लाखों विभूतियां जिन्हें समाज के लिए कुछ करते जाना है ।
विजय मनोहर तिवारी ।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत भक्तों की आँखों में उतरा हुआ एक विराट स्वप्न है, जिसे साकार करने में हजारों-हजार निष्ठावान प्रचारकों और लाखों स्वयंसेवकों की चार पीढ़ियाँ खपी हैं। केवल अपने देश और अपने समाज को निस्वार्थ भाव से अपने जीवन सहित समर्पित तपस्वी प्रचारक किसी वैदिक या उपनिषद काल के ऋषि नहीं हैं। ये हमारे ही सामने, हमारे ही बीच, समाज कार्य में सादगीपूर्वक सलंग्न ऐसी विचित्र विभूतियाँ हैं, जिनकी अपनी कोई निजी महात्वाकांक्षाएँ नहीं हैं। वे एक महायज्ञ की अनंत आहुतियों में से एक हैं। इतना सा ही उनका परिचय है।
मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक और पहले सरसंघचालक डॉ. केशवराव बलीराम हेडगेवार से लेकर वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहनरावभागवत के व्याख्यान, आलेख और प्रश्नोत्तरों में से अनेक प्रासंगिक प्रभावशाली कथन इस आलेख में ले सकता हूँ और उन आलोचकों के दृष्टिकोण भी जो संघ से बाहर के हैं और संघ के प्रति जिन्होंने समय-समय पर सकारात्मक और प्रेरक शुभकामनाएँ प्रकट की हैं। ऐसे अनगिनत विचार इंटरनेट पर हर समय उपलब्ध हैं, उन्हें दोहराने की यहाँ आवश्यकता नहीं है।
एक पंक्ति में संघ पर कुछ कहूँ तो मेरी दृष्टि में भारत जैसे विरोधाभासों से भरे समाज में किसी संगठन का सौ वर्ष तक न केवल टिके रहना, बल्कि अपने आदर्शों पर अडिग रहकर निरंतर गतिशील होना संसार का सबसे बड़ा चमत्कार है।
चमत्कार इसलिए क्योंकि हम भारतीयों का आम स्वभाव रहा है कि जिम्मेदारियों को कल पर और दूसरों पर टालकर अपने आरामदायक खोल में सुरक्षित रहा जाए और आदर्शों के पालन की अपेक्षा दूसरों से की जाए। तात्कालिक स्वार्थपूर्ति के लिए किसी भी प्रकार के संधि-समझौते के लिए तैयार रहा जाए और समय आने पर अपने हित के लिए कुछ भी दाव पर लगा दिया जाए। अपने अहंकार के लिए आत्मघात पर उतारू एक समाज। हमने अतीत से सबक लेना जैसे कभी सीखा ही नहीं। ऐसे निश्चिंत और निद्रामग्न समाज को हिलाना, उठाना, जगाना, खड़ा करना, उसमें बोध पैदा करना और किसी दूर के लक्ष्य के लिए कमर कसकर तैयार करना पत्थर से पानी निकालने जितना ही कठिन कार्य है और यही संघ के सौ वर्ष का महान् योगदान है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सौ वर्ष की यात्रा को भारत के दस हजार साल के ज्ञात इतिहास और भारत पर बीती दस सदियों के भयंकर आघातों की स्याह पृष्ठभूमि में देखने से ही हम कुछ ठीक-ठाक ढँग से वह देख पाएँगे, जो इस अभागे देश को संघ ने अपना खून-पसीना लगाकर दिया है।
एक राष्ट्र के रूप में भारत के जीवन में सौभाग्य और दुर्भाग्य धूप-छाँव की तरह एक साथ चलते रहे हैं। जब भारत के सौभाग्य जागे हुए थे तब उसने आदर्श नायकों के नेतृत्व में युगों के चमकदार अध्याय रचे और जब दुर्भाग्य हावी हुए तो सदियों तक वह रक्तरंजित अंधकार में धकेला जाता रहा। उतार-चढ़ावों से भरी हजारों वर्ष की भारत की यात्रा हर सदी में कठिन संघर्ष से भरपूर थी। वह बामियान के पहाड़ों से लेकर विशाखापट्टनम के समुद्र तक अपने भौगोलिक विस्तार में एकमुश्त गुलाम कभी और कहीं नहीं था। बीती तेरह सदियों में भी देश के अलग-अलग हिस्सों में कहीं संगठित तो कहीं एकल संघर्ष निरंतर चलते ही रहे। स्वतंत्रता की छटपटाहट हर दशक और हर सदी में बनी रही, दस्तावेजों में इनके प्रमाण भरे पड़े हैं।
वह हमारे महान् पुरखों के कभी खत्म न होने वाले अथक संघर्ष की रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानी है, जिसमें बीसवीं सदी की पहली चौथाई में नागपुर के किसी कोने में एक दीपक जलाया गया। वह आजादी की बीच लड़ाई का कठिन समय था। वह गाँधी और नेहरू के चरचराटे का समय था और समाज के लिए कुछ भी श्रेष्ठ करने का भाव युवाओं को कांग्रेस की ओर स्वाभाविक रूप से प्रेरित करता था। हम नहीं जानते कि तब अत्यंत निर्धन परिवार के डॉ. केशवराव बलीराम हेडगेवार नाम के एक साधारण मनुष्य की चेतना में भारत को लेकर क्या कौंधा था? जो भारत स्वतंत्र ही नहीं था और अपनी स्वतंत्रता के लिए अंतिम जोर लगा रहा था, उसके किस भविष्य के लिए डॉ. हेडगेवार कांग्रेस से हटकर भारत की मिट्टी में संघ का बीज रोप रहे थे? कोई अदृश्य शक्ति ही उनसे यह कार्य करा रही थी!
वह बीज आज एक छायादार घना वटवृक्ष बनकर विश्व के सामने है, जिसकी अधिकांश अग्नि परीक्षाएँ स्वतंत्र भारत में हुई हैं। वह हर आग से कुंदन बनकर निकला है। स्वतंत्रता का संपूर्ण श्रेय अपने खाते में डलवाकर सत्ता में आई कांग्रेस का सत्ता केंद्रित मार्ग उसे गहरे पतन की ओर ले गया, जिसके नुकसान भारत ने झेले। स्वतंत्र होकर भारत को बनाना क्या है और किस रास्ते पर है, इसका कोई विजन कांग्रेस के पास नहीं था इसीलिए महात्मा गांधी ने आजादी का उद्देश्य प्राप्त होने पर कांग्रेस को समाप्त करने का विचार रखा था। वे अकेले व्यक्ति थे जो कांग्रेस का आने वाला कल देख रहे थे।
सत्ता में गुजरे कांग्रेस के साठ साल “कॉलोनियल हैंगओवर’ का कालखंड है और यह वही समय है जब संघ ने अपना शक्ति संचय किया। आप 1947 के बाद 25-25 साल के अंतराल में रजत और स्वर्ण जयंती तक आगे बढ़ता हुआ जब देखेंगे तो आपातकाल के दमन से होकर गुजरेंगे और कांग्रेस को नेहरू परिवार की राजनीतिक रियासत के रूप में ठोस होता हुआ पाएंगे। हमें मानना होगा कि सेक्युलर सत्ता की इस शोभायात्रा के परे राष्ट्र को बहुत पैनी नजर से देखते हुए संघ ने राष्ट्र की अपूर्ण आकांक्षाओं को आशा के स्वर दिए हैं।
1925 की विजयादशमी के दिन एक दीप जला था, जिसकी ऊर्जा आज के भारत के जनमानस में गहरी व्याप्त है। वह खरगोश और कछुए की लोक प्रसिद्ध कथा का स्मरण कराने वाली एक रोमांचकारी यात्रा है, जिसमें एक कछुआ अपनी धीमी, निरंतर और संतुलित चाल से चलते हुए अपने लक्ष्य पर शांतिपूर्वक पहुंच जाता है। किंतु इन सौ वर्षों में लगातार विस्तृत होने के बावजूद संघ के लक्ष्य बहुत बड़े और बहुत अलग हैं और वह विचारशून्य कांग्रेस की भांति केवल सत्ता प्रतिष्ठानों तक सीमित नहीं बल्कि पूर्णत: समाज केंद्रित होने से एक चिरंजीवी शक्ति बना है। संघ समाज के बीच है, समाज के लिए है और समाज के हर सुख-दुख का सहभागी है। संघ के यश में यही संचित पूँजी है, जो विपरीत समय में उसकी आंतरिक रोग प्रतिरोधक क्षमता बनी रही।
संघ समाज से अगर कटा होता तो उसकी यात्रा इतनी लंबी और गौरवमयी हो नहीं सकती थी। संघ की जड़ें समाज में हैं, जिन्हें सींचने का कार्य निरंतर है। व्यक्तिगत आकांक्षाओं और अहंकार के लिए संघ की परिधि में कोई स्थान नहीं है और उसका डिजाइन ऐसा है कि जिसने इन सौ वर्षों में हजारों जीवनदानी स्वयंसेवकों को राष्ट्र के लिए समर्पित होने की सतत् प्रेरणा दी है। वे अपना सब कुछ त्यागकर संघ में आते हैं और संघ में आकर संपूर्ण समाज ही उनका परिवार हो जाता है। वह व्यक्ति निर्माण की एक ऐसी कार्यशाला है, जिस पर भारतीय प्रबंध संस्थानों को गहरा अध्ययन करना चाहिए। हो सकता है कि किसी स्तर पर यह कार्य हो भी रहा हो।
एक पत्रकार के रूप में मेरे देखे, संघ करोड़ों भारत भक्तों की आँखों में उतरा हुआ एक विराट स्वप्न है, जिसे साकार करने में हजारों-हजार निष्ठावान प्रचारकों की चार पीढ़ियाँ खपी हैं। केवल अपने देश और अपने समाज को निस्वार्थ भाव से अपने जीवन सहित समर्पित ये तपस्वी किसी वैदिक या उपनिषद काल के ऋषि नहीं हैं। ये हमारे ही सामने, हमारे ही बीच, समाज कार्य में सादगीपूर्वक सलंग्न ऐसी विचित्र विभूतियाँ हैं, जिनकी अपनी कोई निजी महात्वाकांक्षाएँ नहीं हैं। उनके अपने कोई स्वप्न नहीं हैं। वे सारी लालसाओं को त्यागकर स्वेच्छा से एक विराट स्वप्न को साकार करने में निमित्त मात्र बने हैं। एक महायज्ञ में अर्पित होने वाली अगली छोटी सी आहुति सा जीवन। उन्हें अपने दैनंदिन कार्य के लिए जीवनपर्यंत सुविधाओं की कोई अपेक्षा नहीं है। वे अपने सीमित साधनों के साथ दूरदराज के दुर्गम क्षेत्रों में गए हैं और वहाँ भारत की आत्मा का स्पर्श किया है। उन्होंने आदर्शों की चर्चाएँ नहीं की हैं, सच्चे अर्थों में जीवन के आदर्शों को जीया है।