बंसी कौल नाट्योत्सव – 5
सत्यदेव त्रिपाठी।
‘पद्मश्री बंसी कौल नाट्योत्सव’ की रंगपंचमी के समापन दिवस पर मुख्य अतिथि प्रसिद्ध समाजसेवी श्री राजेश त्रिवेदी एवं अग्रणी सांस्कृतिक संगठन ‘संस्कार भारती’ की काशी महानगर इकाई के अध्यक्ष श्री नीरज अग्रवाल, संगठन मंत्री श्री दीपक शर्मा एवं आयोजन की सहयोगी संस्था सनबीम शिक्षण समूह के अध्यक्ष श्री दीपक मधोक द्वारा दीप-प्रज्ज्वलन के साथ कार्यक्रम का शुभारम्भ किया। संस्था की संगीत शाखा के प्रभारी श्री सौरभ श्रीवास्तव द्वारा ध्येयगीत के बाद उत्सव की अंतिम प्रस्तुति के रूप में प्रेरणा रंगसमूह के नाटक ‘दुनिया का मेला’ का मंचन आरम्भ हुआ ।
सही अर्थों में नाट्य रूपांतर
नाट्यभूषण की उपाधि से नवाज़े गए मोतीलाल गुप्त के निर्देशन में उन्हीं के आलेख व गीतों से ‘प्रेरणा’ रंग समूह के लिए तैयार किया गया यह नाटक प्रेमचंद की सुप्रसिद्ध कहानी ‘मुक्तिधन’ का सही अर्थों में नाट्य रूपांतर है। कहानी का लगभग सब कुछ इस प्रस्तुति में आ गया है -घटना-प्रसंग से लेकर कारगर वाक्य और ख़ास शब्द तक , जो निश्चित रूप से प्रस्तोता के लिए श्रेय का सबब है। छूटा है प्रमुख रूप से वही शुरुआत का हिस्सा, जिसमें प्रेमचंदज़ी लगभग एक पृष्ठ में पैसे वालों के क़र्ज़ देने की औरव्याज वसूलने की प्रवृत्ति एवं व्याज-दर आदि के व्योरे देते हैं, जिसे छोड़ना अच्छे सम्पादन का साखी है। इसके बदले गाय बेचने जाते हुए कसाई ख़रीददारों को बाछे द्वारा भगाने तथा रहमान व उनके बीच खींचातानी के लम्बे दृश्य को जोड़ देना भी एक हद तक नाट्य की दृश्यता व कहानी के विस्तार के रूप में समझा जा सकता है, लेकिन नाटक की भूमिका बताते हुए निर्देशक द्वारा इसे गाय को बचाने व ‘गौ माता की कहानी’ बताने की बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता। कहानी तो रहमान के ज़रिए आदमी की नेकनीयती व इंसानियत की है, जो ठाकुर के समझने में जाके परवान चढ़ती है। गाय तो माध्यम है, जो कोई या कुछ और भी हो सकता है –जो प्रेमचंदजी की हर कहानी में बदल-बदल कर आते रहता है।
ऐसा बदलाव समझ से परे
शीर्षक का बदलाव अवश्य एतराज की जानिब से क़ाबिलेगौर है। नाट्योत्सव के प्रचार में ही ‘दुनिया का मेला’ के साथ प्रेमचंद का नाम देखकर कहानी याद नहीं आयी, तो आठो भाग जाँचा और नहीं मिला। फिर नाट्योत्सव में मेवालालजी से भेंट हुई, तो पूछने पर पता चला कि यह तो प्रेमचंद की चर्चित कहानी ‘मुक्तिधन’ है। अपने दिए नाम का इतना भी क्या मोह (ऑबसेशन) कि समूचे प्रचार में प्रेमचंदज़ी के दिये नाम का संकेत तक न हो! सोचने लगा कि कथा-सम्राट के ‘मुक्तिधन’ नाम को छोड़कर ‘दुनिया का मेला’ रखा है, तो ज़रूर कोई बात होगी– ऐसा कुछ परिमार्जन (इमप्रोवाइज़ेशन) होगा नाटक में, लेकिन अब नाटक देखने पर ऐसा न कुछ मिला, न मेवालालजी ने वक्तव्य में इसका कोई ज़िक्र किया। अस्तु, यह विचारणीय है ।इसमें कहना होगा कि ‘मुक्तिधन’ शब्द कहानी के अंत में उस पैसे के लिए आता है, जो रहमान ने ठाकुर से क़र्ज़ के रूप में लिया था। लेकिन ठाकुर ने उसे माफ़ कर दिया। इसके लिए रहमान ने उन्हें फ़रिश्ता कहा और अपने को उनका आजीवन ग़ुलाम माना। लेकिन ठाकुर साहब ने इसका खंडन करते हुए उसे दोस्त माना और जिस पैसे को अदा करने से ग़ुलाम को ग़ुलामी से छुटकारा मिलता है, उसे ‘मुक्तिधन’ बताते हुए कहा कि ये पैसे तुम्हारी मनुष्यता के चलते मुझे दी गयी गाय से ही मिले है, इसलिए यह ‘मुक्तिधन’ हुआ। इस तरह यह शब्द कहानी का पारिभाषिक शब्द हो कर पूरी कथा पर लागू होता है– ख़ास शब्द बन जाता है। और ‘दुनिया का मेला’ तो भीड़ के लिए मुहावरा है और अमूमन सबकुछ के लिए इस्तेमाल हो सकने वाला सामान्य शब्द है। इसलिए ऐसा बदलाव समझ से परे है।
खूब सारे नाटक देखने चाहिए
हाँ, ‘दुनिया का मेला है, ये दुनिया का मेला’ करके एक गीत पंक्ति बनी है, जिसका रेकार्ड हर दृश्य-परिवर्तन के समय बजता रहता है। यही ‘प्रेरणा’ समूह या मेवालालजी की उद्भावना है। ध्यातव्य है कि नाटक में दृश्य-परिवर्तन दर्शकों के देखते-देखते जीवंत (लाइव) रूप से होता है। इसे नाट्यभूषण गुप्तजी अपनी ख़ास शैली के रूप में प्रचारित करते हैं। इस नाट्योत्सव में मुझसे हुई पहली भेंट में ही स्वत: कहा और अपने नाटक के दिन देखने का सगर्व मधुर आमंत्रण दिया। मैं भी उत्साहित था। सो, यह शैली यही मिली – उक्त गीत-पंक्त का प्रयोग। और उसी दौरान पहले दृश्य में बने कूएँ को चौकोर बिछाकर रहमान के घर के लिए खाट बना दिया जाता है। और इसके बाद जब-जब ठाकुर के घर का दृश्य आता है, खाट वाले सेट के एक भाग को अलगाकर उसमें लगे तीन रंगीन डंडों को निकालकर अलग हुए आकार में गाड़ दिया जाता है। कहना होगा की इस क्रिया को बड़ा त्वरित अंजाम दिया जाता है, लेकिन यह कोई नयी बात नहीं कि गुप्तजी के नाम से इसे नाट्यप्रयोग के रूप में स्थापित किया जाए। ऐसा तो तमाम नाटकों में द्रष्टव्य है – इससे बेहतर ढंग से भी, जिसमें मंच से जाते हुए पात्र मंचोपकरण उठाए हुए सहज भाव से चले जाते हैं और वे ही पात्र या दूसरे पात्र नेपथ्य से अपने दूसरे उपकरण लिये चले आते हैं– आकर लगाते हुए नाटक जारी रहता है।
मेरी राय है कि हर रंगकर्मी को खूब सारे नाटक देखने चाहिए, कहाँ क्या हो रहा है, से वाक़िफ़ होना चाहिए, ताकि ऐसे नामाकूल दावों से बचा जाए ।और इस अदने से कृत्यके लिए प्रेमचंदजी का दिया नाम बदल देना क़तई वाजिब नहीं बनता । ख़ैर, अब इस सेट-परिवर्तन का एक अंजाम भी देखे लें इस तरह बना ठाकुर का घर भव्यता की एक छाप तो देता है, लेकिन वह भव्यता किस काम की, जो ठाकुर के बैठने तक की उपयुक्त जगह मुहय्या नहीं करा पाता। लिहाज़ा हर मुलाकात में अपने ही दरवाज़े पर रहमान से खड़े-खड़े बात करता हुआ ठाकुर कितना दयनीय लगता है कि अपने ही घर में उसके बैठने की जगह तक नही।
निर्मिति का शुभ पक्ष
प्रस्तुति का सर्वोत्तम भाग रहमान की भूमिका में अजित गौरव का होना है। जीवन में ऐसे ही रहमान होते हैं – बचपने में खूब देखा है अपने गाँव के जुम्मन व ख़लील भैया को। दाढ़ी आदि मेकअप व टिपिकल मुस्लिम परिधान जस का तस वाला रूटीन ही है, लेकिन इसी से फबता खूब है। अजित बड़ी विलंबित गति से आते-चलते हैं, जो उनके जीवन की दयनीयता से मेल खाकर खिलता है। उसी गति से बोलना भी ‘ठह के’ बोलने का सिला देता है और असर तो पैदा करता ही है। ठाकुर दाऊ दयाल बने मुकेश झंझरवाल भी आराम से ही बोलते और पदचाप को दबाते हुए चलते हैं, जो पहले तो सर्द-सा असर छोड़ता है फिर धीर-धीरे उनके अंदर की सज्जनता का पर्याय बनता जाता है। हाँ, कहानी में प्रेमचंदज़ी ने इस पात्र के जिस ठाकुराना रुआब का असर शुरुआत में बनाया है, वह इसमें किलका ज़रूर है, पर जमा नहीं है। इसी से अंत में उलीचकर आयी हुई मनुष्यता उस तरह का असर नहीं छोड़ती, जो गांधीजी के प्रभाव में प्रेमचंद द्वारा विकसित किए गए ‘हृदय-परिवर्तन’ सिद्धांत का पड़ता है और जिसके लिए प्रेमचंद व गांधीजी दोनो जाने जाते हैं। लेकिन इन सबके लिए ऐसे बड़े लेखकों का साहित्य उठाते हुए पूरी टीम को रचनाकार की ऐसी ख़ासियतों को समझना होता है, जिसकी उम्मीद तो क्या चर्चा करना भी आज व्यर्थ है, लेकिन इसी से आज कोई युगप्रवर्तक कला-निर्मिति हो भी नहीं पा रही है। लड्डूलाल मुनीम बने विजयप्रकाश ने अपने बोलने-चलने का जो अन्दाज़ व ‘दलाली काटके’ का तकिया कलाम अपनाया है, वह नाटकीय होकर आम दर्शक के लिए मज़ेदार बन पड़ा है। वैसे इसीलिए यह भूमिका खूब बढ़ा भी दी गयी है। गोविंदाकुमार ने रज्जो-बुजुर्ग व गाय की भूमिकाओं को सही साधा, अतीत व फ़क़ीर को अजयपाल ने, दादी व बछड़े व सोमारू को शशांक ने ठीक निभाया इस प्रकार सभी कलाकार सहयोगी भूमिकाओं में प्रस्तुति को उठाते हैं, जो इस निर्मिति का शुभ पक्ष है।
नाट्यविधा तथा नाटक दोनो पर अत्याचार
लेकिन ऐसी ज़हीन कहानी पर बनी प्रस्तुति का सबसे ख़राब पक्ष यह है कि सारे संवाद रेकार्डेड हैं। शो के तुरत बाद मैंने जाके गुप्ताजी से वजह पूछ ली। गुप्ताजी प्रकट हुए – हज़ारों में मेरा शो होता है, तो आवाज़ नहीं जाती, इसलिए ऐसा। यह अति है और नाट्यविधा तथा नाटक दोनो पर अत्याचार है। और इस अत्याचार पर हम दर्शक व नाट्यकला तो क्या, यंत्र भी इतने खिन्न व ख़फ़ा हुए कि गुप्ताजी के शेखी बघारने का साथ देना छोड़ दिया – प्रेमचंदजी व गांधीजी का ‘असहयोग आंदोलन’ खड़ा कर दिया। तमाम संवेदनशील स्थलों पर संवाद ही चुप हो गए। वाचा रहते कलाकार गूँगे हो गए। क्यों? निर्देशक की शेखी – नया प्रयोग, हज़ारों में शो के प्रचार का तमग़ा! यह रंगकर्म है?उनके उत्तर पर मैंने कहा भी –‘भाई तो वहाँ मैदान में ऐसा कीजिए, इस खूबसूरत सभागार में हम पे वह अत्याचार क्यों बरपा कर रहे हैं’? असल में वक़्त व परिस्थित के मुताबिक़ नाट्य में परिवर्तन करना होता है। हबीब साहब के ‘जिस लाहौर नहीं देख्या’ का मैंने मैदान में ४५ मिनट का और सभागार में दोघंटे तक का अलग-अलग प्रयोग देखा है। सो, आप विकास कर रहे हैं, तो हर स्थिति के लिए अलग तरह की तैयारी करना-रखना नाट्यकर्म है, यहाँ का रोग वहां फैलाना, अपनी असमर्थता को प्रयोग व उपलब्धि बखानना कला नहीं है। अभी कल तक तो ‘आगरे बाज़ार’ में नज़ीर की भूमिका करने वाला कलाकार गायक ही होता था, वरना रेकार्ड से नाटक न बनेगा। अब गीत-संगीत आदि तक का चला रहे हैं , लेकिन संवाद पहली बार देखा। तो कहना आलोचक-धर्म है।
भारतीय कला-संसार में अमर कला-यात्री
नाटक के बाद काशी महानगर शाखा के सचिव श्री सुमित श्रीवास्तव ने विस्तार से सबका आभार माना व आगे के कार्यक्रमों के लिए ऐसे सहयोग का निवेदन किया।
शो शुरू होने के पूर्व इस पूरे आयोजन के निमित्त रहे स्व॰ बंसी कौल की जीवन एवं नाट्य की अपनी स्मृति-यात्रा की समापन किस्त में प्रो॰ सत्यदेव त्रिपाठी ने कहा कि भारतीय कला-संसार में वे अमर कला-यात्री के रूप में सदा स्मरणीय रहेंगे। बीमारी की गंभीर अवस्था में अपने बंसी भाई के लिखे एक पत्र का हवाला देते हुए प्रो॰ त्रिपाठी ने उनकी अफ़ाट जीवनपरकता के सामने मौत द्वारा भी ज़िंदगी की भीख माँगने के रूपक को फ़िराक़ के शब्दों में यूँ उद्धृत किया – ‘उनके बज़मे तरब में हयात बिकती थी, उम्मीदवारों में कल मौत भी नज़र आयी’ !
(समाप्त)