राजू सजवान।
आज की खबर है कि गुड़गांव में जयपुर हाईवे पर रॉन्ग साइड से आ रहे एक ट्रक से टकराने से कार सवार तीन लोगों की मौत हो गई और एक बुरी तरह घायल है। इन चारों की उम्र 30 साल से कम है।
इससे तीन या चार दिन पहले भी एक खबर ऐसी आई थी। जब एक रॉन्ग साइड से आ रही कार और बेहद तेजी से चल रही मोटरसाइकिल के बीच हुई टक्कर में एक युवक की जान चली गई।
हम युवा देश हैं, मतलब कि हमारे यहां युवाओं की तादाद बहुत ज्यादा है, लेकिन इस तरह यदि युवा सड़कों पर मारे जाएंगे तो पता नहीं हम कितने दिन युवा देश के रूप में पहचाने जाएंगे। खैर मुद्दा यह है कि इन दोनों दुर्घटनाओं के कारणों की यदि बात करें तो रॉन्ग साइड और ओवर स्पीड कहकर हम बात को समाप्त कर सकते हैं। परंतु, हम कहीं ना कहीं एक पहलू पर बात करने से चूक जाते हैं। वह है कि आखिर लोग रॉन्ग साइड क्यों चलते हैं?
एक बात तो बिल्कुल साफ है कि कुछ लोग- बल्कि बहुत से लोग- आदतन केवल कुछ सेकेंड का सफर कम करने के लिए उल्टी दिशा पकड़ लेते हैं। न जाने उन्हें किस बात की जल्दी होती है कि वे अपनी और दूसरों की जान की परवाह किए बगैर उल्टा चल पड़ते हैं।
परंतु दूसरी बात यह भी है कि कई जगह ऐसी हैं जहां सड़कों या फ्लाइओवर का निर्माण करते वक्त शायद इस बात का ध्यान नहीं रखा गया कि लोग यहां से रॉन्ग साइड चल सकते हैं। गुड़गांव की जिन सड़कों पर ये दो एक्सीडेंट हुए, उनके बारे में तो मुझे नहीं मालूम, लेकिन मेरे शहर फरीदाबाद में कई जगह ऐसी हैं जहां लोग रॉन्ग साइड का इस्तेमाल करते हैं।
जैसे कि कुछ साल पहले मेवला महाराजपुर के पास एक रेलवे अंडरब्रिज (RUB) बनाया गया। नेशनल हाईवे की तरफ इसकी आगमन व निकासी है। इससे कुछ समय पहले ही राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने हाईवे पर एक फ्लाइओवर बनाया।
इस फ्लाइओवर के नीचे से एक अंडरपास बनाया गया, परंतु रेलवे अंडरब्रिज की निकासी और इस अंडरपास के बीच लगभग डेढ़ सौ मीटर का गैप रख दिया गया। यानी कि जो व्यक्ति रेलवे अंडरब्रिज से निकलकर हाईवे पर आकर बल्लभगढ़ की ओर जाना चाहता है तो उसे डेढ़ सौ मीटर या तो रॉन्ग साइड चलना होगा या फिर लगभग 2 किलोमीटर आगे बने NHPC चौक से यू टर्न लेकर आना होगा।
ऐसे में लोग करीब 4 किलोमीटर का सफर तय करने की बजाय डेढ़ सौ मीटर रॉन्ग साइड चलना शायद बेहतर समझते हैं। और वहां जाम लग जाता है। इस इलाके में बहुत सी फैक्ट्रियां भी हैं। जहां साइकिल पर चलने वाले मजदूर आते-जाते हैं और वे बजाय 4 किलोमीटर घूमने के डेढ़ सौ मीटर का सफर उल्टे ही तय करते हैं। अब कभी यहां कोई दुर्घटना हो जाए तो किसको दोषी माना जाएगा?
मैं हाइवे या रेलवे अंडर ब्रिज का डिजाइन करने वाले एनएचएआई या रेलवे के इंजीनियर की समझ पर सवाल खड़े नहीं कर रहा। जरूर, उन्होंने कुछ सोच कर ही ऐसी जगह पर अंडरब्रिज या अंडर पास बनाए गए होंगे। लेकिन किताबी पढ़ाई और समाज की सोच का तारतम्य तो बनाना ही होगा। ऐसा ही कुछ मुजेसर अंडरपास पर दिख जाता है।
इन दिनों दिल्ली मुंबई एक्सप्रेस-वे बन रहा है। यह एक्सप्रेस-वे फरीदाबाद से होकर गुजर रहा है। इस पर भी वही गलती दोहराई जा रही है। ओल्ड फरीदाबाद की ओर से आने वाले रास्ता बाईपास पर जहां खत्म होता है। वहां मुंबई एक्सप्रेस-वे का अंडर पास नहीं बनाया जा रहा, बल्कि डेढ़ किलोमीटर आगे और डेढ़ किलोमीटर पीछे, ये अंडर पास बने हैं। लोग धड़ाधड़ रॉन्ग साइड चल रहे हैं।
इस एक्सप्रेस-वे जिसका ज्यादातर हिस्सा फ्लाईवे है। यानि कि ऊपर ही ऊपर से गुजरता है। इसके नीचे से न जाने कितने अंडरपास बनने वाले है और अगर यही स्थिति रही तो एक्सप्रेस-वे का तो कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन नीचे से गुजरने वाले लोग रॉन्ग साइड का इस्तेमाल करेंगे और आए दिन कोई ना कोई मरेगा।
शायद रोड इंफ्रास्ट्रक्चर बनाते वक्त सरकारों का ध्यान कार चालकों के प्रति अधिक रहता है। इसलिए सरकारों- मतलब सरकारी अधिकारियों- को लगता है कि कार वाला तो कुछ दूर आगे से मोड़ कर ला ही सकता है। दूसरा, पिछले कुछ सालों के दौरान लाल बत्ती वाले चौराहों का रिवाज भी खत्म हो रहा है, क्योंकि लाल बत्ती पर लोगों को एक से दो मिनट रुकना पड़ता है और शायद इससे तेज रफ्तार जिंदगी में रुकावट आती है। ऐसा केवल मेरे शहर में ही नहीं बल्कि बहुत सी जगह देखने को मिल रहा है।
लेकिन अंत में बात वही कि हम अपना समय बचाने के लिए अपने जीवन को जितनी तेजी दे रहे हैं, सफर को जितना आसान बना रहे हैं। उतना ही हम मौत के करीब जा रहे हैं। इस प्रकार की सड़क दुर्घटनाओं की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों को भी इस पहलू पर जरूर सोचना चाहिए और इस तरह के स्पॉट पर अधिकारियों से सवाल जवाब भी करने चाहिए।
(लेखक पर्यावरण पत्रिका डाउन टू अर्थ से जुड़े हैं)
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