राहुल को विरासत में मिला हिंदू विरोध।
प्रदीप सिंह।
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू शांति के दूत सफेद कबूतर उड़ाते थे और उनको इस देश में सबसे डेमोक्रेटिक, सबसे सेक्युलर लीडर माना जाता है। लेकिन उनका पूरा राजनीतिक जीवन देखें तो उसमें डेमोक्रेसी आपको बड़ी मुश्किल से नजर आएगी। खास तौर से जिस तरह से उनका प्रधानमंत्री के रूप में चुनाव हुआ। कांग्रेस की किसी राज्य इकाई ने उनके नाम का रिकमेंडेशन नहीं भेजा था। ज्यादातर ने सरदार पटेल का नाम भेजा था। कांग्रेस वर्किंग कमेटी की मीटिंग में गांधी जी ने वह सब बदलवा दिया। आचार्य कृपलानी से प्रस्ताव रखवाया और सरदार पटेल से कहा दस्तखत करो कि तुम प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते हो। और नेहरू के नाम का प्रस्ताव किया।
1946 में नेहरू कैसे प्रधानमंत्री बने आज मैं इसकी बात नहीं करने जा रहा हूं। महात्मा गांधी ने कांग्रेस वर्किंग कमेटी में क्या किया, आचार्य कृपलानी से क्या करवाया उसकी भी चर्चा नहीं करने जा रहा। आज मैं बात करने जा रहा हूं कि कांग्रेस के डीएनए में मुस्लिम तुष्टीकरण का डीएनए कहां से आया। खास तौर से गांधी परिवार में आप इसको ट्रेस करेंगे, पीछे थोड़ा जाएंगे -तो जैसा माना जाता है हर सवाल का तो नहीं कह सकते ज्यादातर सवालों का जवाब अतीत में मिलता है- तो आपको पता चलेगा कि गांधी परिवार में यह मुस्लिम तुष्टि का भाव, यह मुस्लिम तुष्टीकरण का कीड़ा कहां से आया। और यह उनके डीएनए में शामिल है। इसके बिना उनकी राजनीति नहीं चल सकती। आप शुरू कीजिए जवाहरलाल नेहरू से और आ जाइए राहुल गांधी तक- सब में वह दिखाई देगा।
आज मैं एक पत्र का जिक्र करने जा रहा हूं जो जवाहर लाल नेहरू ने लिखा था। यह पत्र उन्होंने 5 नवंबर 1946 को पद्मजा जोशी को आधी रात को लिखा। पद्मजा जोशी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और कांग्रेस की नेता और महात्मा गांधी की करीबी सरोजिनी नायडू की बेटी थीं। जवाहरलाल नेहरू से उनके बड़े घनिष्ठ पारिवारिक संबंध थे। पत्र में उन्होंने लिखा कि मैं बहुत थक गया हूं। आज ही फ्लाइट से दो दिन बाद लौटा हूं। शायद वह जिक्र कर रहे थे दिल्ली लौटने का। उसमें स्पष्ट नहीं है कि कहां लौटे हैं। उन्होंने कहा यह पत्र इसलिए आधी रात को थका होने के बावजूद तुम्हें लिख रहा हूं क्योंकि मुझे यहां आने पर जो खबर मिली उससे मैंने बहुत रिलैक्स महसूस किया। जवाहरलाल नेहरू बहुत प्रफुल्लित थे तो जाहिर है कि खबर कोई ऐसी होनी चाहिए जो देश के, समाज के हित में हो- कोई अच्छा काम हुआ हो- किसी का बड़ा अचीवमेंट हो। ऐसा कुछ नहीं था।
उनको खबर क्या मिली थी पहले सुन लीजिए। उनको खबर मिली थी कि बिहार के 400 किसानों को पुलिस फायरिंग में मार दिया गया। क्यों मारा गया उनको? क्योंकि वे नोआखली में हुई हिंसा का विरोध कर रहे थे, उसका प्रतिरोध करने की कोशिश कर रहे थे। नोआखली में क्या हुआ यह दोहराने की जरूरत नहीं है। 1966 में जिन्ना ने जब डायरेक्ट एक्शन की कॉल दी थी उसके बाद नोआखली- जो उस समय बंगाल में आता था अब बांग्लादेश में आता है- में हिंदुओं का नरसंहार हुआ। जो हिंदुओं खिलाफ हुआ अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने उसके लिए pogroms शब्द इस्तेमाल किया है। हजारों हिंदू मारे गए- नेहरू जी को इससे कोई तकलीफ नहीं हुई, कोई दुख नहीं हुआ। उस घटना पर उन्होंने केवल इतना कहा कि ‘दुर्भाग्यपूर्ण है’, इससे ज्यादा कुछ नहीं।
उसके प्रतिरोध में जब बिहार के किसानों ने जवाब दिया तो नेहरू जी का सुख चैन सब उड़ गया। वो जो लौटने का जिक्र कर रहे थे- भागलपुर, निहार से लौटे थे। उन्होंने कहा कि यह खबर सुनकर कि बिहार के 400 किसान पुलिस फायरिंग में मारे गए हैं मुझे बड़ी राहत महसूस हुई है। जाहिर है उस समय जो अंतरिम सरकार थी नेहरू उसके प्रधानमंत्री थे, सरकार के ही आदेश से पुलिस फायरिंग करेगी। उन्होंने कहा, ‘तुम शायद विश्वास नहीं करोगी कोई और समय होता तो शायद मैं इस खबर से भयाक्रांत हो जाता लेकिन इस खबर को सुनकर मैं बहुत रिलैक्स महसूस कर रहा हूं…’ और लिखा कि ‘यह बताता है कि किस तरह से हम बदली हुई परिस्थितियों में बदलते हैं।’ तो कौन सी परिस्थिति बदली थी जिसकी वजह से नेहरू बदले? क्योंकि बिहार के लोगों ने- खासतौर से प्रतिरोध कर रहे किसानों ने मुसलमानों को हिंसा का जवाब हिंसा से दिया था। नोआखली का बदला था। नोआखली में जो हुआ उसका विरोध हुआ- नोआखली में हिंदुओं का एक तरफा नरसंहार हुआ था। उसका जवाब बिहार के लोगों ने दिया। यह बात जवाहरलाल नेहरू को बहुत नागवार गुजरी।
नोआखली में जो हुआ वह उनके लिए सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण था। लेकिन जो बिहार में मुसलमानों के खिलाफ हुआ वह उनके लिए अमानवीय था, क्रूरता था। इन शब्दों का इस्तेमाल उन्होंने नोआखली के लिए नहीं किया जबकि नोआखली में हजारों लोग मारे गए थे। बिहार में इतने बड़े पैमाने पर मुसलमानों की हत्या नहीं हुई थी और वह एक रेजिस्टेंस का मूवमेंट था।
अब आप वर्तमान में आकर याद कीजिए 2002 की। गोधरा में ट्रेन के एक डिब्बे को जला दिया गया। उसमें अयोध्या से लौट रहे कार सेवक थे जो जिंदा जला दिए गए। उस पर किसी को दुख नहीं हुआ। 2002 तक भी देखिए कुछ बदला नहीं है। लेकिन उसके बाद में जब उसकी प्रतिक्रिया में दंगे हुए, उस पर पूरे देश को अफसोस हुआ। दंगा कहीं भी हो, मारे किसी भी समुदाय के लोग जाएं, यह दुख की बात होती है। पर जब आप सिलेक्टिव हो जाते हैं- एक के मरने पर राहत महसूस करते और दूसरे के मारे जाने पर दुखी होते हैं- तब आपका बायस होना दिखाई देता है। तब लगता है आप न्यायोचित ढंग से सोचने में सक्षम ही नहीं हैं। दरअसल अन्याय आपके भीतर है। एक समुदाय विशेष से आपको नफरत है, आपका विरोध है। वह आपका जन्मजात है। तो नेहरू को हिंदुओं से विरोध एक तरह से जन्मजात ही था। वो अपने को एक्सीडेंटल हिन्दू कहते थे।
जब महात्मा गांधी ने सरदार पटेल की बजाय नेहरू को उस समय कांग्रेस अध्यक्ष बनाया और कांग्रेस अध्यक्ष को ही प्रधानमंत्री बनना था, तब वाकया वेटरन जर्नलिस्ट दुर्गादास ने अपनी किताब में लिखा है। उन्होंने महात्मा गांधी से पूछा कि आपने नेहरू को क्यों चुना सरदार पटेल पर, तो महात्मा गांधी ने हंसते हुए नेहरू की कोई क्वालिटी नहीं बताई, एक ही क्वालिटी बताई, कहा कि हम सब में अंग्रेज जवाहर ही है। अब आप इससे समझिए गांधी जी क्या चाहते थे। गांधी जी शायद कंटिन्यूटी चाहते थे कि अंग्रेज जा रहे हैं तो अंग्रेजों की मानसिकता वाला व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री होना चाहिए। देशी या भारतीय मानसिकता वाले सरदार पटेल को नहीं होना चाहिए। यही तो निष्कर्ष निकलता है। और क्या निष्कर्ष निकाला जाए? गांधी जी की इस टिप्पणी का कोई और निष्कर्ष निकलता हो तो आप मुझे बताइए मैं अपनी बात को सुधारने के लिए तैयार हूं। तो यह थी महात्मा गांधी की सोच जिनको नेहरू में सबसे बड़ी जो खूबी, सबसे बड़ा गुण नजर आता था कि वह अंग्रेजों जैसे थे। …और अंग्रेजों ने भारतीयों के साथ क्या किया यह बताने की जरूरत नहीं है। वह सरकार 1946 में और फिर 47 में, 52 में, 57 में और 62 में बनी वह अंग्रेजों की सरकार की कंटिन्यूटी थी।
भले ही अंग्रेज चले गए लेकिन उसी मानसिकता के लोग सत्ता में आ गए और जो शीर्ष पर बैठा था वह पूरी तरह से उन्हीं के जैसा था। नेहरू जी ने उस पत्र में लिखा कि पिछले दिनों जो घटा वह अमानवीय था, क्रूरता था। बिहार के भोले भाले किसान ऐसा कर सकते हैं इसकी मुझे कल्पना भी नहीं थी। लेकिन उनको कल्पना थी कि नोआखली में हिंदुओं के साथ मुसलमान ऐसा कर सकते हैं। इसमें उनको कुछ अविश्वसनीय नहीं लगा। उनको यह बात बहुत स्वाभाविक लगी। हालांकि उन्होंने यह बात नहीं कही है ‘मुझे स्वाभाविक लगी’ लेकिन उसका अर्थ यही निकलता है कि नोआखली में जो हुआ वह बड़ा स्वाभाविक था। जिस तरह से मोपला नरसंहार पर महात्मा गांधी ने कहा था कि हिंदुओं को बर्दाश्त करना चाहिए। शायद ये शब्द इस्तेमाल नहीं किए नेहरू ने पर कहने का आशय यही था कि हिंदुओं को उसे बर्दाश्त करना चाहिए। उन्होंने कहा कि इस घटना ने (यानी बिहार के किसानों ने जो प्रतिरोध किया उस घटना का जिक्र कर रहे हैं) मेरे नैतिक मूल्यों को झकझोर दिया है।
…और आगे की बात सुनेंगे तो आपकी रूह कांप जाएगी कि देश का प्रधानमंत्री आजादी के आंदोलन का नेता 400 लोगों की हत्या पर इस तरह से सोच सकता है, जो हत्या प्रशासन और पुलिस द्वारा उसकी सरकार के निर्देश पर की गयी। नेहरू ने पत्र में लिखा है कि इन 400 किसानों को एक जगह पर रोक दिया गया और पुलिस फायरिंग में ये लोग मारे गए… तो क्या कह रहे हैं नेहरू “मुझे लगा कि थोड़ा सा संतुलन स्थापित हुआ है।” तब भी पूरा संतुलन स्थापित नहीं हुआ यानी और हिंदू मारे जाने चाहिए थे। और किसानों की हत्या होनी चाहिए थी। उनकी नजर में थोड़ा सा संतुलन स्थापित हुआ- तो वह हत्या में संतुलन स्थापित करना चाहते थे। अब आप सोचिए कितनी पाशविक मानसिकता है कि जो हत्या में संतुलन खोजने की कोशिश कर रहा है। अगर मुसलमान मारे गए तो उससे ज्यादा हिंदू मारे जा चुके थे। फिर भी उनको थोड़ा सा संतुलन लगा कि 400 को हमारी सरकार ने मार दिया। और फिर कहा कि भाई बंगाल में जो कुछ हुआ (नोआखली का जिक्र कर रहे थे बिना नाम लिए) वह दुर्भाग्यपूर्ण है। फिर उन्होंने बिहार के किसानों और हिंदुओं से सवाल किया कि क्या यही आपकी संस्कृति है? क्या यही आपकी सभ्यता है जिस पर आपको इतना गर्व है? मुसलमानों कोई सवाल नहीं पूछा। नोआखली में मुसलमानों ने जो किया, उसके अलावा बंगाल के दूसरे हिस्सों में और देश के दूसरे हिस्सों में जो डायरेक्ट एक्शन डे के दिन किया मुसलमानों ने, उस पर उन्होंने कोई सवाल नहीं उठाया। कम से कम इस पत्र में तो नहीं उठाया, उसके अलावा कुछ कहा हो तो मुझे मालूम नहीं। इस पत्र में नेहरू को इस बात की बड़ी खुशी है, वह अत्यंत प्रफुल्लित हैं कि पुलिस फायरिंग में 400 किसान मारे गए। वे हिंदू थे इसलिए खुशी ज्यादा है।
आप इस मानसिकता को सोचिए और कांग्रेस पार्टी की पिछले 77-78 सालों की नीतियों को देखिए। आपको एक निरंतरता नजर आएगी। यह जो मुस्लिम तुष्टीकरण की बात होती है यह आज से नहीं शुरू हुई है। यह आजादी के आंदोलन के समय से ही शुरू है। मोपला नरसंहार पर महात्मा गांधी का बयान। और उसके बाद पार्टीशन के समय जो कुछ हुआ, देश के विभाजन के समय जो हिंसा हुई, उसके लिए कौन जिम्मेदार है? एक भगदड़ में 122 लोग मारे जाते हैं तो उसके लिए प्रशासन जिम्मेदार है। देश के बंटवारे के समय लाखों लोग मारे गए और करोड़ों लोग विस्थापित हुए उसके लिए कोई जिम्मेदार नहीं। कम से कम नेहरू तो नहीं हैं। आज तक आपने किसी किताब में, किसी लेख में, किसी बयान में सुना कि इसके लिए नेहरू जिम्मेदार थे। मैं विभाजन की नहीं, विभाजन के बाद जो नरसंहार हुआ, हिंसा हुई उसकी बात कर रहा हूं। इस नरसंहार के बारे में दुनिया भर में यह बात लिखी गई कि मानवता के इतिहास में इतनी बड़ी हिंसा और इतना बड़ा विस्थापन कभी नहीं हुआ था। उसके लिए नेहरू पर किसी ने उंगली नहीं उठाई। वह सिलसिला अभी भी चल रहा है। कांग्रेस के राज में आजादी के बाद से सबसे ज्यादा दंगे हुए और दंगों में सबसे ज्यादा लोग कांग्रेस के राज में ही मारे गए, लेकिन कांग्रेस जिम्मेदार नहीं है। कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष है। भारतीय जनता पार्टी जिसने अपने राज में दंगा रोक दिया, पिछले 10 साल में कोई सांप्रदायिक दंगा देश में नहीं हुआ है, वह सांप्रदायिक है। वह हिंदू मुस्लिम करती है इसलिए दंगा नहीं होने देती। यह विचित्र तर्क देखिए आप।
कांग्रेस हिंदू मुस्लिम नहीं करती व धर्म निरपेक्ष है इसलिए दंगा करवाती है- यह कहना शायद ठीक नहीं होगा। लेकिन दंगा होता है उसके राज में यह तो तथ्य है। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। तो यह जो मुस्लिम तुष्टीकरण का डीएनए है वह कांग्रेस में अभी तक और खास तौर से गांधी परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी ट्रांसफर हो रहा है। यह जो राहुल गांधी का मुस्लिम प्रेम और जो हिंदू विरोध है- वह उनको विरासत में मिला है। उससे अलग भी राजनीति हो सकती है इसके बारे में वह सोच ही नहीं सकते हैं। इसी सोच का नतीजा था 1984 जो सिखों के खिलाफ हुआ। जिंदा जला दिया गया, गले में टायर बांधकर आग लगाकर जला दिया गया। एक एफआईआर नहीं हुई। एक ओर कई हजार सिखों को मारा गया वह पार्टी सेकुलर है, डेमोक्रेटिक है, अहिंसावादी है। वह पार्टी अभय मुद्रा की बात करती है। वह पार्टी डरती नहीं है, वह पार्टी डराती नहीं है, सीधे मार देती है। इस अंतर को समझिए। किसकी क्या ओपिनियन है, किसकी क्या राय है, मैं क्या कह रहा हूं, दूसरा कोई क्या कह रहा है- उस पर जाइए ही मत, उस पर ध्यान ही मत दीजिए। जो तथ्य हैं उनको देखिए, इतिहास के पन्नों में जो सच्चाई लिखी है उसको पढ़िए और समझिए कि हम किस दौर से गुजरे हैं और आने वाले समय में किस दौर से गुजरने वाले हैं। यह जागने का समय है। यह इन अत्याचारों को याद रखने का समय है, भूल जाने का समय नहीं है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अख़बार’ के संपादक हैं)