डॉ. मधुबाला शुक्ल

मुम्बई की सांकृतिक संस्था ‘बतरस’ ने अपनी मासिक गोष्ठियों की श्रिंखला में प्रेमचंद जयंती के इस जुलाई महीने में कहानी-पाठ एवं परिचर्चा…आदि की लीक से हटकर एक रोचक कार्यक्रम आयोजित किया – ‘प्रेमचंद की कहानी : थिएटर और मीडिया की ज़ुबानी’। अपने नियमित स्थल ‘एन.एल. महाविद्यालय, मालाड’ में आयोजित इस कार्यक्रम में प्रेमचंदजी के मुतालिक कुल छह थिएटर एवं मीडिया-कर्मियों ने शिरकत की।

सबसे प्रमुख रहे – जनाब सलीम आरिफ़, जो यूँ तो बी.एन.ए. एवं रानावि से प्रशिक्षित रंगकर्मी हैं, इप्टा में खूब नाटक किये हैं, लेकिन उनकी बड़ी ख्याति है – टीवी एवं फ़िल्मों में परिधान-परिकल्पक (कॉस्चयूम डिज़ाइनर) के रूप में…। और प्रेमचंद पर टेलीविजन के लिए सर्वाधिक काम करने वाले गुलज़ारजी के सारे कार्यक्रमों में परिधान के सिवा भी पूरे निर्माण एवं प्रबंधन में सक्रिय रूप से जुड़े रहे। लिहाज़ा ‘गोदान’ पर बनी उनकी चार घंटे की फ़िल्म और लगभग तीन दर्जन कहानियों पर बने उनके धारावाहिकों की बावत तबील जानकारी का पूरा खजाना उनके पास है, जिसे इस शाम बतरसियों के बीच उन्होने खुलकर साझा किये…। फलत: कहानियों एवं लोकेशन से लेकर कलाकारों के चयन से होते हुए शूटिंग व प्रसारण तथा इसकी लोकप्रियता की विस्तृत जानकारी बड़े ही सहज भाव से मिलती गयी…। बीच-बीच में कार्यक्रम का संचालन कर रहे ‘बतरस’ के प्रमुख आयोजक सत्यदेव त्रिपाठी कुछ-कुछ रेकोर्ड व सूचनाओं की बावत पूछते रहे, क्योंकि उन प्रसारणों के जमाने में त्रिपाठीजी की पीढ़ी जवान थी और वे तो ऐसे कार्यक्रमों के रसिया होने के साथ ही पत्रकारिता की जानिब से इस क्षेत्र के साथ सरोकार भी रखते थे, जिससे छोटे-छोटे सवालों व पूरक जानकारियों की जिज्ञासा के रूप में तमाम अनछुई जानकरियाँ भी सामने आती गयीं…। उदाहरण के लिए जहां होरी के रूप में पंकज कपूर थे, तो गोबर के रूप में गुजराती के एक नये लड़के को लेने के औचित्य जैसे विरल तथ्य भी नुमायाँ होते गये। कहना होगा कि मीडिया में प्रेमचंद की पैठ और उनके कथा साहित्य को अनोखे रूपों में व्यक्त करते परदा माध्यम का समूचा संसार सलीम साहब की ज़ुबानी उस शाम फिर से श्रव्य होते हुए दृश्यता की सारी कसर पूरी करता रहा। इसमें ‘बनाके दिखाया गया’, की चर्चा के साथ वे पहलू भी सामने आये, जिन्हें चाहकर भी किन्ही व्यवस्था सम्बंधी, तकनीकी या फिर आर्थिक कारणों से नहीं किया जा सका…और ज़ाहिर है कि ऐसी चर्चाएँ ज्यादा रोचक व यादगार सिद्ध हुईं। इस दौरान जहां बीसों साल पुराने कामों को लेकर आरिफ़ साहब की ग़ज़ब की याददाश्त से लोग चमत्कृत होते रहे, वहीं वे सहज जानकारियाँ ऐसी सरल व प्रांजल भाषा में व्यक्त हुईं कि श्रोताओं को तह तक का मज़ा आ गया…। भाषा-भावों पर आरिफ साहब का कमाल का अधिकार है, जिसके चलते उस आधे घंटे में टीवी के ज़रिए व्यक्त हुआ प्रेमचंद का जो रचना-संसार जिस तरह नुमायाँ हुआ, उसका कोई सानी नहीं हो सकता…।

रंगकर्म से कई कर्त्ता उपस्थित थे, जिनमे वरिष्ठ रंगकर्मी एवं टीवी पर ‘वागले की दुनिया’ एवं ‘ऑन मेन ऐट वर्क’ के ज़ज जैसे कई किरदारों को फ़िल्म में साकार करने वाले अंजन श्रीवास्तव ने इप्टा के लिए किये नाटक ‘मोटेराम का सत्याग्रह’ की जानिब से कहा कि मंच पर उनकी कहानी को करते-करते ही वे असली प्रेमचंद को समझ पाये। नाटक में उनकी भूमिका विनोदी भी थी और व्यंग्यात्मक भी, जिसे करते हुए उन्हें देखना अद्भुत अनुभव हुआ करता था…। ख़ास बात यह कि इतने वरिष्ठ व बुजुर्ग कलाकार का परिवार के स्वास्थ्य-संकट एवं बारिश के बावजूद ‘लीलावती’ अस्पताल से भाग-भाग कर ऐसे सांस्कृतिक कार्यक्रम में आने का वायदा निभाना…और बीच-बीच में फ़ोन-मेसेज से अपने आने की खबर देते रहना…उस पीढ़ी के कलाकार की प्रतिबद्धता की नज़ीर बन गया – तब और, जब उसी बारिश के डर से प्रतिभागी एवं समिति के कुछ सदस्य तक अपने घर से ही न आ सके।

अंजनजी के बाद इप्टा के उसी नाटक में मोटेराम की भूमिका करने वाले अखिलेंद्र मिश्र (चंद्रकांता के ‘अक्क’ की ठसक वाले क्रूर सिंह एवं फ़िल्म ‘सरफ़रोश’ में मिर्ची सेठ…आदि से अपनी अनोखी स्टाइल के लिए सरनाम) ने अपनी उसी शैली में अपनी बात रखने के दौरान प्रेमचंदजी के मीडिया व मंच के कई रूपों की  रोचक विवेचना की। अंजनजी के बोलते हुए अखिलेंन्द्र का माइक पकड़े खड़े रहना अंदाज में भले नाटकीय रहा हो, श्रद्धा की बाढ़ तो ही ही। का भी अपने  नामचीन रंगकर्मी विजयकुमार ने ‘मंच’ के लिए मगही में खेले किये ‘गोदान’ के भाषिक रूपांतरण से लेकर पूरे बिहार में हुए कई-कई शोज़ की रोचक दास्तानों के साथ गीत भी सुनाया। इसी तरह ‘रंगभूमि’ में सूरदास की मुख्य भूमिका को बीस साल पहले से लेकर अब तक अद्भुत रूप से अंजाम देने वाले नाटय के प्रति समर्पित और अब टीवी एवं ‘तर्पण’ जैसी साहित्य-आधारित ज़हीन फ़िल्म में दलित नायक के पिता की भूमिका निभाने वाले कलाकार नंद पंत ने पूरे उपन्यास के नाट्यरूप की सधी चर्चा की। उन्होंने अपने अभिनय की झलकियों के साथ गायन भी पेश किये। इस तरह दोनो महान उपन्यासों के मंचीय रूप का श्रोताओं पर पर गहरा असर पड़ा…। मशहूर कहानी ‘बड़े भाई साहब’ के मुम्बई में वर्षों तक सैकड़ों शोज़ करने वाले विवेक त्रिपाठी ने भी अपने रंग़-जीवन के शुरुआती दिनों में मंचन के लिए इस कहानी के चयन से लेकर प्रस्तुत करने के अपने बेहद रोचक अनुभव सुनाये, जब वर्षों तक चलने वाला यही मंचन इस महानगर में उनके बने रहने का सम्बल बना और विद्यालयों-महाविद्यालयों में जुलाई माह में प्रेमचंद जयंती से लेकर सितम्बर में हिंदी दिवस मनाये जाने के निमित्त इसके प्रदर्शन खूब हुए, जिनमे छोटे भाई करने वाले कलाकार तो कई बदले, लेकिन सर्वाधिक शोज़ किये – परितोष त्रिपाठी ने, जो आज मीडिया में काफ़ी सरनाम हो चुके हैं…। लेकिन भोंदू ज़ेहन वाले उपदेश-कुशल बड़े भाई को विबेक ही खेलते रहे…।

कार्यक्रम में कविता की जानिब से प्रेमचंद को साकार करने वालों में ख्यात कवि अनिल गौड़ ने अपनी स्वरचित कविता ‘कौन हो तुम प्रेमचंद’? सुनायी और वरिष्ठ कवि नंदलाल पाठक की कविता ‘हे प्रेमचंद, तुमने कितना विषपान किया’ का पाठ किया शाइस्ता खान ने। प्रसिद्ध गायक दीपक खेर ने गोदान फ़िल्म का गीत क्लासिकल गीत ‘हिया जरत रहत दिन रैन…’ अपने वाद्य के साथ गाके श्रोताओं को विभोर कर दिया…। कार्यक्रम का सहजता से संचालन किया बतरस के प्रमुख आयोजक सत्यदेव त्रिपाठी ने। कुल तीन घंटे चले इस कार्यक्रम में भारी बारिश के बावजूद श्रोताओं की अच्छी भागीदारी प्रेमचंद की महत्ता का प्रमाण रही। ‘जनगणमन’ से गोष्ठी सम्पन्न होने के बाद भी सुस्वादु अल्पाहार एवं फोटोग्रैफ़ी के दौरान भी प्रेमचंद व उनके साहित्य की बातें निरंतर चर्चा में बनी रहीं, जो इस बेताज के सम्राट कथाकार के क्लासिक होने का सच्चा प्रमाण रहा…।