डॉ॰ मधुबाला शुक्ल।

मुंबई की संस्था ‘बतरस’ (एक अनौपचारिक सांस्कृतिक उपक्रम) ने  अपने मासिक आयोजन की श्रृंखला में इस माह हिंदी-उर्दू के सरनाम रचनाकार राही मासूम रज़ा को उनकी ९७वीं जयंती के अवसर पर याद किया…।

एन.एल महाविद्यालय, मालाड (पश्चिम) के प्रांगण में हुए इस कार्यक्रम की शुरूआत हुई – राही साहब की पारिवारिक मित्र और प्रसिद्ध कथाकर व प्रोफ़ेसर नमिता सिंह द्वारा ‘बतरस’ के लिए खास तौर पर लिखे संस्मरण से – ‘राही : मेरी यादों में’। उन्होंने लिखा है कि वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय आयीं, उसके पहले राहीजी बंबई चले गये थे, पर इनके पति प्रो॰ कुंवरपाल सिंह से उनकी दोस्ती इतनी गहरी थी कि अपने आख़िरी दिनों में अपना लिखा हुआ सबकुछ उन्होंने कुंवरपाल जी के हवाले करते हुए कहा था – ‘इन्हें जैसे भी इस्तेमाल करना चाहो, कर सकते हो’। ऐसी दोस्ती के अनुसार राही साहब को जिंदगी भर यह मलाल रहा कि उन्हें व्यक्तिगत कारणों से अलीगढ़ विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग से अलग कर दिया गया, जबकि वे हमेशा अध्यापक ही बने रहना चाहते थे। डॉक्टर नमिता सिंह ने बताया कि रज़ा साहब हिंदी और उर्दू को दो अलग भाषा नहीं मानते थे तथा उर्दू को लोकप्रिय बनाने के लिए उसे देवनागरी में लिखे जाने के खुले पक्षधर थे। इस कारण वे हमेशा विवादों में घिरे भी रहे। उनका मानना था कि भाषा की कोई निजी लिपि नहीं होती। ऐसी तमाम बातों से भरे संस्मरण को प्रस्तुत किया लेखक और मीडियाकर्मी विजय पंडित ने।

संस्मरण के इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए युवा मीडियाकर्मी निर्माता कमर हाजीपुरी ने राही साहब की वह याद साझा की, जब १९८६ में रामवृक्ष बेनीपुरी की कहानी ‘रजिया’ पर बन रही फ़िल्म की पटकथा लिखने के प्रस्ताव पर उन्होंने अपने को सिर्फ़ संवाद-लेखक बताया था। फिर अत्यधिक दवाब पड़ने पर चालीस सीन की पटकथा लिखी और विदेश चले गये। निर्देशक ब्रजभूषण ने जब देखा, तो पाया कि उस पर एक घंटे की ही फ़िल्म बन सकती थी, तो उन्होंने शेष काम कमर साहब से करवाया, जिसे देखने पर राही साहब खूब खुश हुए थे और हाजीपुरी के सुनहरे भविष्य के लिए दुआएँ दी थीं। यादों के क्रम में राही साहब के साथ हुई कुछ मुलाकातों के जिक्र करते हुए कवि व विचारक रमन मिश्र ने बताया कि मुंबई आने से पहले उन्होंने राही के कविता संग्रह ‘मैं एक फेरीवाला’ की कविता ‘गंगा और महादेव’ को पढ़ने के बाद गहरे अपराध-बोध में डूब गये थे। उनसे पहली मुलाक़ात का समय लेने के बाद हिम्मत जुटाने के लिए तो रमनजी को दो पेग लगानी पड़ी थी, लेकिन उसके बाद कई बार मिलना हुआ, जिसमें जलेस के लिए उन्होंने एकमुस्त पाँच हजार रूपये दिये और एक बार तो फ़िल्म-लेखन के लिए उनका नाम भी दे दिया, जिससे इनकार करने पर वे रमनजी से काफ़ी मुतासिर हुए थे। ऐसी कई रोचक यादें भी इसमें शामिल रहीं।

आयोजन के मुख्य अतिथि के रूप में पधारे उर्दू अकादमी के पूर्व अध्यक्ष एवं साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित वक़ार क़ादरी ने राही के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘आधा गाँव’ पर अपने विचार रखते हुए कहा – राही साहब खुलकर लिखनेवाले और बोलनेवाले व्यक्ति थे। ‘आधा गाँव’ उपन्यास में जमींदारों के यहाँ काम करने वाली निचले तबके की औरतों के साथ हुए आचरणों को उन्होंने बड़ी बारीकी व बेबाक़ी के साथ पेश किया। ‘आधा गाँव’ के ढेरों उदाहरणों के जरिए उस समय की सबसे विवादित पर कालजयी रचना के रूप में स्थापित किया। उन्होंने खेद भी प्रकट किया कि  १९६६ में प्रकाशित इस कृति को उर्दू भाषा में आने में ३७ साल लग गये। अपने वक्तव्य का समापन उन्होंने राही की एक मशहूर गज़ल के मटले से की – एक दिन घर से निकलकर ए बंबई आ हमारे गाँव चल

राही मासूम रज़ा के दूसरे चर्चित उपन्यास ‘टोपी शुक्ला’ पर अपना पक्ष रखते हुए साहित्य एवं कला समीक्षक प्रो॰ सत्यदेव त्रिपाठी ने उपन्यास में ही उसके निचोड़ रूप में आये वाक्य से शुरुआत की – ‘जो जिंदगियाँ गिरती हुई दीवारों के साथ जी जाती हैं, उनकी स्थिति बड़ी अजीब हो जाती है’। इफ्फन और टोपी शुक्ला ये दोनों दोस्त पात्र उसी वक़्त बड़े हो रहे थे जब बँटवारा हो रहा था – एक दीवार गिर रही थी, दूसरी उठ रही थी। त्रिपाठीजी के मुताबिक ऐसे हालात में बनता कृति का नायक टोपी वह आदमी है, जैसा आदमी राही साहब दुनिया में देखना चाहते थे। वह चाहे जीते या हारे; पर अपने उसूलों व मानवीय मूल्यों के लिए लड़े…समझौता कभी न करे। साम्प्रदायिकता की आग में जलते और इफ़्फ़न की पत्नी अपनी भाभी के साथ जोड़कर बदनाम करते लोगों के बीच टोपी अपनी खाँटी इंसानीयत के साथ डटा रहा…और इसी मुहिम में अंततः आत्महत्या कर ली। उसकी मृत्यु को वक्ता ने सप्रमाण सिद्ध किया कि ऐसे बदनुमा जमाने से विद्रोह है। उन्होंने राही साहब का वाक्य उद्धृत किया – “समाज के लिए यह उपन्यास एक गंदी गाली है, जो मैं डंके की चोट दे रहा हूँ”। त्रिपाठी जी ने राही साहब से अपनी मुलाक़ातों के भी रोचक व सरोकारी ज़िक्र किये और लेखक की स्थिति को लेकर उनका बयान बताया  “आप हमसे यह उम्मीद नहीं कर सकते कि रोज़ ‘आधा गाँव’ लिखूँ। लिखना ही पेशा है, तो जीवन की ज़रूरतों के लिए भी लिखना होता है।

राही साहब का तीसरा बहुचर्चित उपन्यास सिनेमा जगत की केंचुली खोलते  उपन्यास ‘सीन ७५’ पर साहित्य जगत और फिल्मी दुनिया से राब्ता रखने वाले गीतकार रासबिहारी पांडेय ने बड़ी संजीदगी के साथ कहा – ‘सन् १९७७ में प्रकाशित उपन्यास ‘सीन ७५’ में मुम्बई महानगर के बहुरंगी फ़िल्मी जीवन को विविध कोणों से देखने और उभारने का प्रयत्न किया गया है। कला की इस दुनिया में रिश्ते कितने व्यावसायिक हैं – पैसे से लेकर देह तक…और असफलताएं कितनी मारक एवं अंत कितने त्रासद हैं…आदि के सजीव एवं मार्मिक चित्रण हैं…।

कवि अनिल गौड़ जी ने ‘रज़ा साहब के तेवर’ पर बात करते हुए कहा कि जिस तरह की काव्यात्मक शैली राही साहब के यहाँ दिखाई देती है वो और कहीं नहीं मिलेगी। जब वो गद्य लेखन में आते हैं, तो भिन्न-भिन्न क़िस्म के पात्रों के साथ उनका बरताव बदल जाता है। वे बहुत तंजिया हो जाते हैं। राही साहब एकमात्र बड़े मुस्लिम लेखक हैं, जिनकी कविता और कहानी दोनों में गति है। उन्होंने हमेशा जनसामान्य की भाषा का ही उपयोग किया।

रंगकर्मी एवं सिने अभिनेता विश्वभानु ने हमेशा की तरह बड़े जोशीले अंदाज में राही जी की कविता – गंगा और महादेव, सब डरते हैं, ढलता सूरज, घटता चाँद, बूढा पेड़ और वरना जिंदगी क्या है, शीर्षक कविताएँ सुनाई। प्राध्यापक बृजेश सिंह जी ने अपने मधुर कंठ से रज़ा साहब की गज़ल- इस अँधेरे के सुनसान जंगल में हम, डगमगाते रहे मुस्कराते रहे और उनकी दूसरी गज़ल- पहले तो राही जी घर जाओ गंगाजी में नहाओ, फिर वहीं तट पर चादर तान के लेट रहो सो जाओ सुनाकर सभी श्रोताओं की तालियाँ बटोरीं…।

लोककवि जवाहरलाल निर्झर ने राहीजी की ही मुख्य सृजन भूमि से जुड़ी अपनी कविता- नफरत की मत आग जलाओ दोस्तो, यह नशेमन तेरा भी है मेरा भी है सोच लो और दूसरी कविता भूख और प्यास का मंजर निखार देती है, निवाला मुँह से वो अक्सर निकाल देती है। एक-एक चीज का मोहताज बना देती है, गरीबी आदमी को ज़िंदा मार देती है सुनाकर सभी श्रोताओं को भाव-विभोर कर दिया।

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी एवं बड़े-बड़े प्रसिद्ध मंचों से गाने वाले संगीत प्रेमी दीपक खेर जी ने राही साहब का फ़िल्म-गीत – हम तो हैं परदेश में, देश में निकला होगा चाँद, अभी रात की छत पर तन्हा होगा चाँद’। इतनी खूबसूरती के साथ गाया की सभी श्रोतागण झूम उठे।

आयोजन में एक अनूठी बात ये हुई की संगीत विशारद माला भट्टाचार्य जी राही मासूम की एक गज़ल की धुन तैयार करके गाने वाली थी, परंतु अचानक आये पारिवारिक कारणों की वजह से न आ सकीं, लेकिन उन्होंने तैयार करके रिकार्ड भेज दिया, जिसे मोबाइल पे सभी ने देखा-सुना, तो उनकी मौजूदगी जैसा ही समाँ बँध गया  और ‘बतरस’ द्वारा किया गया यह प्रयोग खूब सराहा गया…।

कार्यक्रम के अंत में रंगकर्मी और सिने अभिनेत्री शाइस्ता खान एवं रंगकर्मी और सिने अभिनेता, विश्वभानु जी ने डॉ सत्यदेव त्रिपाठी द्वारा चयनित-संयोजित ‘टोपी शुक्ला’ उपन्यास के कुछ दृश्य-संवादों का साभिनय नाट्य-पाठ प्रस्तुत किया। दोनों ही कलाकारों की जीवंत जोश भरी अदायगी वाले अभिनय सभी लोगों ने खूब प्रशंसा की। आयोजन का पूरी तैयारी के साथ संचालन डॉ मधुबाला शुक्ल ने किया और कार्यक्रम हमेशा की तरह राष्ट्रगान के साथ संपन्न हुआ।