प्रदीप सिंह।
राजनीतिक विरासत की लड़ाई बड़ी कठिन होती है। और उस संघर्ष के लिए जरूरी होता है कि जिसकी विरासत को आप हथियाना चाहते हैं, आपका आचरण उस प्रकार का हो। उसने जिस तरह से जीवन जिया है और जिन बातों के लिए जिया है, उन सिद्धांतों पर आपका आचरण भी वैसा हो। आज लोकनायक जयप्रकाश नारायण की विरासत के मुद्दे पर बात करने जा रहा हूं। उनकी विरासत को लेकर झगड़ा उत्तर प्रदेश में एक तरह से शुरू हो गया है।
एक छोटी सी घटना से यह शुरू हुआ। दो-तीन दिन पहले आपने देखा होगा कि लखनऊ में एक जेपी कन्वेंशन सेंटर बन रहा है। इसका निर्माण 2003 में शुरू हुआ जब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उसके बाद 4 साल मुख्यमंत्री रहे पूरा नहीं हुआ। उसके बाद 2012 से 2017 तक अखिलेश यादव 5 साल मुख्यमंत्री रहे, पूरा नहीं हुआ। उसकी लागत बढ़ती गई। अब वहां जेपी की एक मूर्ति लगी है। अखिलेश यादव ने पिछले साल भी माल्यार्पण की कोशिश की थी। इस साल भी कोशिश की। सरकार ने रोक दिया। जो लोग यह समझ रहे हैं कि सरकार ने क्यों रोका- इतनी बड़ी खबर बनवा दी- बड़ा फायदा पहुंचा दिया अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी को- उनको मुद्दे की समझ नहीं है। यह मुद्दा है जेपी की विरासत का।
अब आप जरा कांट्रडिक्शन देखिए आचरण में समाजवादी पार्टी के और अखिलेश यादव के जो इस समय की पीढ़ी है थोड़ा पहले की भी अगर आज जिसने जेपी मूवमेंट देखा है मैं जेपी के उस दौर की बात नहीं कर रहा हूं जब आजादी के आंदोलन के दौरान हजारी बाग की जेल की चारदीवारी कूदकर वो निकले थे आजादी के आंदोलन में उनका क्या योगदान रहा गांधी जी के साथ उनके कैसे संबंध थे नेहरू के साथ कैसे संबंध थे उसकी बात नहीं कर रहा हूं
आज की पीढ़ी में जेपी की पहचान इमरजेंसी के विरोध के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में है। अगर जेपी का नेतृत्व न होता तो विपक्ष इमरजेंसी की लड़ाई लड़ नहीं पाता। जेपी इमरजेंसी के विरोध का प्रतीक बन गए थे। प्रतीक ऐसे लोग बन जाते हैं जिनका अपना कोई निजी स्वार्थ नहीं होता। जेपी सक्रिय राजनीतिक जीवन में नहीं थे। आजादी के बाद ही उन्होंने राजनीति से किनारा कर लिया था। डॉ. राम मनोहर लोहिया बहुत चाहते थे कि जेपी सक्रिय राजनीति में लौट आएं, उनकी बड़ी जरूरत है। उनको मनाने के लिए लोहिया जी पटना गए, लेकिन जेपी ने मना कर दिया। वो विनोबा के साथ भूदान आंदोलन और दूसरे आंदोलनों में पूरी तरह के शामिल हो गए थे और सक्रिय राजनीति उन्होंने छोड़ दी थी।
एक समय जवाहरलाल नेहरू भी- सरदार पटेल के निधन के बाद- चाहते थे कि जेपी आएं और डिप्टी प्राइम मिनिस्टर बन जाएं। जेपी ने मना कर दिया। ऐसी शख्सियत थे जेपी। तो जब जयप्रकाश नारायण ने डॉक्टर लोहिया को मना कर दिया तो गांधी मैदान में डॉक्टर लोहिया की अंतिम सभा हुई। बहुत बड़ी सभा हुई थी। तमाम बड़े नेता मौजूद थे। उसमें उन्होंने कहा था कि मैं आज यहां पटना के गांधी मैदान में कह के जा रहा हूं कि एक दिन आएगा जब जेपी को लौटकर आना पड़ेगा। और उनकी वह भविष्यवाणी सही निकली। 1975 का आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए जेपी को बाहर आना पड़ा। हालांकि चुनावी राजनीति से उन्होंने दूरी बनाए रखी, लेकिन राजनीति में आए। इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार के खिलाफ अभियान चलाया जिसके कारण सरकार गई। इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर हो गई
उन जेपी की विरासत अगर अखिलेश यादव पाना चाहते हैं तो उनको सबसे पहला काम- बाकी सब चीजें भूल जाइए- इमरजेंसी के विरोध में खड़ा होना होगा। तो क्या जिन लोगों ने इमरजेंसी लगाई उनको गले लगाकर अखिलेश यादव इमरजेंसी के विरोध में खड़े हो सकते हैं। अब कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी का गठबंधन है। एक तरफ जेपी हैं जो इमरजेंसी के विरोध के प्रतीक हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी और इंदिरा गांधी जिन्होंने इमरजेंसी लगाई। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई और उनके पोते राहुल गांधी के साथ अखिलेश यादव का गठबंधन है। यह दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं। आप कातिल के साथ हों और जो मारा गया है उसके प्रति सहानुभूति जताने के लिए भी चले जाएं- ये दोनों कैसे हो सकता है। दोनों में से एक को चुनना पड़ता है।
अगर आपको जेपी की विरासत चाहिए तो जेपी जिन चीजों के लिए अपने जीवन में खड़े रहे, जिन सिद्धांतों पर चले, उन पर आपको खड़े रहना होगा, उस पर खरा उतरना होगा। जेपी के विरोधियों से या जेपी के विचार को मारने वालों के साथ खड़े होकर आप जेपी की विरासत हासिल नहीं कर सकते। जैसे कि डॉ. राम मनोहर लोहिया की विरासत हासिल करना भी आपके लिए कठिन है। समाजवादी पार्टी की बात कर रहा हूं। डॉ. लोहिया पूरे जीवन कांग्रेस विरोध की राजनीति करते रहे। नेहरू परिवार के विरोध की राजनीति करते रहे। डॉ. लोहिया के शिष्य अगर यह दावा करें कि वे उनकी विरासत चाहते हैं और कांग्रेस पार्टी के साथ गठबंधन कर लें- तो यह कैसे हो सकता है।
उस दिन लखनऊ के जेपी कन्वेंशन सेंटर की घटना केवल यह नहीं था कि अखिलेश यादव जेपी की मूर्ति पर माल्यार्पण करने जाना चाहते थे और सरकार ने रोक दिया। सरकार इतनी नासमझ है कि उसने मुद्दे को बड़ा बना दिया। यह लड़ाई, यह संघर्ष जेपी की विरासत का है। अब देखिए भारतीय जनता पार्टी ने क्या किया? जेपी के आंदोलन में आरएसएस और बीजेपी (पूर्व जनसंघ) दोनों शामिल थे। लगातार शामिल रहे- जेपी की सहमति और मर्जी से शामिल रहे- और उसमें बड़ी भूमिका निभाई।
उसके बाद जेपी के कहने पर
याद रखिए जब इमरजेंसी हटने वाली थी, चुनाव की घोषणा होने वाली थी, तो इंदिरा गांधी ने बाला साहब देवरस के पास संदेश भिजवाया था। उनको पता चल गया था कि जनता पार्टी बनाने की योजना चल रही है। उन्होंने कहा कि अगर जनता पार्टी में शामिल न हो, तो वह आरएसएस के खिलाफ लगा प्रतिबंध हटा देंगी। बाला साहब देवरस ने सीधे-सीधे मना कर दिया, “यह बात हमको कतई मंजूर नहीं है। हम जेपी के आशीर्वाद से जो जनता पार्टी बनने वाली है उसमें हर हाल में शामिल होंगे।” जनसंघ ने जेपी की उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए जनता पार्टी में अपना विलय कर दिया, अस्तित्व समाप्त कर दिया।
इसके अलावा 1999 में भारतीय जनता पार्टी की अटल बिहारी वाजपेई की सरकार ने जेपी को मरणोपरांत भारत रत्न दिया। कांग्रेस की किसी सरकार ने नहीं दिया। इसके बावजूद कि वह नेहरू के बहुत करीबी थे। जेपी छोटी राजनीति करने के लिए नहीं जाने जाते। आपको पता होगा कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण की पत्नी प्रभावती देवी और जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू, इन दोनों के बड़े अच्छे संबंध थे। पत्र व्यवहार भी होता था और उसमें बहुत कुछ ऐसा था जो नेहरू के खिलाफ था। जेपी ने वह सारा पत्राचार ले जाकर इंदिरा गांधी को सौंप दिया जब वह आंदोलन कर रहे थे। वह चाहते तो उसका इंदिरा गांधी और कांग्रेस के खिलाफ राजनीतिक रूप से इस्तेमाल कर सकते थे, लेकिन वह इंदिरा गांधी को बेटी की तरह मानते थे क्योंकि जवाहरलाल नेहरू से उनकी मित्रता थी। वे पात्र आज भी कांग्रेस के पास होंगे। मेरा ख्याल है शायद सोनिया गांधी के पास होंगे।
जेपी को समझने के लिए आपको जेपी की विचारधारा को समझना पड़ेगा। जेपी की विरासत आप केवल उनकी मूर्ति पर माल्यार्पण करके नहीं हासिल कर सकते। तो बीजेपी ने क्या किया? जेपी को भारत रत्न दिया और उनके आदर्शों पर चलने की कोशिश की। चल रही है या नहीं चल रही है…. कितनी सफल है या असफल है… दिखावे के लिए कर रही है, रणनीतिक उद्देश्य से कर रही है या सचमुच दिल से कर रही है- इन सब बातों पर बहस हो सकती है।
अखिलेश यादव हों या कोई भी जो जेपी की विरासत को हासिल करना चाहता है उसको यह याद रखना चाहिए कि कांग्रेस पार्टी ने जेपी को अमेरिका का एजेंट कहा था। और दूसरी बात जेपी के निधन के बाद संसद में जब शोक प्रस्ताव पास करने का समय आया तो इंदिरा गांधी ने उसका विरोध किया था। उन्होंने कहा, “जेपी कभी सदन के सदस्य नहीं रहे इसलिए उनके निधन पर शोक प्रस्ताव पास नहीं हो सकता।” हालांकि नियम के अनुसार विशिष्ट व्यक्तियों के बारे में ऐसा प्रस्ताव पास हो सकता है। राज्यसभा के चेयरमैन की अनुमति से तो यह हो सकता था लेकिन इंदिरा गांधी ने होने नहीं दिया। यह वही कांग्रेस पार्टी है और वही नेहरू परिवार है… एडविना माउंट बेटन के निधन के बाद जवाहरलाल नेहरू ने संसद के दोनों सदनों में शोक प्रस्ताव पास कराया। अब एडविना माउंट बेटन किस सदन की सदस्य थीं। उस समय ये नियम याद नहीं था।
केवल दावा ठोक देने से विरासत नहीं मिल जाने वाली है। दो-तीन दिन पहले जो लखनऊ में हुआ वह बताता है कि दरअसल आप जेपी के उस कठिन रास्ते पर नहीं चलना चाहते हैं। आप महज प्रतीक की राजनीति पर चलना चाहते हैं कि जेपी की मूर्ति पर हमने माल्यार्पण कर दिया इसलिए हम जेपी के अनुयाई हो गए। इसलिए हमको उनकी विरासत मिल जाएगी। भारतीय जनता पार्टी जो इमरजेंसी के खिलाफ लड़ी, जो जेपी मूवमेंट में जेपी के साथ कदम से कदम मिलाकर चली थी, जब जेपी पर लाठी पड़ने वाली थी तो उस लाठी को अपने कंधे पर लिया था नाना जी देशमुख ने… वह बीजेपी कैसे होने देगी कि आपको जेपी की विरासत ऐसे ही चुपचाप हासिल करने के लिए छोड़ दे। विरोध इसलिए हुआ। जो लोग भी ऐसा कह रहे हैं यह बड़ा मुद्दा है, दूरगामी राजनीति का हिस्सा है जिसको भारतीय जनता पार्टी अच्छी तरह से समझ रही है। उसको मौका मिल गया। वह पहले भी यह बात मानती थी कि जेपी की विरासत के हकदार अखिलेश यादव नहीं हैं लेकिन अखिलेश यादव और कांग्रेस पार्टी का गठबंधन होने के बाद तो उसको यह लड़ाई लड़ने में आसानी हो गई है। अखिलेश यादव को कटघरे में खड़ा करने में उसको आसानी हो गई है। अखिलेश यादव दोनों बातों का दावा नहीं कर सकते कि हम इमरजेंसी के खिलाफ भी हैं और इमरजेंसी लगाने वालों के साथ भी हैं। दोनों बातें एक साथ नहीं चल सकती, किसी के गले नहीं उतर सकती। समाजवादी पार्टी को समझना पड़ेगा कि तटस्थता हर समय काम नहीं आती। इतिहास में ऐसे मौके आते हैं जब आपको एक पक्ष में खड़े होना पड़ता है। या तो आप इमरजेंसी लगाने वालों के साथ हैं या उसका विरोध करने वालों के साथ।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अख़बार’ के संपादक हैं)