छोटे कॉटेज की बजाय तीन-चार मंजिले विशाल निर्माणों ने इसका चेहरा ही नहीं बिगाड़ा है, बल्कि भूस्खलन एवं अन्य आपदाओं की आशंका भी बढ़ा दी है। इस पर कोई नियंत्रण नहीं है।
कई ग्रामीण अपनी जमीनें बेच कर बाहर चले गए हैं। कुछ तो अपनी बिक चुकी जमीनों पर बने होटलों-रिसॉर्टों में चौकीदारी कर रहे हैं। यह जमीन जैसी अचल सम्पत्ति बेचकर तत्काल धन कमाने की लालसा की त्रासद परिणति है।
रामगढ़ का अधिकांश क्षेत्र आज भी ग्रामीण तोकों वाला है, जहां किसी भी प्रकार का निर्माण करने के लिए नक्शा पास कराना जरूरी नहीं है। इसका परिणाम यह है कि जो जैसा चाहे, जहां चाहे, जितना बड़ा चाहे निर्माण करा रहा है। जमीन बेचने-बिकवाने वाले स्थानीय से लेकर बाहरी भी हैं लेकिन अभियंता और वास्तुकार लगभग सभी बाहरी हैं बाहर जाकर पढ़े हुए हैं। वे मैदानी पैमानों से नक्शा बनाते और निर्माण करवाते हैं। उन्हें पर्वतीय भू-संरचना और संवेदनशीलता का कोई प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है या इसका ध्यान रखने की परवाह नहीं है।
मल्ला से तल्ला रामगढ़ तक अधिकांश जमीन बिक चुकी है। खेत, बाग, गौचर और गधेरे तक। जहाँ मकान बनवाना कुछ वर्षों पहले तक असुरक्षित माना जाता था, वहाँ भी गहरी रिटेनिंग वाल बनाकर भारी निर्माण हो गए हैं, होते जा रहे हैं। यूपी, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान तक से लोग जमीन खरीदने के लिए आ रहे हैं। बाहरी गाड़ी देखते ही चार-पांच आदमी घेर लेते हैं- ‘जमीन चाहिए सर?’ गहरी खाइयां भी अब बढ़िया जमीन बताई जा रही हैं और लोग खरीद कर खुश हो रहे हैं।
उत्तराखंड की सरकार ने पर्यटन व्यवसाय को बढ़ावा देने के लिए होम-स्टे योजना स्वीकृत की है। पर्यटक यदि स्थानीय निवासियों के अतिथि बनकर रहते हैं, तो यह स्थानीय अर्थव्यवस्था और रोजगार के लिए अच्छा ही है। कई स्थानीय निवासी इस योजना से लाभान्वित भी हो रहे हैं लेकिन बाहर से आए बड़े होटल व्यवसाई इस योजना का अधिक दोहन कर रहे हैं। वे होटलों को होम स्टे के रूप में चलाकर बिजली, पानी व अन्य करों की छूट का लाभ उठा रहे हैं।
बड़े होटलों के कारण रामगढ़ की शांति भंग हो रही है। देर रात तक कानफाड़ू संगीत, हो-हल्ला और गाड़ियों की चिल्ल-पों शांतिप्रिय पर्यटकों और स्थानीय निवासियों को परेशान करते हैं। पिछले दिनों गांव की एक दादी को देर शाम अपने पड़ोस में खुल गए होटल में जाकर शोर-शराबा बंद करने का अनुरोध करना पड़ा था। बड़े होटल स्थानीय निवासियों के लिए रोजगार बनी होम-स्टे योजना के लिए भी नुकसानदायक हैं।
मई-जून में काठगोदाम से मुक्तेश्वर तक गाड़ियों का रेला लगा रहता है। डेढ़-दो घण्टे की दूरी चार-पांच घण्टे भी ले लेती है। शनिवार-रविवार को कहीं आना-जाना मुश्किल हो जाता है।कुछ पर्यटक सड़क किनारे ही कार का स्टीरियो बजाकर शराब पीते हुए डांस करते देखे जा सकते हैं। वे खाली बोतलें और नमकीन के रैपर इधर-उधर फेंकने में तनिक संकोच नहीं करते। बढ़ते पर्यटन का यह विद्रूप चेहरा दुखद व चिंताजनक है।
रामगढ़ के समक्ष एक बड़ा खतरा अराजक पर्यटन से उपजते अजैविक कचरे से पैदा हो रहा है। तरह-तरह के पॉलीथीन, प्लास्टिक-थर्मोकॉल पैकेजिंग, रैपर, बोतलों, आदि से रास्ते, नालियां, गधेरे (बरसाती नाले) और नदियां पट रही हैं। इस कचरे से और भवन निर्माणों के मलबे से अधिकांश प्राकृतिक जलस्रोत पट चुके हैं। जो बचे हैं उनका पानी भी सूख रहा है। इतने निर्माणों में सीवेज निस्तारण की कोई सुंचिंतित व्यवस्था नहीं है। इन मुद्दों पर कोई चिंता भी दिखाई नहीं देती।
पानी सबसे बड़े संकट के रूप में उभरा है। होटलों-होम स्टे को पानी पहुंचाने का नया व्यवसाय फल-फूल रहा है। दर्जनों टैंकर और ट्रक नदियों या दूर के जलस्रोतों से पानी लाकर बेच रहे हैं। अवर्षण के कारण अबकी गर्मियों में पानी का बहुत गम्भीर संकट हुआ। प्राकृतिक जल स्रोतों के सूखने या उन पर भी होटलों के कब्जे के कारण आम ग्रामीणों को, जो पानी खरीद नहीं पाते, बहुत भटकना पड़ रहा है।
पर्यटन को रोजगार बनाना स्थानीय अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा है लेकिन उसे स्थानीय समाज, प्रकृति व पर्यावरण सम्मत होना चाहिए। पर्यटकों के लिए तो कुछ नियमों, दिशा-निर्देशों के पालन करने की बाध्यता होनी ही चाहिए, बल्कि होम-स्टे और होटल वालों के लिए भी वातावरण की शांति, पानी और पर्यावरण बचाने के उपाय आवश्यक बनाए जाने चाहिए।
कचरा प्रबंधन की समुचित व्यवस्था अत्यावश्यक है। नीमराणा (राजस्थान) वालों का एक होटल यहां भी है, जो अपना कचरा निस्तारण के लिए हलद्वानी भेजता है। इस पहल में प्रत्येक होटल और होम स्टे को शामिल होना चाहिए लेकिन वे इसकी उपेक्षा किए हुए हैं। अजैविक कचरा पहाड़ों का दम घोंट रहा है।
स्थानीय नागरिकों, दुकानदारों और होम स्टे चलाने वालों को इस पर अवश्य ही ध्यान देना होगा। पर्यटक तो कुछ दिन की मस्ती करके चले जाएंगे। उनका फैलाया कचरा रामगढ़ वालों के लिए आफत लाएगा। उनके नाले चोक होंगे, जल स्रोत उन्हीं के सूखेंगे, बीमारियां उन्हें ही व्यापेंगी। व्यवसाय तो चौपट होगा ही।
पर्यटन बेहतर रोजगार साबित हो और आकर्षक बना रहे, इसका उत्तरदायित्व स्थानीय जनता व व्यवसाइयों को ही लेना होगा। प्रशासन नाम की चीज यहां है भी नहीं। उन्हें ही अपना संगठन बनाकर इस बारे में पहल करनी चाहिए। यूरोपीय देशों, बल्कि पड़ोसी भूटान से ही इस बारे में बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
अभी तो जो हो रहा है, वह मुर्गी का पेट फाड़कर सारे अंडे एक बार में निकाल लेने के प्रयास जैसा है। मुर्गी दम तोड़ देगी तो फिर अण्डा कहां से आएगा?
(3 जुलाई, 2024, रामगढ़) लेखक हिंदुस्तान के पूर्व कार्यकारी सम्पादक हैं। यह लेख आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं http://apne-morche-par.