उनकी वीरता को कैम्पबेल ने हैट उतार कर सलाम किया।
रमेश शर्मा।
भारत की स्वतंत्रता किसी साधारण संग्राम या प्रतिरोध से नहीं अपितु लंबे संघर्ष और लाखों क्राँतिकारियों के बलिदान से मिली है। भारत का कण कण बलिदानियों के रक्त से सींचा गया है। ऐसी ही अमर बलिदान की गाथा है क्राँतिकारी ऊदा देवी पासी की। जिन्होंने अपने अकेले दम और योजना से 32 अंग्रेज सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। लेकिन उनका इतिहास की पुस्तकों में बस दो चार पंक्तियों में ही मिलता हैं। हाँ, वे लोक जीवन की किंवदंतियों में अमर हैं। उनके संघर्ष का जितना विवरण अंग्रेजों के तत्कालीन दस्तावेजों में मिलता है उतना भारत ने न संजोया। उनके संघर्ष में कहीं कहीं उनके द्वारा मारे गये अंग्रेज सैनिकों की संख्या 36 भी लिखी है। लेकिन अंग्रेज कमांडर डाउसन ने अपनी डाय़री में यह संख्या 32 लिखी है।
ऊदा देवी पासी लखनऊ राजमहल में बेगम हजरत की सेविका थीं। ये वही बेगम हजरत महल हैं जो पहले तवायफ रहीं जिन्हें नबाब वाजिद अली शाह ने शाही मेहमानों के मनोरंजन के लिये खरीदा था। लेकिन बाद में उन्हें बेगम हजरत महल का दर्जा दिया गया। उन दिनों महल में अधिकांश सेविकाये पासी समाज की थीं। पासी समाज घुमन्तु समाज है। कहीं कहीं यह समाज जनजातीय माना जाता है और कहीं कहीं इस समाज की गणना दलित वर्ग में होती है। लेकिन पासी मूलतः क्षत्रिय समाज है लेकिन समय के साथ उसके स्वरुप और जीवन शैली में परिवर्तन आया। ऊदा देवी के पिता गाँव बस्ती में करतब दिखाते थे। ऊदा देवी ने बचपन में करतब दिखाते हुये रस्सी पर चलना, निशाने लगाना, दौड़ना कूदना आदि सीख लिया था। उसका विवाह मक्का पासी से हुआ जो लखनऊ में सिपाही हो गया।
नबाब वाजिद अली शाह ने क्राँति आरंभ होने के बहुत पहले ही 1856 में अंग्रेजों के समक्ष समर्पण कर दिया था। जिससे पूरे अवध पर अंग्रेजो का शासन हो गया था, नबाब के समर्पण को अधिकाँश सैनिकों ने पसंद न किया था। इसी बीच कानपुर में क्रांति की तैयारी आरंभ हुई। अवध की सैन्य टुकड़ी के एक रिसालदार जयपाल से तात्या टोपे और नाना साहब पेशवा का संपर्क बना और जयपाल के माध्यम से बेगम हजरत महल क्रांति के लिये तैयार हो गयीं। मई 1857 में स्वतंत्रता का उद्घोष हुआ। बेगम हजरत महल ने अपने ग्यारह वर्षीय पुत्र बिरजीस कादिर को गद्दी पर बिठाकर स्वतंत्र ध्वज फहरा दिया। लखनऊ के आलमबाग में शाही सैनिक तैनात हो गये। जिसकी कमान जयपाल के हाथ में थी। जून 1857 में कैप्टन वायलस और डाउसन ने मोर्चा लिया।
ऊदा देवी के पति मक्का पासी और रिसालदार जयपाल इसी युद्ध में बलिदान हो गये। अंग्रेज भारी पड़े। बेगम ने समर्पण कर दिया। अंग्रेजों ने दोनों माँ बेटों को नेपाल भेज दिया। अंग्रेजों ने आलमबाग में कत्ले-आम किया। इस घटना से भयभीत होकर नगर के आमजन सिकन्दर बाग में एकत्र हो गये। जिनकी संख्या लगभग दो हजार थी। इनमें अधिकांश स्त्रियाँ और बच्चे थे। ऊदा पासी को अपने पति के बलिदान की खबर लग गयी थी और यह भी कि अंग्रेजों माफी की घोषणा करके हथियार रखवाये लेकिन हथियार लेकर बंदी बनाया और कत्ले-आम किया। यह समाचार सुनकर ऊदा पासी का रक्त उबल पड़ा। उसने अंग्रेजों से प्रतिशोध लेने का विचार किया। वह गोला बारूद और बंदूक लेकर पेड़ पर चढ़कर पत्तों में छिप कर बैठ गयी। अंग्रेज फौज कमाण्डर काम्पवेल के नेतृत्व में सिकन्दर बाग की ओर आई। जैसे ही टुकड़ी समीप आई ऊदा देवी पासी ने गोलियाँ चलाना आरंभ कर दी। ऊदा का निशाना अचूक था। मरने वालों में कैप्टन हैनरी लारेन्स भी थी। सैनिकों ने साथियों को मरते तो देखा पर यह अंदाज न लगा सके कि गोलियां कहाँ से आ रहीं हैं। वह इलाका सैनिकों के शव से पट गया।
इसकी खबर कैम्पबेल को लगी। वह सार्जेट मिशेल के साथ सिकन्दर बाग आया उसने जायजा लिया। उसे पेड़ पर कुछ अंदाजा लगा और उसने पूरी टुकड़ी को उस पेड़ पर गोली चलाने का आदेश दिया। कुछ क्षणों में ही ऊदा देवी पासी की देह नीचे गिर गयी। उसका पूरा शरीर गोलियों से छलनी हो गया था। वह पुरुषों के वस्त्र पहनकर मोर्चा ले रही थी। सिर का टोप उतारते ही उसका स्वरूप सामने आया। उसकी वीरता को कैम्पबेल ने हैट उतार कर सलाम किया। सार्जेन्ट मिशेल ने यह विवरण अपनी डायरी में लिखा और इस डायरी के हवाले से लंदन टाइम्स के संवाददाता विलियम्स हावर्ड ने अपने अखबार में विवरण दिया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वर्षों तक किसी ने इस बलिदान की खबर न ली। वर्षों बाद लोक गाथाओं के आधार पर कुछ इतिहासकारों ने 1857 के दस्तावेज खंगाले। अब सिकन्दर बाग में वीर ऊदा देवी पासी की मूर्ति लग गयी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)