#santoshtiwariडॉ. संतोष कुमार तिवारी।
आज बांग्लादेश में उस मुल्क के स्वाधीनता संग्राम पर धूल डालने का प्रयास किया जा रहा है। उस संघर्ष के महानायक बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान की मूर्तियां तोड़ी जा रही हैं। हिन्दुओं पर अत्याचार हो रहे हैं। और यह सब हो रहा है अमेरिका के इशारे पर। अमेरिकी खुविया एजेंसी सीआईए के इशारे पर। जब वहां स्वाधीनता संग्राम चल रहा था, तब भी अमेरिका वहां की आजादी के विरोध में पाकिस्तान के साथ खड़ा था।

इस लेख में प्रस्तुत है सन् 1971 में उस स्वाधीनता संघर्ष की आँखों देखी कहानी, डॉ. धर्मवीर भारती की जुबानी। भारतीजी तब टाइम्स ऑफ़ इण्डिया समूह की प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ मुम्बई (पुराना नाम बंबई)  के संपादक थे।

धर्मवीर भारती

धर्मवीर भारती शायद पहले संपादक थे जिन्होंने 1971 में एक नए राष्ट्र के रूप में बांग्लादेश की प्रसव पीड़ा को देखा था। पाकिस्तानी फौजों के बर्बर अत्याचार ने उन्हें दहला दिया था। ‘मुक्तिवाहिनी फौजों’ के साथ जान हथेली पर  लेकर उन्होंने उस रोमांचक स्वतंत्रता युद्ध को प्रत्यक्ष देखा और लिखा भी। एक मुक्ति योद्धा की तरह हर संकट को भोगते हुए उन्होंने अपने दर्जनों लेखों में युद्ध यात्रा का वर्णन किया है। ये रिपोर्ताज हिंदी पत्रकारिता की धरोहर हैं।

अच्युतानंद मिश्र की नई पुस्तक

यहां धर्मवीर भारती के धर्मयुग में प्रकाशित एक लेख के कुछ अंश प्रस्तुत हैं। ये जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के पूर्व कुलपति श्री अच्युतानंद मिश्र की नई पुस्तक ‘तीन श्रेष्ठ कवियों का हिन्दी पत्रकारिता में अवदान: अज्ञेय, रघुवीर सहाय एवं धर्मवीर भारती’ में छपे हैं। यह पुस्तक इसी वर्ष अर्थात सन् 2024 में छपकर आई है। प्रकाशक हैं नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली।

अपने लेख में डॉ. धर्मवीर भारती लिखते हैं:

‘मुक्तिवाहिनी के साथ बांग्लादेश के मुक्त क्षेत्रों की यात्रा करके बंबई लौट आया हूँ। पर बंबई पहुँचकर भी जैसे जम नहीं पाया हूँ। मन उन्हीं अनुभवों को दोहराता रहता है। वे खतरे, वे दलदल, वे नंगे पाँव बंदूक लिए किशोर और युवा। इधर अखबार भी दिन-रात उन्हीं खबरों से भरे हैं। कहते हैं जसोर के पास घमासान लड़ाई हो रही है। वनगाँव का मोर्चा भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो रहा है। युद्ध को अपनी आँखों से देखना ही देखना है। मगर कैसे’ ?

‘कलकत्ते आ गया हूँ। भारतीय सेना के पूर्वी कमांड का हेडक्वार्टर यहीं है। यहाँ आकर मालूम होता है कि इस बार बिना दिल्ली से अनुमति लिए पूर्वी कमांड भी किसी पत्रकार को भारतीय सीमा पार कर कहीं जाने की अनुमति नहीं दे सकता। वहाँ से अनुमति लेने में कम-से-कम चार-पाँच दिन तो लगेंगे ही’।

‘इन चार-पाँच दिनों में क्या किया जाए?  बैठे तो नहीं रहा जा सकता’? ‘सहसा मनुभाई भीमानी से भेंट होती है। पुराने स्वतन्त्रता सेनानी, कच्छ के सत्याग्रह में डॉ. लोहिया के सहयोगी भीमानी जी अब बड़े उद्योगपति हैं। कभी बंबई रहते हैं, कभी कलकत्ते में। पूर्वी बंगाल में उनकी जूट मिलें हैं, गहरे संपर्क हैं पूर्वी बंगाल में। बहुत उत्सुकता है?’ हँसकर पूछते हैं, ‘चलो बिना सेना की अनुमति के जलमार्ग से सीमा पार ले चलता हूँ – स्टीमर से चलना होगा। ‘रातोंरात कार्यक्रम बन जाता है। स्टीमर के द्वारा छिपकर कालीगंज क्षेत्र में नदियों के मार्ग से जाने का। …

अच्युतानंद मिश्र: पत्रकार खुद को पूरी दुनिया का स्वघोषित पहरुआ (चौकीदार) मानते हैं लेकिन अपने अलावा सबके लिए लड़ने का दमखम उनमें है।

हर गाँव में (शेख मुजीबुर रहमान की) मुक्तिवाहिनी का हिसाब यह है कि कुछ मुक्तिसैनिक वहाँ स्थायी रूप से तैनात हैं, जिन पर वहाँ की सुरक्षा और व्यवस्था का जिम्मा है। इसके अलावा हर गाँव में मुक्तिसैनिकों की चलनशील टुकड़ी (मोबाइल यूनिट) है। जहाँ भी लड़ाई होती है वहाँ शत्रु पर (अर्थात पाकिस्तान पर) दबाव डालने के लिए ये टुकड़ियाँ बुला ली जाती हैं। गाँववालों को शस्त्र मिल गए हैं। मुक्त होने के बाद वे अपने ही क्षेत्र में निष्क्रिय न पड़े रहें, इसलिए यह व्यवस्था की गई है।

पाक सैनिकों दो-तीन सौ हिन्दू-मुस्लिम शरणार्थियों को घेर कर मार डाला

साखीपुर और पारुलिया में युद्ध अपनी गहरी छाप छोड़ गया है। सड़क के दोनों ओर बंकर है। बंकर क्या छोटे-छोटे किले समझिए। दो मकानों पर तो छत पर ईंटें चुन-चुन कर पाकिस्तानियों ने बंकर बनाए थे। उनका मुख्य उद्देश्य था इस पुल की हिफाजत। यहाँ तक कि पुल के नीचे दोनों तरफ उन्होंने बाँसों की तीन-तीन दीवारें बनाई थीं और उनमें माइन लगा दी थीं कि कोई छापामार रात-बिरात पुल तक न पहुँच पाए। अंत में जब वे कालीगंज से भागे, तो सतखीरा जाते हुए उन्होंने यहाँ पर एक बार फिर रुक कर आखिरी मोर्चा बाँधने की कोशिश की। एक पूरी बटालियन थी उनकी, उसके साथ 25 पाउंड वाली तोपें, रेकॉयललैस गन, और बहुत छोटी पहियेदार चीनी तोपें थीं। लेकिन मुक्तिवाहिनी के निरंतर हमलों के आगे उन्हें भागना पड़ा। भागते वक्त उन्होंने मिट्टी का तेल छिड़ककर और डाइनामाइट लगाकर यह पुल उड़ा दिया! अब वे यहाँ से 5  मील दूर एक ईंटों के भट्टे में खाइयाँ खोद कर बैठे हुए हैं। पुल के पार दोनों ओर की दुकानों पर स्वाधीन बांग्ला ध्वज फहरा रहे थे। हालाँकि कभी-कभी उनके गोले जरा आगे आकर गिर रहे थे। पुल के नीचे कुत्ते जमा थे। मालूम हुआ, इसी पारुलिया खाल के पास एक और हादसा हुआ था। अप्रैल में आसपास के गाँवों से करीब दो-तीन सौ हिंदू-मुस्लिम शरणार्थी भागते हुए आए थे और पाक फौजों को देखकर इसी पुल के पास कगारों में छिप गए थे। रात को पाक सैनिकों ने चुपचाप छावनी से निकलकर उन्हें घेर लिया और एक-एक को गोली से भून डाला। तीन दिन तक लाशें पड़ी सड़ती रहीं। जब पूरा कस्बा दुर्गंध से सड़ने लगा, तब कस्बे के सभी अधेड़ पढ़े-बेपढ़े कुदाल ले गड्ढे खोद कर उन्हें दफनाने गए। अधेड़ इसलिए कि युवक या तो मारे जा चुके थे या मुक्तिवाहिनी में चले गए थे।

सात दुकानदारों को लाइन में खड़ा करके गोली से उड़ाया

और यह संहार शुरू हुआ था उर्दू भाषा से, आते ही (पाकिस्तानी) फौज ने हुक्म दिया था कि कस्बे के सारे साइनबोर्ड उर्दू में कर दिए जाएँ, यहाँ किसी को उर्दू लिखना नहीं आता था (और पाकिस्तानी फ़ौज को बांग्ला भाषा नहीं आती थी)। दूसरे दिन उन्होंने 7  दुकानदारों को एक लाइन में खड़े करके गोली मार दी। उन्हें शक था कि बांग्ला (भाषा) में लोग मुक्तिवाहिनी के लिए संकेत लिखते हैं। इतने घबरा गए कसबे के लोग कि उन्होंने चंदा करके सतखीरा से एक उर्दू पेंटर बुलवाया और साइनबोर्ड बदलवाए। …

रजाकार लोगों के पेट चीर देता था

बाद में किसी ने दिखाया एक पुल, जिस पर छोटा-सा बाँध-सा बंधा था। यही वह पुल था, जहाँ एक रजाकार (अर्थात पाकिस्तान-समर्थक व्यक्ति) लोगों को मार-मार पानी में फेंक दिया करता था। वह डाक बंगले का चौकीदार था। नाम-मोहम्मद लालू। मारने के पहले लोगों के पेट चीर देता था ताकि पानी भर जाए और लाश तैरें नहीं। हट्टा-कट्टा? नहीं, दुबला-पतला, घिनौना-सा ! महीने भर पहले उसे मुक्तिवाहिनी ने पकड़ लिया और तब अपने माँ-बाप को याद कर बच्चों की तरह फूट-फूट कर रो रहा था।

बच्चे खोपड़ियाँ लिए घूम रहे थे

शाम पूरी तरह उतर आई थी और हत्याओं का एक भयावनापन चारों ओर माहौल में छा गया था। हम जल्दी से जल्दी वहाँ से निकल आना चाह रहे थे। बीच में बांस के एक झुरमुट में डूबता सूरज अटक गया था। सिंदूरी नहीं, गाढ़े खून के रंग का। इतना खौफनाक सूर्यास्त मैंने अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखा था। लेकिन मुड़ा तो उससे भी ज्यादा खौफनाक चीज देखी। एक छोटा-सा चार-पाँच बरस का बच्चा, एक खोपड़ी लिए खड़ा था। पास के खेत में और हैं, उसने बताया। हम लोग थर्रा गए। कत्लेआम के बीच पले ये अबोध बच्चे क्या जीवन भर सहज हो पाएँगे? मनुभाई उसे खोपड़ी फेंक देने को कहते हैं और जेब से निकालकर एक रुपया देते हैं। वह खुश होकर भाग जाता है। लेकिन इस दान का प्रतिफल हमें तुरंत मिलता है। अगले मोड़ पर तीन बच्चे हड्डियाँ और खोपड़ी लिए खड़े हैं। हमारा खून सर्द हो जाता है। …

एक बहुमूल्य शोध

श्री अच्युतानंद मिश्रजी की उपर्युक्त पुस्तक एक बहुमूल्य शोध है। इस पुस्तक में तीन कवियों – अज्ञेय (1911-1987), रघवीर सहाय (1929-1990) और धर्मवीर भारती (1926-1997) – के पत्रकारिता के क्षेत्र में किए गए अद्भुत योगदान  की चर्चा है। इन तीनों कवियों को अपने-अपने साहित्य से भरपूर सम्मान मिला और अपनी पत्रकारिता से अभूतपूर्व लोकप्रियता मिली। इन तीनों अग्रणी संपादकों ने हिन्दी साहित्यकारों और पत्रकारों को गढ़ने और तराशने का भी मह्त्वपूर्ण काम किया था।

हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में श्री अच्युतानंद मिश्र जी की यह पुस्तक एक मील का पत्थर है।

(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)