डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
जो संयमी होता है और सभी प्रकार की वासनाओं से मुक्त होता है, उसे स्वभावत: कुछ सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं। उड़िया बाबा (सन् 1875-1948) भी ऐसे ही महापुरुष थे। उन्हें कई सिद्धियाँ प्राप्त थीं, परन्तु वह उनका कोई सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं करते थे। फिर भी वह अन्नपूर्णा सिद्धि के लिए विख्यात थे। सन्तों की समस्त चेष्टाएँ लोक कल्याणार्थ होती हैं।
वह उड़िया बाबा इसलिए कहे जाते थे, क्योंकि वह मूलत: उड़ीसा के थे।
अपने निजी अनुभवों के आधार पर उड़िया बाबा के बारे में स्वामी अखण्डानन्दजी सरस्वती (सन् 1911-1987) और श्रीप्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी (सन् 1885-1990) ने बहुत लम्बे-लम्बे लेख लिखे हैं। स्वामी अखण्डानन्दजी का लेख उनकी पुस्तक ‘पावन प्रसंग’ में पृष्ठ 1 से 28 पर है। इस पुस्तक के चतुर्थ संस्करण (मई 2012) के प्रकाशक हैं: सत्साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, वृन्दावन।
श्रीप्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी का लेख ‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ नामक पुस्तक के प्रथम खण्ड में पृष्ठ 21-44 तक पर है। इसके द्वितीय खण्ड में भी पृष्ठ 4 से 17 तक स्वामी अखण्डानन्दजी का उड़िया बाबा के बारे में एक लेख है। इस पुस्तक का प्रकाशन संवत् 2015 में बाबा के परलोकगमन के लगभग दस वर्ष बाद श्री कृष्णाश्रम, दावानल कुण्ड, वृन्दावन, मथुरा, ने किया। इन दोनों खण्डों के सम्पादक हैं: स्वामी सनातनदेव और गोविन्ददास वैष्णव।
वर्तमान लेख में उड़िया बाबा के प्रारंभिक जीवन के बारे में बताया गया है। यह भी बताया है कि उड़िया बाबा अन्नपूर्णा सिद्धि की जरूरत क्यों हुई। इस लेख में इस बात की भी चर्चा की गई है कि उड़िया बाबा हमेशा पैदल ही क्यों चलते थे। उन्होंने भारत के कोने-कोने में भ्रमण किया, लेकिन सब जगह वह पैदल ही गए, जबकि उनके जीवनकाल में ट्रेनें चलती थीं, बसें भी चलती थीं।
उड़िया बाबा का प्रारंभिक जीवन
उड़िया बाबा का मूल नाम आर्त्तत्राणजी था। उनका जन्म श्रीजगन्नाथपुरी, उड़ीसा में भाद्रपद कृष्ण 6 संवत् 1932 (सन् 1875) को ठीक मध्याह्न के समय हुआ। पिता का नाम श्री वैद्यनाथ मिश्र था। उस दिन जन्माष्टमी का उत्सव था। घर में प्रथम पुत्र होने के कारण सभी को बहुत आनन्द हुआ, किन्तु विधाता का विधान दूसरा ही था। माता श्रीमती लक्ष्मी देवी को प्रसूति रोग ने घेर लिया। और वह तीसरे दिन नवजात शिशु को मातृहीन करके परलोक सिधार गईं।
अब आर्त्तत्राणजी के पालन पोषण का भार उनकी छोटी ताई पंडित प्रकार मिश्र की पत्नी ने सम्भाला। उनके कोई सन्तान नहीं थी।
प्रारम्भ में 12 वर्ष तक आर्त्तत्राणजी की शिक्षा घर पर ही हुई। उड़िया भाषा, गणित और संस्कृत पढ़ी। बारह वर्ष की आयु में एक दिन आपने बगैर किसी को बताए घर छोड़ दिया। मयूरभंज आ गए। और वहां एक पाठशाला में भर्ती हो गए। फिर वह से वह बाल्याबेड़ा चले गए और वहाँ पाँच वर्ष विद्या अध्ययन किया और वहाँ से काव्यतीर्थ की परीक्षा पास की। बाल्याबेड़ा में कटक के रहने वाले गंगाधर मिश्र नाम का एक विद्यार्थी था। वह आर्त्तत्राणजी को अपना छोटा भाई समझता था। किसी कार्यवश वह मेदिनीपुर गया और वहां चार-पांच घंटे में ही हैजे से उसका देहान्त हो गया। इससे आर्त्तत्राणजी को सारा संसार नाशवान और नीरस प्रतीत होने लगा। यहीं से उनका वैराग्य आरम्भ हुआ।
शिक्षा समाप्त कर आर्त्तत्राणजी घर लौट गए। तभी उड़ीसा में भयंकर अकाल पड़ा। भूख से बड़ी संख्या में लोग मरने लगे। उनका चित्त अत्यन्त व्यथित हो उठा। उन क्षुधा पीडतों के बारे में सोचते-सोचते उन्हें य़ह प्रेरणा हुई कि अन्नपूर्णा सिद्धि प्राप्त की जाए जिससे सबको निरन्तर खिलाया जा सके। सन्तों की समस्त चेष्टाएँ लोक कल्याणार्थ होती हैं।
आजकल के अनेक युवा दुर्भिक्ष या अकाल का मतलब आसानी से नहीं समझ सकते हैं, क्योंकि उनके जीवन काल में अकाल कभी पड़ा ही नहीं। आज भारत में इतना अन्न भण्डार है कि हम उसका निर्यात करते हैं उसको फ्री में भी बांटते हैं। जबकि पहले ऐसा नहीं था। भारत में अन्तिम अकाल सन् 1964-65 में पड़ा था। देश में गेहूं की इतनी कमी हो गई थी कि अमेरिका से गेहूं आयात होता था। और अमेरिका अपने यहाँ का सबसे खराब गेहूं भारत को भेजता था। इन सब कारणों से खाने की चीजों के मूल्य बहुत बढ़ गए थे। मूल्य वृद्धि के कारण देश के कुछ शहरों में उग्र प्रदर्शन हो रहे थे। ऐसे ही उग्र प्रदर्शन में अहमदाबाद में पाँच लोग मर गए थे। 7 अगस्त 1964 को न्यूयार्क टाइम्स में इस बारे में खबर भी छपी थी जिसे गूगल पर यह टाइप करके पढ़ा जा सकता है: Shastri asks unity during food crisis
इस खबर को इस URL पर क्लिक करके भी पढ़ा जा सकता है:
https://www.nytimes.com/1964/08/08/archives/shastri-asks-unity-during-food-crisis.html
आजादी के पहले के अर्थात उड़िया बाबा के जमाने के दुर्भिक्ष और भयंकर होते थे। उनमें लाखों लोग भूख से मर जाते थे। इस बारे में ज्यादा जानकारी के लिए क्लिक करें:
https://en.wikipedia.org/wiki/Famine_in_India
अन्नपूर्णा सिद्धि की प्राप्ति के लिए चैत्र कृष्ण 5 संवत् 1951 को उड़िया बाबा ने घर छोड़ दिया। उन्होंने कामरूप कामाख्या का मार्ग पकड़ा। जगन्नाथ पुरी से कलकत्ता होते हुए गौहाटी पहुंचे। वहाँ कामाख्या देवी का क्षेत्र देखकर आर्त्तत्राणजीका उनका मन प्रसन्न हो गया। वहाँ सिलहट (जोकि अब बंगलादेश में है) के एक बंगाली सज्जन ने उनके अनुष्ठान के लिए आवश्यक धन का इन्तजाम कर दिया। तब पूरे विधान से नवदुर्गा का अनुष्ठान चलने लगा। वहाँ स्वप्न में आर्त्तत्राणजी को देवी के दर्शन भी हुए और एक दिन एक महात्माजी से ‘विवेक-चूडामणि’ सुनने का अवसर मिला। उसे सुन कर उन्हें ऐसा लगा कि अब देवी ने मेरी बात सुनी है। फिर यह भी लगा कि कितने लोग अन्न लेने के लिए मेरे पास आ सकेंगे और मैं भी कितने दिन जीऊँगा? इस कारण आर्त्तत्राणजी को यह सकाम अनुष्ठान ठीक नहीं लगा। उन्हें लगा कि मुझे सभी कामनाएँ त्याग कर जगदम्बा का भजन करना चाहिए। इसलिए अनुष्ठान छोड़कर वह घर लौट आए। उनका वैराग्य भाव दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था। इस बीच उनकी ताई का निधन हो गया। उन्हीं के प्रेमवश वह बार-बार घर लौट आते थे । वह बन्धन कटने पर आर्त्तत्राणजी ने शंकराचार्य स्वामी श्रीमधुसूदन तीर्थ से बहुत अनुनय विनय करके नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा ले ली। अब आर्त्तत्राणजी का नया नाम हो गया – ब्रह्मचारी वासुदेवस्वरूप । पिता और ताऊ को दुःख तो हुआ पर करते क्या? जगद्गुरु ने कहा कि मैं इसे दीक्षा न देता, तो भी यह अन्यत्र जाकर दीक्षा ले लेता। मेरे निकट रहने से आप लोगों को भी सुविधा रहेगी। ऐसा सोच कर मैंने इसे दीक्षा दे दी।
सिद्ध योगियों की खोज
तभी उनमें सिद्ध योगियों की खोज करने की तीव्र इच्छा जाग्रत हुई। असम और भूटान में उन्होंने हठयोगियों की बड़ी खोज की। चाहते थे कि ऐसा योगी मिले जिसे निर्विकल्प (निश्चल/ स्थिर) समाधि सिद्ध हो। कूचबिहार में एक हठयोगी मिले। उन्होंने आसन, त्राटक, ध्यान, धारणा आदि का अभ्यास भी कराया । समाधि भी प्राप्त हुई पर अन्त में यही समझ में आया कि ये भी निर्विकल्प समाधि की स्थिति पर नहीं पहुँच पाए हैं।
(सिद्ध योगियों की खोज का उड़िया बाबा का अनुभव एक लेख के रूप में गीता प्रेस की मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ के वर्ष 1935 के विशेषांक में पृष्ठ 27 पर प्रकाशित हुआ था। एक हजार से अधिक पृष्ठों वाले इस विशषांक में उड़िया बाबा के लेख का शीर्षक था: ‘वर्तमान काल में किस योग का आश्रय लेना चाहिए?’)
संन्यास लेने की तीव्र इच्छा
फिर उनकी संन्यास लेने की तीव्र इच्छा हुई। आचार्य-चरण से प्रार्थना की तो उन्होंने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। बत्तीस वर्ष की आयुमें उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया। अब उनका नाम हो गया – दण्डी स्वामी श्रीपूर्णानन्द तीर्थ । पर लोग उन्हें उड़िया बाबा या श्रीमहाराजजी के नाम से ही जानते थे, क्योंकि वह उड़ीसा के थे। आचार्य-चरण चाहते थे कि आप ही आगे चलकर आचार्य-पीठ को सम्हालें, पर मठ का वैभव उनको आकृष्ट नहीं कर सका। वह उसे छोड़कर चल दिये।
रेल टिकट कलेक्टर ने धक्का-मुक्की की
एक बार उड़िया बाबा ट्रेन से जा रहे थे। रास्ते में किसी ने उन्हें कोई कोई मादक पदार्थ पीला दिया। इस कारण उनको ट्रेन में नींद लग गयी। काशी जाने के लिए ट्रेन बदलना वह भूल गए और सोते रह गए। काशी की जगह छपरा पहुँच गए। टिकट कलेक्टर काशी का टिकट देखकर लाल-पीला होने लगा। उसने बाबा को बुरा भला कहा और धक्का-मुक्की कर ट्रेन से उतार दिया।
यह घटना आपके जीवन में एक स्थाई नियम का निमित्ति बनी। कभी-कभी कोई छोटी सी बात बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। महापुरुषों के जीवन में ऐसे प्रसंग बहुत देखे जाते हैं। भगवान बुद्ध को एक शव देखने से ही वैरागी हो गया था और वह तपस्वी बन गए थे। गोस्वामी तुलसीदास को स्त्री की थोड़ी सी व्यंग्योक्ति ने ही संसार से छुड़ा कर सदा के लिए श्री राम के चरणों में समर्पित कर दिया। ऐसी घटनाएँ हृदय की सजीवता को सूचित करती हैं। जिनके हृदय मुर्दा हैं वे न जाने कितने तिरस्कार सहते हैं, तब भी वह उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
स्वामी अखण्डानन्दजी ने अपनी पुस्तक ‘पावन प्रसंग’ (चतुर्थ संस्करण मई 2012, प्रकाशक: सत्साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, वृन्दावन, पृष्ठ 10 ) पर लिखा: उड़िया बाबा स्टेशन से निकल कर गंगा-तटपर आए और वहाँ जल हाथ में लेकर संकल्प किया कि अब कभी किसी सवारी पर नहीं बैठूंगा। इस संकल्प को उन्होंने जीवन भर निभाया।
पर हाँ, जीवन के अन्तिम वर्ष में जब वह बहुत बीमार रहने लगे, तब माँ आनन्दमई के आग्रह पर आपने अपना यह संकल्प तोड़ा था।
शेर और डाकू का दर्शन
उड़िया बाबाजी से मिलने नाना प्रकार के भक्त आते। अच्छे भी आते बुरे भी, सत्पुरुष भी आते, चोर और डाकू भी। एक बार एक शेर उधर आ गया । लोग डरे तो उन्होंने कहा- ‘भैया, डरने की बात नहीं। वह चामुण्डा देवी के दर्शन करने के लिए आता है। दर्शन करके चला जाएगा।’ और वह चला भी गया।
‘पावन प्रसंग’ पुस्तक के पृष्ठ 17 पर स्वामी अखण्डानन्दजी लिखते हैं:
“एक बार गर्मियों में एक डाकू – सरदार आपके दर्शन के लिए पहुँचा। उस पर दस हजार रुपये का इनाम था। पेड़ के सहारे बन्दूक टिका कर महाराजजी को प्रणाम करने आया था। हालचाल पूछने पर खुल पड़ा – ‘महाराजजी! डाका डालने जा रहा हूँ।’
‘एक बात मानेगा ?’
‘क्या महाराज?’
‘देख, स्त्रियों को मत छूना ।’
‘ठीक है महाराज! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि स्त्रियों को हाथ नहीं लगाऊँगा।’
एक जमींदार के यहाँ उसने डाका डाला। लूटका माल लेकर जब गाँवसे दो मील आ गया तो उसने देखा कि उसके साथी जमींदार की लड़की को पलंग सहित उठा कर ला रहे हैं। देखते ही गुर्राया- ‘इसे क्यों लाए हो? इसे वापस करना होगा।’
साथी बोले : ‘अब वहाँ जाने से हम सब मारे जायेंगे। गाँव वाले इकट्ठे होकर हमें खतम कर देंगे।’
‘चलो मैं चलता हूँ’!
उसे पलंग सहित गाँव पर लौटा कर डाकू-दल लौट आया। डाकू सरदार जब डेरे पर लौटा तो पश्चात्ताप से उसका चित्त व्यथित होने लगा। सोचने लगा कि हमारा कैसा अधम जीवन है। लोग रोते-चिल्लाते और तड़पते हैं और हम उनकी छातीपर चढ़कर उनका धन लूटते हैं, हमारे साथी उनकी स्त्रियों का अपमान करते हैं। आत्मग्लानि से उसका चित्त भर गया। उसका हृदय परिर्वतन हो गया। उसने सदाके लिए यह असत्-मार्ग छोड़ दिया। दल भंग करके वह कल्याण-मार्ग का पथिक बन गया। श्रीमहाराजजी की प्रेरणासे ऐसे कई डाकू डाका डालना छोड़कर सत्यपथ पर आरूढ़ हुए।“
लोंगों के ऐसे अनेक संस्मरण हैं जबकि किसी बुरे व्यक्ति ने बाबा से मिलने के बाद अपना बुराई का व्यसन छोड़ दिया।
बाबा के नेत्रों से प्रेम का झरना बहता था
उड़िया बाबा के नेत्रों से प्रेम का झरना बहता था। उनका व्यवहार सभी के साथ बहुत स्नेहमय था। ‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (प्रकाशक श्री कृष्णाश्रम, दावानल कुण्ड, वृन्दावन, मथुरा प्रथम खण्ड, प्रकाशन वर्ष संवत् 2015, पृष्ठ 26) पर श्रीप्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी लिखते हैं कि उन्होंने (उड़िया बाबा ने) मुझे अपने प्रेम से नहला दिया।
‘पावन प्रसंग’ पुस्तक में स्वामी अखण्डानन्दजी ने भी अपने लेख में लिखा कि उड़िया बाबा ने मुझे जितना प्रेम दिया उतना किसी ने नहीं दिया।
उड़िया बाबा के एक मित्र थे श्री हरि बाबा (1884-1970)। उन्होंने भी ‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ नामक उपर्युक्त पुस्तक में अपने अनुभव लिखे हैं। ‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (प्रथम खण्ड पृष्ठ 7) पर श्री हरि बाबा लिखते हैं कि उड़िया बाबा का प्रत्येक भक्त यह अनुभव करता था कि सबसे अधिक वह मुझसे ही प्रेम करते हैं। उनका प्रेम माता पिता से भी बढ़ कर था।
श्री हरि बाबा कौन थे
यहाँ संक्षेप में यह बता देना भी आवश्यक है कि ये श्री हरि बाबा कौन थे?
सन्त हरिबाबा का जन्म पंजाब के होशियारपुर जिले के गंधवाल गांव में सरदार प्रताप सिंह के घर पर हुआ था। अपने गुरुदेव सच्चिदानंद और भगवान में पूर्ण आशक्ति रखने वाले हरिबाबा गुरु से ही बैरागी स्वभाव के थे। लाहौर मेडिकल कालेज से एमबीबीएस फाइनल की पढ़ाई छोड़कर वे घूमने निकल पड़े। जगह-जगह घूमते हुए जब बदायूं जिले के गवां इलाके में आए, तो वहां गंगा की भीषण बाढ़ से प्रलय का दृश्य था। हजारों लोगों के घर और खेती डूब गई थी। लगभग हर वर्ष आने वाली इस बाढ़ को रोकने के लिए श्री हरिबाबा ने सन् 1920 में स्थानीय लोगों के सहयोग और परिश्रम से मिट्टी के बांध का निर्माण शुरू करवाया। हौसला इतना बुलन्द था कि लगभग 35 मील लम्बा यह बांध छह माह में बनकर सन् 1921 तैयार हो गया। इस तरह बाबा ने कम समय में वह काम कर दिखाया जो ब्रिटिश सरकार वर्षों से नहीं कर पाई थी।
‘पावन प्रसंग’ पुस्तक के पृष्ठ 18 पर स्वामी स्वामी अखण्डानन्दजी ने लिखा कि जब बांध बन रहा था तो हरि बाबा घण्टा बजा कर कीर्तन भी कराते जाते थे। सबसे कहते थे – ‘यह बांध साक्षात् अन्तर्यामी भगवान् ही है। जिस व्यक्ति का जो ध्येय (मनोकामना) होगा, वह पूरा होगा। बांध पर मिट्टी डालने से सभी संकट दूर हो जाएंगे।‘
तब से आज तक इस बांध धाम आश्रम में दिन-रात अखण्ड हरि कीर्तन चलता रहता है।
उड़िया बाबा बहुत तेज पैदल चलते थे
‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (प्रथम खण्ड पृष्ठ 22-23) पर श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी ने लिखा कि उड़िया बाबा बहुत ही दयालु, मृदुभाषी और सरल प्रकृति के थे। जो एक बार आपके दर्शन कर लेता वह सदा के लिए आपका बन जाता था।
‘पावन प्रसंग’ पुस्तक के पृष्ठ 48 पर स्वामी स्वामी अखण्डानन्दजी ने लिखा कि (महाराजजी के) पैदल चलने में इतनी तीव्रता थी कि पच्चीस-तीस मील (अर्थात चालीस-पचास किलोमीटर) एक दिन में चले जाते थे और साथ चलने वालों को आपका संग देने के लिए भागना पड़ता था। सवारी में कभी नहीं चलते थे।
जीवनके अन्तिम वर्ष में शारीरिक दुर्बलता के कारण आना-जाना लगभग बन्द कर दिया था।
‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 78-79) पर बाबा रामदासजी लिखते हैं:
पूज्य श्री हरि बाबाजी और माँ (आनन्दमयी) ने पंजाब जाने का प्रोग्राम बनाया। श्री महाराजजी (उड़िया बाबा) अस्वस्थ थे। यद्यपि इस यात्रा में जाने में उनकी रुचि नहीं थी, तो भी (हरि) बाबा की प्रसन्नता के लिए उन्होंने भी जाना स्वीकार कर लिया। उनके साथ हम आठ-दस साधु भी गए।
इस यात्रा का पहला पड़ाव था दिल्ली। … (वहाँ के) कुछ प्रमुख नागरिकों ने श्री महाराजजी (उड़िया बाबा) को ले जा कर राष्ट्रपति भवन और संसद भवन भी दिखाए।
‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (प्रथम खण्ड, पृष्ठ 27-28) पर श्रीप्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी ने लिखा:
वे (उड़िया बाबा) सदा एक चादर और एक कमण्डल रखते थे। इसके अतिरिक्त कोई अन्य वस्तु साथ नहीं रखते थे। जिसके यहाँ से चलना होता, रात्रि में चुपके से चले जाते थे, किसी से कहते नहीं थे। … वे सब कुछ छोड़ कर चले जाते थे।
‘पावन प्रसंग’ पुस्तक के पृष्ठ 27 पर स्वामी अखण्डानन्दजी ने लिखा कि बड़े-से-बड़ा मान अथवा बड़े-से-बड़ा अपमान आपको क्षुब्ध नहीं कर पाता था। उदारता, क्षमा, अक्रोध के आप प्रतीक थे। कहते भी थे कि मुझे कहीं भी ले जाओ, किसी भी परिस्थिति में क्रोध का नाम-निशान भी नहीं होगा। बड़ी से बड़ी विपत्ति या बाहरी घटना आपको छू नहीं पाती थी।
उड़िया बाबा के उपदेश और लेख गीता प्रेस की हिन्दी मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ में छपते रहे। इसी प्रकार स्वामी अखण्डानन्दजी और श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी के लेख भी ‘कल्याण’ में प्रकाशित होते रहे। श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी आजादी के पहले स्वतन्त्रता आन्दोलन में जेल गए और आजादी के बाद गोरक्षा आन्दोलन में तिहाड़ जेल में बंद रहे।
स्वामी अखण्डानन्दजी ने तो ‘कल्याण’ के सम्पादकीय विभाग में काम भी किया। तब उनका नाम शान्तनु विहारी द्विवेदी था। बाद में उन्होंने संन्यास ले लिया था और फिर वह स्वामी अखण्डानन्दजी सरस्वती के नाम से विख्यात हुए।
श्रीभाईजी: एक अलौकिक विभूति, गीतावाटिका प्रकाशन, सन् 2000, पृष्ठ संख्या 111 पर गम्भीरचन्द दुजारी ने लिखा: ‘कल्याण’ में प्रकाशित लेखों से प्रभावित हो कर शान्तनु विहारी द्विवेदी ज्येष्ठ संवत् 1991 (जून 1934) में पहली बार गोरखपुर आए। … भाईजी (‘कल्याण’ के सम्पादक श्रीहनुमान प्रसादजी पोद्दार) से मिलने की उनकी इच्छा इतनी तीव्र हुई कि वह रुपए पैसे का ख्याल न करके खाली हाथ जैसे थे, वैसे ही चल पड़े। दोहरी घाट स्टेशन तक रेल (ट्रेन) से आए और फिर वहाँ से गोरखपुर करीब चालीस मील (लगभग चौसठ किलोमीटर) पैदल चल कर। भाईजी से मिलने पर इन्होंने पहला प्रश्न किया – भगवान् में प्रेम कैसे हो? उत्तर में श्रीभाईजी के आँखों से अश्रु (आँसू) टपकने लगे एवं उन्हें गले लगा कर बोले – ‘उमा राम सुभाउ जेंहि जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना।‘
(श्रीरामचरित मानस के सुन्दर काण्ड कि इस चौपाई का अर्थ है: हे उमा! जिसने राम का स्वभाव जान लिया, उसे भजन छोड़कर कोई दूसरी बात सुहाती ही नहीं।)
भाईजी के स्नेह भाव ने इन्हें आकर्षित कर लिया। एक बार तीन-चार दिन रह कर चले गए। दूसरी बार संकीर्तन के समय आषाढ़ शुक्ल 11 संवत् 1963 (30 जून 1936) को गोरखपुर आए। भाईजी के निकट रहने की उनकी प्रबल इच्छा होने से ये गोरखपुर (गीता प्रेस) के सम्पादकीय विभाग में काम करने लगे…।
आज जो हम गीता प्रेस की हिन्दी में श्रीमद्भागवत पढ़ते हैं, उसका संस्कृत से अनुवाद श्री शान्तनु बिहारी द्विवेदीजी ने ही किया था। उन्होंने गीता प्रेस के लिए संक्षिप्त महाभारत दो खण्डों में लिखी। इस महाभारत का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। स्वामी अखण्डानन्दजी ने लगभग 120 पुस्तकें लिखीं। वे या तो गीता प्रेस, गोरखपुर ने या सत्साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, वृन्दावन ने प्रकाशित की हैं।
इस लेख के लेखक का उड़िया बाबा पर एक लेख पहले भी प्रकाशित हो चुका है। जो पाठकगण उसे पढ़ना चाहें वे इस URL पर क्लिक करें:
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