मैं अपनी पत्नी का विशेष शुक्रगुजार हूं…

सुरेंद्र किशोर।

(वो तो अच्छा हुआ कि सोशल मीडिया पर वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर की पोस्ट पर नजर पड़ गई और मालूम पड़ा कि रविवार, 15 सितम्बर को पत्नी प्रशंसा दिवस (Wife Appreciation Day) था। यह हर साल सितंबर के तीसरे रविवार को मनाया जाता है। यह दिन पत्नियों की कड़ी मेहनत और भावनात्मक समर्थन के लिए उन्हें सम्मानित करने के लिए समर्पित है। जिनका भाव हो वो एक दिन विलम्ब से भी इस दिवस को सेलिब्रेट कर सकते हैं)

लीक से हटकर किए गए उसके त्याग-सहयोग के लिए मैं अपनी पत्नी रीता का विशेष शुक्रगुजार हूं। कुछ साल पहले की बात है। मेरी पत्नी को सरकारी मिडिल स्कूल की प्रधानाध्यापिका के पद पर पोस्टिंग लेटर मिला। मैंने उससे कहा कि तुम इस पद को स्वीकार मत करो।

स्वाभाविक ही था, उसने सवाल किया- क्यों?

मैंने कहा कि हेड मास्टर बनने के बाद मध्यान्ह भोजन योजना की जिम्मेदारी संभालनी पड़ेगी। अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़कर वह घोटाले वाली जगह है। यदि घोटाला नहीं करोगी तो ऊपर का अफसर तुम्हें झूठे आरोप में फंसा देगा। करोगी, तो हमारे परिवार की भी बदनामी होगी।

उसने हेड मास्टर के रुप में ज्वाइन नहीं किया। सहायक शिक्षिका के रूप में ही सन 2015 में रिटायर कर गईं।

मेरी शादी (सन 1973) के समय और उसके चार साल बाद तक मेरी आय इतनी नहीं थी कि हमारा परिवार सामान्य ढंग से भी चल सके। मैंने दहेज में तो कुछ नहीं लिया था, पर पत्नी अच्छा-खासा गहना लेकर आई थी। एक-एक कर वह खुशी-खुशी गहना बेचती गई और हमारा परिवार चलता रहा।

1977 में मैं पहली बार पी.एफ.वाली नौकरी (दैनिक ‘आज’) में आया। उसके बाद ही आर्थिक स्थिति काम-चलाऊ बनी। पर, उस बीच एक बार एक अजूबी स्थिति पैदा हो गई। मेरा भतीजा कामेश्वर गांव से आकर हमारे साथ रहने लगा। पहले उसने बी.डी. इवनिंग काॅलेज में अपना नाम लिखवाया। बाद में उसकी इच्छा हुई कि उसका नाम काॅमर्स कालेज में लिखवाया जाना चाहिए। वहां हमारे रिश्तेदार प्रातःस्मरणीय डा.सीताराम दीन और डा.उषारानी सिंह पढ़ाते थे। कामर्स काॅलेज में नाम लिखवाने के लिए हमारे पास पैसे नहीं थे। पत्नी के पास सिर्फ एक ही गहना बचा था–मंगल सूत्र। उसने उसे भी बेच कर भतीजे का नाम लिखवा दिया।

भतीजे को रखकर पढ़ाने -लिखाने से बाद में क्या सुख-शांति मिलती है, हमलोग उसकी कहानी कह सकते हैं। संक्षप में- हमारे परिवार में पटीदारी का कोई झगड़ा-झंझट नहीं हुआ। उसका बड़ा श्रेय कामेश्वर को है।

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मेरी पत्नी जेपी आंदोलन के सिलसिले में तीन बार जेल गई थी। जब सन 2007 में नीतीश सरकार ने जेपी सेनानी सम्मान (पेंशन) योजना शुरू की तो मैंने पत्नी से कहा कि इसके लिए आवेदन पत्र मत दो। क्योंकि हम लोग पेंशन और पद के लिए उस आंदोलन में शामिल नहीं हुए थे।

बिहार सरकार ने यह नियम तय किया कि यदि कोई महिला उस आंदोलन में एक दिन के लिए भी जेल गई हो तो उसे पेंशन की पूरी राशि मिलेगी। जिन जेपी सेनानियों ने आवेदन नहीं दिया था, उन्हें राज्य सरकार ने बाद में पेंशन ऑफर की। नीतीश कुमार, लालू प्रसाद, ललन सिंह सहित 57 लोगों को ऑफर किया गया, जिसमें मेरी पत्नी रीता सिंह का नाम भी आया। उसके बाद पत्नी ने पूछा कि अब मैं क्या करूं? मैंने सोचा कि अब मना करूंगा तो उसे अच्छा नहीं लगेगा। उसके बाद मैंने कहा कि स्वीकार कर लो। उसने स्वीकार कर लिया।

कुल मिलाकर मैं कह सकता हूं कि आज मैंने जीवन में जो भी थोड़ी-बहुत उपलब्धियां हासिल की हैं, वह इसीलिए संभव हुआ क्योंकि रीता जैसी पत्नी मुझे मिली है। आज भी वह चार बजे सुबह उठकर मेरे लिए चाय बनाती है और दिन भर मुझे और परिवार को सहयोग करने में लगी रहती है।

परंपरागत विवेक से लैस मेरे बाबू जी को मैंने बचपन में यह कहते हुए सुना था कि पुत्र और पुत्री की शादी के लिए किन-किन बातों पर ध्यान देना चाहिए। वे कहते थे कि पुत्र की शादी ऐसे परिवार में करो जो पहले का संपन्न और संस्कारी हो और आज उसकी आर्थिक स्थिति ठीक न हो।

मेरी पत्नी का परिवार वैसा ही था जब हमारी शादी हुई थी। मुझे याद नहीं कि मेरी कभी पत्नी से झड़प भी हुई हो। दरअसल मेरी बात वह मान लेती है और उसकी बात मैं मान लेता हूं। दोनों में से कोई अपनी बात मनवाने के लिए जिद नहीं करता, भले बात उसके अनुकूल न हो।