सत्यदेव त्रिपाठी

सेवामुक्त होकर बनारस में बस गया हूँ, तो हर महीने आज़मगढ के सुदूर इलाके ठेकमा के पास स्थित अपने गाँव सम्मौपुर आकर एकाध सप्ताह निश्चिंतता से रहने का मौका निकाल पाने लगा हूँ। एक दिन मुक्त भाव से बात करते हुए बगल के गाँव बीकापुर के प्राइमरी स्कूल में हेडमास्टर मेरे भतीजे घनश्याम त्रिपाठी ने अपने स्कूल की विकलांग सहायक अध्यापिका ‘रजिया मैडम’के बारे में बताया –


“वह अपने बडे भाई सलीम के साथ बाइक पर 85 किमी दूर से रोज़ आती-जाती है। भाई छह घण्टे यहीं रहता है। साल भर से ज्यादा हुआ, उसने न कोई छुट्टी ली, न कभी लेट हुई – बल्कि कोई अध्यापक कभी उससे पहले विद्यालय पहुँचा भी नहीं। सबसे नज़दीक 4 किमी पर रहने वाला मैं भी नहीं पहुंचा। दिन भर क्लास में पढ़ाने में यूँ मगन रहती हैं रज़िया मैडम कि मुआयने के बाद से विद्यालय-निरीक्षक सारी बैठकों में रजिया मैडम का नाम ले-लेकर उदाहरण देते थकते नहीं हैं। लेकिन ‘अन्य जिले’वाले कोटे के तहत नियुक्ति हुई है। कुछ हो नहीं सकता। तीन साल ऐसे ही चलेगा”।

दूसरे लोक की अजूबा प्राणी

सुनकर मुझे अपार आश्चर्य हुआ, क्योंकि इसी पेशे में रहते हुए आज के युग में एक से डेढ़ लाख पाने वाले विश्वविद्यालयीन अध्यापकों को यहाँ से मुम्बई-गोवा तक दिन-दिन तो क्या, हफ्ते-हफ्ते और अपवाद स्वरूप कुछ को कभी भी विभाग न आते हुए मैंने देखा है। विभाग में मौजूद होकर भी कक्षा में न जाकर गप्पें मारने, सूखा खाने व चाय पीने में लोगों को मगन देखा है। 50-50 किमी. से आने वाले छात्रों की उन्हें पडी नहीं। ऐसे में रजिया मैडम मुझे दूसरे लोक की अजूबा प्राणी लगी… और मैं दूसरे ही दिन उनसे मिलने विद्यालय पहुँच गया।

पता था कि पैर की विकलांगता से रजिया को बाथरूम तक जाने के लिए भी सहारे की ज़रूरत पडती है। अत: सीधे दर्ज़ा चार के कक्ष में पहुंच गया, जहाँ वो पढ़ाती है। मुझे देखते ही अभिवादन के लिए उठने लगी, पर मैंने हाथों के इशारे के साथ ‘नहीं-नहीं, बैठी रहो’ कहकर रोका, जिसे वह तुरत मानकर बैठ गयी और तब पहली नज़र में ही ‘रजिया मैडम’ मुझे गोल-मटोल, साँवली-सी अपनी प्यारी बच्ची लगी।

समर्पण भाव का राज़

उसे कुछ सकुचाते-सहमते देख मैंने भतीजे घनश्याम त्रिपाठी की सूचनाओं के हवाले से बात शुरू कर दी – ‘डेढ साल में कभी तुम्हें या भाई को आलस्य नहीं आया, कभी सर्दी-जुक़ाम नहीं हुआ? अपने काम के प्रति इतनी तल्लीनता और इतने समर्पण भाव का राज़ क्या है? किस प्रेरणा से कर पाती हो’?

वह निर्विकार भाव से मेरी तरफ देखती रही… क्या बताती!! इस तरह सोचा ही नहीं। फिर इतना भर बोली – ‘अल्ला ताला ने काम सौंपा है, तो करना है, बस’।

कभी किसी ने ऐसा कहा नहीं

रजिया राजनीति शास्त्र में एम.ए. है और बी.एड. किया है। घर में ख़ुद से अरबी की पढाई की है। पास-पडोस व नाते-रिश्तेदारों ने लडकी के इतना पढने पर बहुत कुछ कहा। ‘क्लक्टरनी बनना है’जैसे कई ताने कसे, पर पिता ने हौसला बनाये रखा। आज उसके पिता नहीं हैं, पर माँ और भाई-भाभियां उसी तरह उत्साह देती हैं, सहयोग करती हैं। छह घण्टे विद्यालय में पढ़ाने और पाँच घण्टे आने-जाने के बाद रज़िया 4 बजे सुबह उठकर पहले अपना व भाई का नाश्ता बनाती थी, पर भाभियों ने यह काम ले लिया और उसके अनुकूल बच्चों को पढ़ाने का काम रजिया को सौंपा। अब भी वह 4 बजे उठती है। भाइयों के बच्चों को पढ़ाती है, कुछ को रात को पढ़ाती है। ‘स्कूल-घर मिलाकर 10-11 घण्टे पढ़ाने से ऊबती नहीं हो’, के जवाब में वह मुस्करा देती है – ‘मुझे तो मज़ा आता है’। सभी बच्चों की तैयारियों को बडी हसरत से काँपियों में किया हुआ व श्यामपट पर कराके दिखाया। उनसे कवितायें-श्लोक आदि सुनवाये। पूरे विद्यालय में अंग्रेजी-मोह देखकर जब मैंने अपनी भाषाओं पर समान ज़ोर देने की बात कही, तो सभी देखने लगे और रजिया के चेहरे पर चमक आ गयी। बोली– ‘सर, कभी किसी ने ऐसा कहा नहीं’।

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जीने की सार्थकता

पूरे समय उसका भाई सलीम (स्लिम भी है) भी बात-चीत में शरीक़ रहा। वह बडे प्रेम से सबका खाना बनाता है। उसे सबकुछ बनाने और अच्छा बनाने तथा सलीके से परसने भी आता है। दो ब्राह्मण, दो मुस्लिम और एक क्षत्रिय वाला अध्यापक-परिवार उस ठेंठ गाँव में बिना भेद-भाव के साथ बैठ कर खाता है। छोटी बहन के जीवन को सार्थक बनाना सलीम को अपने जीने की सार्थकता लगता है।

इस प्रकार यह परिवार अपनी कर्म-संस्कृति के साथ अपने बहुत छोटे से दुमंज़िले घर में खुश है। औरों की बहुत परवाह नहीं करता। घर में रोज़ा-नमाज़ सभी अता करते हैं। जिन्दगी को अल्लाह की नेमत मानते हैं, पर इतने व्यावहारिक भी हैं कि रमज़ान में ही रोज़ा पूरा करने के जड़ पाबन्द नहीं। निर्धारित रोज़ा पूरा करते हैं, पर अपने काम की सहूलियत के हिसाब से आगे-पीछे कर लेते हैं।

काम को पूजा की तरह करने वाला नेक इंसान

क्या फ़र्क़ पडता है कि रजिया यह सब अल्लाताला के हुक़्म से, बल्कि उसकी इच्छा की पूर्त्ति के लिए करती है। क्या फर्क़ पडता है कि ‘ईश्वर मर गया’ की घोषणाओं का उसे पता नहीं और शायद वह ऐसे तमाम आधुनिक विचारों-तर्कों से वाक़िफ़ नहीं।

लेकिन हजार तक़लीफों के बीच अनथक संघर्षों से जूझते हुए अपने काम को पूजा की तरह करने वाला एक नेक इंसान अल्लाताला के प्रति आस्था से बने या उसे सरपास करके अपने भरोसे बने, बात तो ‘आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना’ की बदहाली के इस युग में एक सही इन्सान बनने की है और अपनी बच्ची रजिया बख़ूबी ऐसा कर रही है- इस सियाह दौर में इक ख़मोश शम्मअ की तरह।


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