सत्यदेव त्रिपाठी।
मुंबई की सांस्कृतिक संस्था ‘बतरस’ (एक अनौपचारिक सांस्कृतिक उपक्रम) ने अपने मासिक आयोजन की श्रृंखला में एन.एल महाविद्यालय, मालाड (पश्चिम) के सभागार में ठीक दशहरे के दिन हुई बैठक में ‘थी विजय दशमी जबकि राम ने दल साजकर, गिरिप्रवर्जन से चढ़ाई की थी लंका राज पर’ के संदर्भ से तुलसी को याद किया। और वंदना व मंगल से तुलसी के ग्रंथों की शुरुआत की संगति में ‘गाइए गणपति जगवंदन’ से कार्यक्रम आरम्भ हुआ, जिसे दिली भक्तिभाव से वाद्य पर गाके सुनाया दीपक खेर ने।
इसके बाद संचालक सत्यदेव त्रिपाठी ने पूरी दुनिया में सबसे अधिक पढ़े जाने वाले ग्रंथ के रूप में ‘रामचरित मानस’ का उल्लेख किया। उन्होंने इसे कवि की ‘बुध विश्राम सकल जन रंजनि’ (विद्वानों से लेकर आम आदमी तक पहुँचने) की काव्य-मान्यता का सुपरिणाम बताया, जो किसी भी कृति व कला का श्रेय-प्रेय होता है। साथ ही उन्होंने विश्व-साहित्य के गहन अध्येता फ़िराक़ साहब को उद्धृत किया – ‘रामचरित मानस’ पूरी दुनिया का सर्वश्रेष्ठ काव्यग्रंथ है’, जिसे तुलसी-विरोधी ख़ास ख़ेमा भी काट न सका।
उक्त तुलसी-विमर्श को आगे बढ़ाते हुए प्रमुख वक्ता के रूप में पधारे कवि बोधिसत्वजी ने बताया कि १९४२ से १९४४ के बीच निराला जी ने ‘रामचरित मानस’ के महत्वपूर्ण अंशों का अनुवाद खड़ी बोली में कर दिया था, जो ‘वाणी प्रकाशन’ से ‘विनयखंड’ नाम से प्रकाशित हुआ। उन्होंने तुलसीदास पर अलग-अलग रचनाकारों की ३२७ कविताएं अपने द्वारा ढूंढी जाने एवं उनका संकलन निकालने की सूचना भी दी। तुलसी को स्त्री- दलित विरोधी और ब्राह्मणवादी कहे जाने वाले प्रचलित मत का सोदाहरण उल्लेख तो किया, लेकिन इसका निराकरण ‘पात्र व प्रसंग के अनुसार समझे जाने वाला’ वही दिया, जो पचासों साल की समीक्षा में दिया जा रहा है। विद्वान वक्ता का मत था कि तुलसी ने वही लिखा, जो उस समय चल रहा था।
कवि एवं विचारक रासबिहारी पांडेय ने ‘कविता-इतर तुलसी’ पर केंद्रित अपने वक्तव्य में बताया कि तुलसीदास पर जे एन यू में ३५० से अधिक शोध-कार्य हुए हैं और ऐसा कोई विश्वविद्यालय नहीं है, जहां तुलसी पर प्रचुर शोध न हुए हों। पांडेयजी ने सप्रसंग बताया कि तुलसी बहुत बड़े ज्योतिष-शास्त्री थे और ‘हनुमान चालीसा’ लिखने के अलावा उन्होंने काशी में तकरीबन दस हनुमान-मंदिरों की स्थापना भी की, जिनमें से सबसे प्रसिद्ध है ‘संकट मोचन’। रासबिहारीजी ने सूरदास से तुलसी की मुलाकात एवं मीराबाई के साथ उनके पत्राचार की बहुचर्चित जानकारी भी दी। तुलसी द्वारा काशी में रामलीला कराने की योजनाएँ पांडेयजी के अनुसार मुग़लों के आतंक के समक्ष एक सुनियोजित मुहिम थी, जिसमें गंगाराम व काशी-नरेश जैसों का सक्रिय सहयोग भी था।
प्रकाशक और कवि रमन मिश्र का मत था कि तुलसी के स्त्री-विरोधी ब्राह्मणवादी होने जैसे लेबलों के बरक्स उनकी रचनाओं को पढ़ा जाये, तो समझ में आता है कि मनुष्यता ही उनका सबसे बड़ा मानक रहा॰॰॰। इसके प्रमाण स्वरूप उन्होंने तुलसी के कुछ दोहे-चौपाइयाँ उद्धृत कीं, जो अति प्रसिद्ध हैं और जिन्हें उन्होंने ‘कलियुग महिमा’ नाम से लिखा है, पर वस्तुतः वे उस समय के ही यथार्थ हैं। जैसे –
-धूत कहो, अवधूत कहो, रजपूत कहो, जोलहा कह कोऊ।
काहू की बेटी सो बेटा ना ब्याहब काहू की जात बिगारब न कोऊ।
-खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि, बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।…आदि
बहुपठ विद्वान शैलेश सिंह ने तुलसी के व्यक्तित्व को विराट कहने के बाद अति पिष्टपेषित बात कही कि किसी भी रचनाकार को उसके कालखंड के अनुसार देखना चाहिए। फिर कहा – ‘परंतु साहित्य निरंतर समय के साथ मूल्यांकित होता रहता है’…और इस प्रक्रिया में सिंह साहब के अनुसार तुलसी पर भाग्यवादी होने का बड़ा आरोप लगा कि उन्होंने सब कुछ को राम पर छोड़ दिया और प्रश्न उठाया कि सब कुछ राम पर छोड़ देने से मनुष्य की प्राकृतिक शक्ति का क्या होगा? वहाँ प्रश्नोत्तर का समय न था, पर चाय के दौरान सवाल आपसी चर्चा में था कि तुलसी ने तो ‘करम प्रधान बिस्व करि राखा’ कहा है और उन्होंने तो कुछ छोड़ा कहाँ? अपने राम से सब कुछ करा दिया – रावणत्व का विनाश और रामत्व की जय – रामराज्य की स्थापना। शैलेशजी ने आगे कहा – ‘तुलसी ने ब्राह्मणों की कितनी भी निंदा की हो, लेकिन उनकी चेतना में ब्राह्मणों की गरिमा बनी हुई थी’। प्रश्न है कि क्या वे ब्राह्मणों की गरिमा को ख़त्म कर देते, तो बात बनती? सिंह साहब ने स्त्री के मुद्दे पर अकेले तुलसी के बदले पूरे भक्ति काव्य को सान पर चढ़ाया – ‘स्त्री का विरोध पूरी भक्ति परंपरा में है, तुलसी उसके अपवाद नहीं है। पूरे भक्ति काव्य में ‘स्त्री को साधना की बाधा के रूप में ही देखा गया’। शैलेशजी ने बनारस में ‘मानस’ के एक बहुत बड़े विद्वान सीताराम चतुर्वेदी की किताब से एक हास्य-सी कथा सुनायी, जो वस्तुतः एक लोक कथा है। राम के बंदरों के माध्यम से ऐसी कई लोक कथाएँ हैं। कुल मिलाकर शैलेशजी ने पूरी विनम्रता व संजीदगी से जो मुद्दे उठाये, वे ‘बतरस’ जैसी आमजन की सभा के सिवा गहरे साहित्यिकों के बीच जेरे बहस के काबिल हैं। और यह होना चाहिए, पर ऐसी गम्भीर बातों में रुचि व गति रखने वालों के बीच अलग से॰॰॰!
काव्य-वाचन व वक्तव्य के बीच सेतु स्वरूप स्थित होते हुए गजलकार राकेश शर्मा ने कहा कि उन्होंने तुलसी पर कभी कुछ सोद्देश्य नहीं लिखा, लेकिन अनजाने ही तुलसी उनकी गजलों में आ जरूर गये, क्योंकि गजलगो राकेशजी का तुलसी से रिश्ता गहरा भले न हो, घर में ‘राम चरित मानस’ की मौजूदगी से संस्कारो में बसा ज़रूर है। राम-भरत के प्रसंग को पढ़ते समय उन्होंने अपने पिता को रोते हुए देखा था। और अमृतलाल नागर से भेंट में उन्हें पता चला था कि सूर-तुलसी जैसे विराट क़वि किसी भाषा में नहीं हुए – इसीलिए नागरजी ने दोनो पर उपन्यास लिखे कि लोग उनकी रचना-प्रक्रिया को जान सकें। राकेशजी ने अपनी ग़ज़लों में आये तुलसी-प्रसंगों को सुनाया –
–वारिस हम तुलसी कबीर के, लेकिन हैं शागिर्द मीर के
-रामकथा तुलसी की पढ़कर देख ज़रा तू, बोल रहे हैं बंदर-भालू भाषा मेरी
-पेचीदा हैं हम कबीर के दोहे जैसे और सरलता में तुलसी की चौपाई हैं
और तुलसी की बेतुकी आलोचना के संबंध में यह ढाँसू बात –
–थूकना तुलसी के विरबे पर हुआ कारे अदब, आगही को मुंह चिढ़ाती आस्था की शाम है
काव्य-वाचन एवं गायन की श्रिंखला में बृजेश सिंह ने ‘कवितावली’ के बाल-वर्णन के कुछ छंदों को सवैया की ख़ास शैली में गाकर समाँ बांध दिया – अवधेसके द्वारे सकारे गई सुत गोद कै भूपति लै निकसे।
अवलोकि हौं सोच बिमोचन को ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक-से ।।
अनिल गौड़ जी ने बताया कि डेढ़ साल पहले जब वे भायंदर में सुंदरकाण्ड के पाठ में शामिल हुए, तो तुलसी के वर्णन-कौशल से ऐसे अभिभूत हुए कि दोहे-चौपाई शैली में ही खड़ी बोली में सुंदर काण्ड की पनर्रचना कर दी – ‘तट पर दौड़े दूर तक और उड़े हनुमान, यह छलांग वह है जिसे कौन सके अनुमान’.
देखा परम दुखी है माता, भाव भरी कोमल विख्याता… आदि। इसके बारे में गौड़जी ने बताया कि यह शास्त्रीय नियमों से कुछ अलग, पर खड़ी बोली के स्वभावानुकूल है।
चित्रकूट में राम और भरत के बीच जो संवाद हुआ, उस पर ‘बतरस’ में पहली बार आये ओमप्रकाश तिवारी ने ‘भरत-याचना’ नामक कविता प्रस्तुत की, जिसमें भरत की माँग के रूप में उनकी अद्भुत उद्भावना खूब सराही गयी – ‘भैया, तुमसे कुटिया माँगूँ!
अवधपुरी के राजद्वार पर तुमसे टुटही टटिया माँगूँ!!
डॉ मधुबाला शुक्ल ने साहित्यकार अमृतलाल नागर के उपन्यास ‘मानस का हंस’ से तुलसीदास और मोहिनी के प्रसंग का पाठ प्रस्तुत किया, जो नागरजी की शोधपरक उद्भावना पर आधारित होकर तुलसीदास को सिर्फ़ संत नहीं, वरन एक सहज आदमी की भी इयता प्रदान करता है। डॉ॰ शुक्ल ने उपन्यास में काफ़ी फैले उस प्रकरण को जिस तरह सहेजा-संजोया एवं प्रस्तुत किया, वह क़ाबिलेतारीफ़ रहा…।
‘बतरस’ में हर बार होती नाट्य-प्रस्तुति की परम्परा में इस बार दो प्रस्तुतियाँ हुईं – एक तो रामलीलाओं की जान – लक्ष्मण-परशुराम संवाद – ‘नाथ सम्भु धनु-भंजनि हारा, होइहैं कोउ इक दास तुम्हारा…। इसमें रंगमंच के ज़हीन व युवा कलाकर विक्की माधवन (लक्ष्मण) ने अपने चुटीले और गिरीश द्विवेदी (परशुराम) ने अपने ओजस्वी अंदाज में प्रस्तुत किया, जो बिलकुल टटके अभिनय का रसपान करा गया…। दूसरी प्रस्तुति में अपने वन जाने को लेकर ‘नाथ सकल सुख साथ तुम्हारे’ जैसे सीता के ढेरों भावमय तर्कों में स्त्री की पति के सुख-दुःख में समान भागीदारी एवं दाम्पत्य प्रेम का अद्भुत मिश्रण रहा। इसे रंगमंच की सधी अभिनेत्री शाइस्ता खान ने बड़ी संजीदगी व सफ़ाई के साथ रामायण की प्रचलित धुन से अलग स्व-निर्मित लय में पेश किया, जो मनोरम असर भी छोड़ सका…।
दीपक खेरजी द्वारा ही वंदना से कार्यक्रम की शुरूआत हुई थी, उन्हीं के द्वारा एक और पद ‘दीन को दयालु दानि दूसरो न कोऊ’ के गायन के बाद राष्ट्रगान के साथ कार्यक्रम सम्पन्न हुआ…।