दोनों को एक मानकर हो रहा व्यववहार, भयंकर हैं इसके खतरे: अश्विनी उपाध्याय।
डॉ. मयंक चतुर्वेदी।
वक्त गुजरते देर नहीं लगती, देखते ही देखते एक साल बीतने को है। लेकिन एक जवाब जिसे दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्थिति स्पष्ट करने के लिए केंद्र, राज्य एवं मंत्रालय समेत विभागों से चाहा था, उसका कोई उत्तर अब तक न्यायालय को नहीं मिला है। दरअसल, इससे यह समझ आ रहा है कि हमारे देश में सरकारी व्यवस्था कितनी संवेदनशील और सक्रिय है। बात दो शब्दों की है, जिनका उपयोग देश भर में अभी प्राय: एक ही अर्थ में किया जा रहा है जबकि दोनों के मायनों में जमीन-आसमान का अंतर है। शब्द का सही अर्थ नहीं समझने के कारण देश में कई गलतफहमियां पैदा हो रही हैं और जो ‘विश्व बंधुत्व’ एवं सभी के कल्याण की कामना करता है, वह ‘धर्म’ संकुचित होकर अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करने का अर्थ खो चुका दिखता है। वहीं, आज सभी जगह संकुचित ‘रिलिजन’ शब्द का ‘धर्म’ जैसे व्यायपक अर्थ रखनेवाले शब्द के रूप में उपयोग हो रहा है।
अब इस मामले को लेकर एक साल बीतने को है। इस विषय को उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने उठाया था। उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की, इसमें अदालत से ‘धर्म’ और ‘रिलिजन’ शब्दों के बीच स्पष्ट अंतर करने का आग्रह किया गया। पिछले साल दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई हुई। इस दौरान हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सतीश चंद्र शर्मा और न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला की खंडपीठ ने केंद्र और दिल्ली सरकार से जवाब मांगा था।
दरअसल, यहां अश्विनी उपाध्याय ने याचिका ने भारतीय ज्ञानपरंपरा के अनेक उदाहरण प्रस्तुत कर यह बताने का प्रयास किया था कि धर्म और रिलिजन दोनों ही शब्दों में भारी अंतर मौजूद है। इस आधार पर याचिकाकर्ता ने न्यायालय से केंद्र और राज्य सरकारों को यह निर्देश देने की मांग की, कि वे जन्म प्रमाण पत्र, आधार कार्ड, स्कूल प्रमाण पत्र, राशन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, निवास प्रमाण पत्र, मृत्यु प्रमाण पत्र और बैंक खाता आदि जैसे दस्तावेजों में धर्म के बजाय अपने-अपने विश्वास के अनुसार रिलिजन के समानार्थी मत, पंथ या मजहब शब्द का उचित अर्थ इस्तेमाल करें। इसके साथ ही उन्होंने न्यायालय के समक्ष यह मांग भी रखी कि केंद्र और राज्य अपने प्राथमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में एक अध्याय अलग से “धर्म और रिलिजन” शामिल करने का निर्देश देने की कृपा करे। ताकि इस संबंध में बनी भ्रम की स्थिति दूर हो सके।
उन्होंने अपनी याचिका में भारत संघ, सचिव के माध्यम से गृह, शिक्षा, कानून और न्याय, संस्कृति मंत्रालय समेत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार, मुख्य सचिव के द्वारा इस मामले की स्थिति स्पष्ट करने की मांग न्यायालय के समक्ष रखी थी। लेकिन नवम्बर 2023 से अगस्त 2024 पर आ गए, पूरा एक वर्ष बदल गया, पर अब तक इसे लेकर किसी की ओर से कोई जवाब न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया गया है।
धर्म नहीं देता कन्वर्जन की अनुमति
अश्विनी उपाध्याय ने अपनी पीआईएल के माध्यम से जो बताया है, उसके अनुसार धर्म बहुत ही व्यापक शब्द है। इस्लाम, ईसाई, पारसी, यहूदी, सिख, बौद्ध, जैन कोई धर्म नहीं हैं, यह सभी मत, पंथ, रिलिजन और मजहब हो सकते हैं। धर्म किसी को सांप्रदायिक नहीं बनाता। धर्म में किसी पर अपने विचार थोपने का या जबरन उसे मनवाने का कोई आग्रह अथवा दबाव नहीं मिलता। वैश्विक कुटुम्ब की भावना को लेकर चलनेवाला धर्म, कन्वर्जन की अनुमति नहीं देता, वह उससे दूर है। साथ ही धर्म यह घोषणा नहीं कहता कि मेरा ही विचार श्रेष्ठ है। धर्म में व्यापक सोच, दृष्टि और गहरा विचार समाहित है, इसलिए धर्म कभी भी रिलिजन का पर्यायवाची नहीं हो सकता है।
उपाध्याय ने अपनी जनहित याचिका में 97 बिन्दु उठाए हैं , ताकि किसी के मन में धर्म और रिलिजन का अंतर पूरी तरह से स्पष्ट हो सके। उन्होंने भारत में समय-समय पर हुईं स्मृतियों, महाभारत, भागवत एवं अन्य ग्रंथों के उद्धरणों का हवाला दिया है जो किसी समय भारत में न्याय प्रणाली का अहम हिस्सा रहे।
रिलीजन आदेश देने वाला सिद्धांत
वे कहते हैं, ‘‘रिलीजन एक आदेश देने वाला सिद्धांत है जो किसी व्यक्ति की आस्था या पूजा पद्धति से जुड़ा है, जबकि धर्म गैर – विभाजनकारी है। धर्म वास्तव में ब्रह्मांड के ब्रह्मांडीय क्रम और चेतना क्रम को व्यक्तिगत स्तर पर समझने की खोज है। धर्म विधियों के साथ-साथ लक्ष्यों को चुनने की असीमित स्वतंत्रता प्रदान करता है। यह धर्म, स्वाभाविक रूप से निरपेक्ष है जिसमें वे लोग भी शामिल हो सकते हैं जो स्वयं ‘धर्म’ पर सवाल उठाते हैं। यह स्वतंत्र जांच को प्रोत्साहित करता है और लोगों को कभी भी श्रेणियों और संप्रदायों में सीमित नहीं करना चाहता है।’’
एक विचारधारा पर काम करता है संप्रदाय
अपनी बातों को और अधिक स्पष्ट करते हुए उपाध्याय ने कहा, ‘‘सहिष्णुता ‘धर्म’ का अभिन्न अंग है, इसमें बहुलता निहित है। यह सहिष्णुता और बहुलता रिलिजन की अवधारणा में जगह नहीं पाती। कई शब्दों का अंग्रेजी में अनुवाद नहीं किया जा सकता। जैसे योग, कर्म, ब्रह्म, धर्म आदि। लेकिन अभी देखने में आ रहा है कि हम धर्म को रिलिजन ही मानते हैं जो कि सही नहीं है। धर्म एक परंपरा है, जबकि रिलिजन एक पंथ या वंश है जिसे संप्रदाय कहा जाता है। यह संप्रदाय दो भागों से बना है; सम+प्रदाय। इसका मतलब है, किसी चीज को समान रूप से देखना। जब आप किसी व्यक्ति विशेष या पुस्तक का ज्ञान किसी को अच्छे तरीके से देते हैं तो उसे संप्रदाय कहते हैं। संप्रदाय एक विचारधारा पर काम करता है।’’
धर्म की सीमा नहीं
याचिका में उपाध्याय, नीतिज्ञ विदुर की कही बातों को दोहराते हुए भी दिखे, उन्होंने कहा; “धर्म की कोई सीमा नहीं होती। पेड़ों की रक्षा ही धर्म है। वायु, जल और भूमि को प्रदूषण से मुक्त रखना धर्म है और नागरिकों के कल्याण और प्रगति का रक्षक तथा संरक्षक होना धर्म है। धर्म लोगों को जोड़ता है। धर्म प्राणियों को प्राणियों से जोड़ता है। धर्म वह शिक्षक है जो व्यक्ति को अपने कर्तव्यों और दूसरों के अधिकारों के बीच संतुलन बनाना सिखाता है।’’ साथ ही उन्होंने महर्षि वेद व्यास के उद्धरण को लेकर बताया है, ‘‘रिलिजन भीड़ के लिए काम करता है और धर्म बुद्धि के लिए है। धर्म का पालन तर्क और बुद्धि के अनुसार करना चाहिए। न कि इसलिए करना चाहिए क्योंकि हर कोई वही कर रहा है। हमें धर्म का पालन तभी करना चाहिए जब हमें उसमें तर्क मिले और हमें ज्ञान प्राप्त हो। किसी ओर के रास्ते पर चलने से वह रिलिजन बन जाएगा, धर्म नहीं रहेगा।’’
इनका कहना है कि रिलिजन के लिए कई युद्ध और युद्ध जैसी स्थितियाँ रही हैं। यह लोगों के समूह पर काम करता है। रिलिजन, मत, पंथ, संप्रदाय, मजहब में लोग किसी व्यक्ति या किसी के मार्ग का अनुसरण करते हैं। दूसरी ओर, धर्म ज्ञान का कार्य है। किसी व्यक्ति या वस्तु का अस्तित्व ही धर्म है। अग्नि का धर्म है गर्मी और रोशनी देना, यानी जब भी आप अग्नि के करीब जाएंगे तो वह आपको गर्मी और रोशनी देगी। हर चीज का अपना धर्म होता है। तब एक इंसान का धर्म क्या है? इसके लिए महाभारत में विस्तृत चर्चा है।
महाभारत में बताए धर्म के आठ आधार
उन्होंने कहा, ‘‘महाभारत वेद व्यास जी ने धर्म के आठ तरीके बताते हैं। (i) यज्ञ; का मतलब है कर्म जो बहुत से लोगों के लाभ के लिए किया जाता है। (ii) अध्ययन; का अर्थ है अध्ययन; स्वयं और दुनिया का अध्ययन। (iii) दान; अर्थात दान (iv) तप; अर्थात स्वयं में सुधार करते रहना, स्वयं का मूल्यांकन करना तथा नकारात्मक गुणों को दूर कर सकारात्मक गुणों को बढ़ाना। (v) सत्यम्; सत्य के मार्ग पर चलना। (vi) क्षमा; दूसरों तथा स्वयं की गलतियों के लिए क्षमा करना। (vii) दंभ; इंद्रियों को वश में रखना। (viii) आलोभ; लालच या लालच में न आना।’’
वे कहते हैं कि महाभारत में वेद व्यास धर्म और उसके मार्ग के बारे में बात करते हैं लेकिन इस बात का कोई उल्लेख नहीं करते कि किसकी पूजा करनी चाहिए और किसकी नहीं। धर्म इस बारे में बात करता है कि हमें कैसे व्यवहार करना चाहिए और हमारा दृष्टिकोण क्या होना चाहिए। अत: इसका मतलब मानसिक दृष्टिकोण या क्रिया-उन्मुख चीजें हैं।
अश्विनी अपाध्याय एक विशेष बातचीत में कहते हैं, ‘‘रिलिजन के नियम, परंपराएं, सही और गलत होते हैं। लेकिन धर्म ऐसा नहीं है। धर्म स्थान, समय और योग्यता पर निर्भर करता है। इसका मतलब है कि अगर अभी कुछ अच्छा है तो व्यक्ति, समय या स्थान बदलने पर वह बदल जाएगा। अगर व्यक्ति, समय या स्थान बदल जाता है तो कर्म भी बदल जाएगा। अच्छा कर्म बुरा कर्म बन जाएगा। जो कर्म अभी धर्म है, वह कुछ समय और कुछ परिवर्तनों के बाद अधर्म में बदल सकता है।’’
धर्म यानी कर्तव्य
याचिकाकर्ता ने कहा कि धर्म कर्तव्य है; यह सत्य है; यह जीवन की वास्तविकता है। धर्म हमें महाशक्ति का अनुसरण करना सिखाता है लेकिन धर्म हमें सत्य के साथ रहना सिखाता है। इसलिए धर्म को रिलिजन और कानून जैसी अवधारणाओं तक सीमित कर देना हानिकारक है। दुनिया में धर्म को रिलिजन के बराबर मानने का नतीजा विनाशकारी रहा है: धर्मनिरपेक्षता के नाम पर धर्म को सीमाओं के अधीन कर दिया गया है। एक गैर- पांथिक समाज ईश्वर में विश्वास के बिना भी नैतिक हो सकता है, यही उसका धर्म है। धर्म का अर्थ है ‘कर्तव्य’, ‘अच्छाई’, ‘नैतिकता’, यहाँ तक कि ‘धर्म’ और यह उस शक्ति को संदर्भित करता है जो ब्रह्मांड और समाज को बनाए रखती है। धर्म वह शक्ति है जो समाज को बनाए रखती है और हमें नैतिक व्यक्ति बनाती है या यूँ कहें कि मनुष्यों को उच्च नैतिक मानकों के अनुसार जीने का अवसर देती है।
उन्होंने कहा, धर्म सार्वभौमिक है लेकिन यह विशिष्ट भी है, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का अपना धर्म होता है जिसे स्व-धर्म के रूप में जाना जाता है। जो एक महिला के लिए सही है, जरूरी नहीं कि वह पुरुष के लिए सही हो सकता है या जो एक वयस्क के लिए सही है वह एक बच्चे के लिए सही नहीं हो सकता है। धर्म के अनुसार सही कार्य को मानवता और ईश्वर की सेवा के रूप में भी समझा जाता है।
रिलिजन, अपनी मान्यताओं के अनुसार आचरण
इसके साथ ही वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय का धर्म और रिलीजन को लेकर तर्क यह भी है कि “रिलिजन” शब्द हमारे पास पश्चिमी संस्कृति से आया है। “रिलिजन” शब्द का उपयोग पश्चिम में यहूदी, ईसाई या इस्लाम जैसे मतों का वर्णन करने के लिए किया जाता है। हालाँकि कोई अपना “रिलिजन” बदल सकता है और एक यहूदी ईसाई बन सकता है, या एक ईसाई, मुसलमान बन सकता है, और इसी तरह, कोई एक ही समय में यहूदी, ईसाई या मुसलमान नहीं हो सकता। इस तथ्य के गहन निहितार्थ पर विचार करने के लिए एक पल रुकना चाहिए, यह देखते हुए कि तीनों पंथ एक ईश्वर में विश्वास करते हैं और इसलिए, संभवतः, वे सभी खुद को एकेश्वरवादी कहते हैं। अब भले ही वे सभी एक ही ईश्वर में विश्वास करते हों, फिर भी कोई एक ही समय में यहूदी, ईसाई और मुसलमान नहीं हो सकता। तीनों “रिलिजन” की अपनी मान्यताओं के अनुसार आचरण है।
एक बार में हिन्दू, सिख, बौद्ध और जैन हो सकता है सनातनी
अश्विनी इस बीच भारतीय पंथों और विदेशी रिलिजन के बीच के अंतर को भी स्पष्ट कर देते हैं। धर्मों के वर्तमान विमर्श में, भारतीय मूल के चार मतों, अर्थात् हिंदू , बौद्ध, जैन और सिख मत को एक साथ व्यवहार करने के बारे में बताते हैं, वे बोले कि क्या विविध परंपराओं के रूप में हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख कोई भी व्यक्ति जो स्वयं को सनातनी मानता है, एक बार में चारों हो सकता है? एक हिंदू के दृष्टिकोण से, यह स्पष्ट रूप से संभव है, कम से कम हमारे समय में। उन्होंने यहां स्पष्ट किया है कि याचिकाकर्ता कई हिंदुओं को जानता है जो बौद्ध धर्म का पालन कर रहे हैं। एक भिक्षु ने व्यक्तिगत बातचीत में खुद को हिंदू नहीं कहा, लेकिन उसने कहा कि वह नालंदा परंपरा की पेशकश कर रहा था! याचिकाकर्ता कई जैनियों को भी जानता है, जिन्होंने अपने गोत्र के बारे में बात की।
खुशवंत सिंह ने क्या कहा था…
यहां तक कि वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार खुशवंत सिंह ने भी इसे सुखद तथ्य माना कि महानतम सिख शासक रणजीत सिंह एक “हिंदू” थे और अपनी छाती पर भगवद गीता रखकर मृत्यु को प्राप्त हुए थे। ऐसे में सभी हिंदुओं को सहजधारी सिख और सभी सिखों को केशधारी हिंदू माना जा सकता है। याचिकाकर्ता अश्विनी यहां यह भी दावा करते हैं कि ये परंपराएं अलग नहीं हैं; बल्कि यह बताने की कोशिश है कि इन मतों के अनुयायियों को जो भिन्नता महसूस होती है, वह यहूदी, ईसाई और इस्लाम के अनुयायियों द्वारा प्रदर्शित अलगाव से बहुत अलग है। इस स्थिति की तुलना अब्राहमिक पंथों से करने पर, मुद्दा यह है कि हिंदुत्व में मतांतरण नहीं है। उन्होंने कहा, भारतीय पंथ मतांतरण नहीं करते हैं, लेकिन अब्राहमिक पंथ (संभवतः यहूदी को छोड़कर) सक्रिय रूप से सभी इस्लाम, ईसाईयत ऐसा करते हैं। यह दोनों के बीच अंतर का एक और बड़ा बिंदु है।
धर्म, रिलिजन में अंतर स्पष्ट होना जरूरी क्यों
यह तुलना इस तथ्य पर प्रकाश डालती है कि जब पश्चिमी या अब्राहमिक पांथिक परंपराओं और भारतीय परंपराओं की बात आती है तो दोनों के बीच पहचान की प्रकृति अलग-अलग होती है। अब्राहमिक परंपराओं के मामले में, मजहबी या रिलिजियस पहचान अनन्य/एकल होती है; जबकि भारत के संदर्भ में जो मत, पंथ यहां हुए हैं उनके बीच बहुत व्यापक स्तर पर अलग-अलग दिखने के बाद में गहरे में समानता दिखाई देती है।
कहना होगा कि आज धर्म और रिलिजन के बीच का अंतर स्पष्ट होना इसलिए बेहद जरूरी है, क्योंकि व्यवहार में दोनों का समानार्थी उपयोग करने के कारण से इसकी परिणति भयंकर है। धर्म हिंसा पर विश्वास नहीं करता, धर्म मानव के मानव के बीच रिलिजन के स्तर पर कोई भेद नहीं करता, लेकिन अभी दोनों का उपयोग एक साथ होने से लगता यही है कि धर्म भी हिंसा फैलाता है, कन्वर्जन करता है, लोगों को अपने विश्वास के आधार पर स्वीकार करता और लागों को उकसाता भी है, यह एक भीड़ है, दरअसल, इस दृष्टि से मुक्त होने के लिए जरूरी है कि न्यायालय इस मामले में जल्द निर्णय करे। फिलहाल न्यायालय और याचिका कर्ता अश्विनी उपाध्याय को इंतजार है केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से आनेवाले त्तर का, जिसके बाद ही कोर्ट अपना फैसला सुना सकता है। अभी इसमें इंतजार करते एक वर्ष बीता है आगे कितना समय और लगेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता है।
(लेखक ‘हिदुस्थान समाचार न्यूज़ एजेंसी’ के मध्य प्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं)