सत्यदेव त्रिपाठी।
सार्थक सरोकारों एवं रंग़-कला के मानक रचने वाले मशहूर नाटयकर्मी फ़िरोज़ अब्बास खान का नया नाटक ‘हिंद-१९५७’ इस बार शायद काफ़ी दिनों बाद आया है – या मैं काफ़ी दिनों बाद जान व देख पाया…! लेकिन देर-सबेर जब भी देखने मिला, अपनी उसी रंगत के साथ मिला, जिसके लिए फ़िरोज़ साहब जाने जाते हैं और जिसके लिए हम लगभग तीन दशकों से उनके मुरीद हैं…।
फिरोजजी के अधिकांश नाटकों की तरह यह भी रूपांतर है। इस बार अगस्त विल्सन के ‘फेंसेस’ को विकास भारती ने हिंदुस्तानी में किया है – ‘हिंद १९५७’ नाम से, जिसका ख़ास मतलब है कि तब से १० सालों पहले पाकिस्तान बन चुका था, दोनो देशों और क़ौमों के सम्बंध अधर में लटक चुके थे…। लेकिन नाटक का नायक तबरेज अंसारी अपने पिता के पाकिस्तान जाने के बावजूद भारत में रह जाता है, जो उसकी भारतीयता का प्रबल प्रमाण है। लेकिन बीमार पिता को देखने-लाने की आवाजाही में यहाँ की पुलिस उसे जासूस करार देते हुए ग़द्दार घोषित करके मुक़दमा चला देती है। इससे आहत होकर यह पक्का भारतीय बंदा बिफर जाता है और हमेशा के लिए अपने मन में भारतीय शासन-व्यवस्था के प्रति विरोध की एक गाँठ पाल लेता है, जो पूरी तरह सही भले न हो, ग़ैर वाजिब भी नहीं है। लेकिन यह ग़ैरवाजिब तब हो जाता है, जब वह तमाम प्रमाणों-अनुभवों के बावजूद उस गाँठ से मुक्त नहीं हो पाता।
इस तरह उसकी भारतीयता भी पृष्ठभूमि में चली जाती है…और शेष जीवन इसी मनोवैज्ञानिक गाँठ से संचालित होता है। इस गाँठ का सबसे अधिक शिकार बनती है – उसकी बीडी बनाने वाली नौकरी, जिसमें वह बेमन से पिसता है और निकाले जाने का डर सर पे सवार रहता है। मुक़दमे भी एकाधिक हैं और पैसों की क़िल्लत दायम है, जिसमें घर भी चलाना होता है। पिता से मिले घर के छत की मरम्मत जैसे ज़रूरी कामों को वर्षों टालने की बेबसी भी बेतरह सालती है उसे…। इस सबकी की धौंस पूरा नाटक झेलता है और उसके ज़रिए परिवार व दर्शकों पर भी उसकी धमक धड़कती व खटकती रहती है…। यही इस चरित्र की मुख्य-मुखर पहचान बन गयी है!! ज़ाहिर है कि तोहमत के बाद इसके कर्त्ता जनाब तबरेज अंसारी हैं, तो धब्बे भी उन्हीं पर लगते हैं और सबसे अधिक भोगते भी वही हैं, पर अमूमन इस किये-हुए का भोक्ता बनता है – पूरा परिवार ही और दर्शक भी!!
लेकिन व्यवस्था का मानक मामला बनता है कि वह अपने बेटे को हॉकी नहीं खेलने देना चाहता, क्योंकि उसकी गाँठ के अनुसार मुसलमान बच्चे/बंदे के लिए अब इस भारत देश में कोई उम्मीद नहीं बची है…। इस प्रसंग से एक बार कयास होने लगता है कि नाटक आज की कांग्रेसी-भाजपाई वाली राष्ट्रवादी स्थिति पर होगा…और मन विचलित होने लगता है कि ‘ये मामला बड़ा नाज़ुक है, कोई हल न दे’, लेकिन धीरे-धीरे मालूम होता है कि वस्तुतः नाटक अपने समय (१९५७) से बावस्ता है और तस्दीक़ करता है कि पाकिस्तान बनने के बाद की संक्रमण कालीन स्थिति के दौरान भी भारत में माहौल अधिकांशतः आपसी सौहार्द्र का ही रहा…। नाटक की जानिब से अंत तक आते-आते अंसारी की कम्पनी के तनाव ख़त्म हो जाते हैं। छत की मरम्मत हो जाती है। सबसे मानक यह कि बच्चे को भारतीय हॉकी दल में उसके खेल के मुताबिक़ बेहद सम्मान्य जगह मिल जाती है, जो अपने देश का सच रहा है। ऐसे परिणाम व प्रमाण ही यहाँ सच्ची भारतीयता व सर्वकालीन मनुष्यता के मानक रहे…और हैं…। इन सबसे सार्थक होता है – ‘हिंद १९५७’। फ़िर सबसे बड़ी बात यह कि इस तरह नाटक मौजूदा समय के डांवाडोल हालात के लिए भी एक नज़ीर बनने की लियाक़त पा जाता है। याने तबरेज की एक शख़्सियत के चित्रण पर आधारित होकर भी मंच-विधा की प्रकृति में निहित अपने समय के ज्वलंत सरोकार बड़ी सफ़ाई से निभ जाते हैं- आमीन!!
इस मूल विषय का समानांतर आयोजन तबरेज के रोज़ के दोस्त बनवारी के चरित्र में भी है, जिनकी दोस्ती को न बँटवारा तोड़ पाया, न दंगे-फ़साद-क़त्लेआम…आदि तोड़ पाये…। और ऐसी भिन्नधर्मी दोस्तियाँ आज भी हैं। वैसे तो यह दोस्ती पूरे नाटक में काफ़ी जगह (स्पेस) पाती है, पर कभी निर्णायक भूमिका निभाती नहीं दिखती। बस, हर बात-वारदात को बताने, उसकी गवाही और उस पर तसल्ली देने का ज़रिया भर बनकर रह जाती है…असर नहीं डाल पाती। तबरेज की बुढ़ाई की शादी तक की निहायत बेज़ा घटना पर भी मना ही कर पाती है – रोकने का प्रयत्न नहीं करती…और हो जाने पर दोस्ती के हक़ की जानिब से कोई पहल भी नहीं करती – नाराज़गी ही सही! कुल मिलाकर बनवारी की भूमिका तबरेज के किरदार के अक्खड़पन को परवान चढ़ाने का साधन भर बनती है – याने बनवारी का पात्रत्व कारगर नहीं, पूरक है – ‘बहुत कुछ’ होते हुए भी ‘कुछ नहीं’ के बराबर है। और इसे निभाने वाले कलाकार देढी पांडेय ने अपने अपेक्षाकृत मामूली-से व्यक्तित्व व साधारण से पहनावे के साथ इस भूमिका को अंजाम भी ऐसी ही खूबी से दिया है कि आप उनको भुला नहीं सकते, पर किस बात के लिए मन में बसा लें, बता भी नहीं सकते – याने जैसी भूमिका व उसकी वक़त, वैसा ही अदाकार और वैसी ही अदायगी…!!
बाक़ी तो इसके सिवा का पूरा नाटक नायक तबरेज की शख़्सियत के खाँटीपने का है, जिसके सामने उक्त सरोकार…वग़ैरह सबक़ुछ धीरे-धीरे ओझल होते जाते हैं…और अंसारी की शख़्सियत ही नाटक बनती जाती है। फिर तो जो तबरेज अंसारी माध्यम था – ‘हिंद १९५७’ का, वह नाटककार की कलम व निर्देशक की प्रस्तुति में पूरा होते-होते नाटक का मक़सद बन जाता है…। विश्वास न हो, तो कोई दर्शक घर जाके सोचे …कि उसे अंसारी याद आ रहा है या हिंद…!! तो ‘हिंद-१९५७’ कहीं तिरोहित हो गया लगता है…और दिल-दिमाँग में उभर के आता है तबरेज अंसारी। यह आना किरदार के कलाकर सचिन खेड़ेकर के फ़िल्मी अभिनेता को लेने (जो फ़ारख-शबाना से लेकर अब तक फ़िरोज़ साहब की पेशेवराना पसंद है) के ग्लैमर का फल भी है और कला की फ़ितरत भी, जिसमें कहो कुछ, पहुँचता है कुछ… – ‘कहती हुं कुछ, कुछ कह जाती’!! और यही चढ़ा-उपरी (टसल) अंसारी और अंसारी बने सचिन खेड़ेकर के बीच भी है। सचिन जैसा परिपक्व अभिनेता अपने अभिनय के सारे कौशल आज़माता हुआ दिखता है और भूमिका को बखूबी निभाते हुए तबरेज के उलझाव को सुलझाते हुए अंसारी को पूरा साध लेता है, पर खुद भी सध जाता है…इस साधना का तह तक का मज़ा हमें आ जाता है। लेकिन दोनो की बावत कहना होगा कि नाटक के बाद कौन हमारे साथ आया? ज़ाहिर है कि आना तो था अंसारी को, पर उसका बग़लगीर हुआ चला आया सचिन भी…। फिर भी यहाँ ग़नीमत है कि पात्र और कलाकार की कुश्ती बराबर पर छूटी है…। लेकिन हिंद-अंसारी के बीच मक़सद-माध्यम के सधने को लेकर प्रस्तुति को सोचना होगा…!!
अब आगे बढ़ें, तो कहना होगा कि तबरेज साहब की शख़्सियत का मामला है तो ज़्यादातर पारिवारिक, जो अधिकतर बनता है परिवार की मर्यादाओं को लांघकर भी। सबसे पहली बात यह कि तबरेज़ का बड़ा बेटा जब एक साल का था, पत्नी चल बसीं। दूसरी पत्नी के रूप में आयीं रजिया इस नाटक की नायिका है, जिसका ज़िक्र ‘निकाह हुआ’ की तरह न होकर यूँ होता है कि ‘घर में आयी और उस बड़े बेटे को यूँ सम्भाल लिया – गोया उसकी असली माँ हो’। इस तरह रजिया का होना किसी भी निकाह-निबाह से बढ़कर है। नाटक के दौरान वह बेटा बड़ा होकर अपनी पत्नी के साथ अलग रहता है। कोई नौकरी-धंधा न करके शायरी करता है, जो उसे पिता अंसारी साहब से मिली है…। जी हाँ, ग़द्दार की तोहमत लगने के पहले तबरेज मियाँ शायर भी थे, जिसे शायद उसी तोहमत की गाँठ ने मार डाला। जब भी कभी लतीफ़ घर आता है, हर बार वह लौटा देने के वायदे के साथ पिता से उधार पैसे माँगता है, जो अंसारी साहब प्रायः नहीं देते…और अपना बनाया सरनाम सत्य दुहराते हैं – ‘शायरी से घर नहीं चलता’ और हर बार ‘काम करने’ की नसीहत देते हैं। और यूँ भी घड़ी-घड़ी सुनाते रहते हैं फ़ैक्ट्री में दिन भर अपने नापसंद काम करने की मेहनत का पँवारा…। यह पँवारा भी नाटक का एक पात्र ही बन गया है। लेकिन लतीफ़ को पैसे मां दे देती है – ठीक वैसे ही जैसे अपने जने बेटे कैफी की गहरी लगन को देखते हुए पिता की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हॉकी खेलने भेजती है, तो मौक़े-बेमौके खर्च का इंतज़ाम भी करती है…।
इस प्रकार काफ़ी दुश्वारियों में भी रजिया घर ऐसे संभालती है, गोया बिना किसी वरदान की आशा के तपस्या कर रही हो। हरदम शांत-संतुलित-व्यावहारिक – एक आदर्श गृहिणी। इस सब कुछ को रंगमंच की ज़हीन कलाकार सोनल झा ऐसे निभाती हैं, गोया वे सोनल झा न होकर रजिया ही हों…। उनका दृश्य व्यक्तित्व यूँ भी सींकिया है, जिसे वे गृहिणी के अपने सलूक में समोकर और भी ओझल कर लेती हैं, पर अभिनय की इस प्रक्रिया में उनका मातृत्व-पत्नीत्व व गृहस्थन…कुल मिलाकर उनके स्त्रीत्व से पूरा घर ही नहीं, पूरा मंच आलोकित हो उठता है। लेकिन जब अंसारी साहब अपनी तीसरी शादी का राज खोलते हैं, तो वही सदा शालीन-कर्मरत रहने वाली रजिया मादाम की वही पिघलती सरलता चंद मिनटों के लिए लोहे की लाल छड़ी भी बन जाती है…। लेकिन हाय रे अपने देश-समाज की (कु)रीति-(कु)नीति तथा मुस्लिम समाज में बहुविवाह की मान्यता…आदि के जड़ नियम-बंध एवं इस नाटक के अस्सी साल पुराने समय का तक़ाज़ा…कि रजिया के लौह रूप को ‘पुनः बीवी भव’ में बदल जाना पड़ता है और इस नयी औरत की बच्ची का भी ऐसे पालन करती है रजिया – गोया उसी की जाई बेटी हो…और सोनलजी इसमें भी ऐसे डूबती हैं कि अभिनय-कला तर जाती है…। ऐसी पिटी-पिटायी कथाओँ में आये स्त्री के बंजर ग़ुस्से, आहत आक्रोश, मौन तड़प, ज़बरदस्त सहनशीलता…आदि को सोनलजी ने अपने अभिनय का हिस्सा बना लिया है…!! इस एकरूपी पात्र की कई परतों वाली भूमिका में वे कभी अपने दृश्य व्यक्तित्व से परे चली जाती हैं। शौहर की नयी शादी की खबर के बाद की तड़पती-तमतमाती-लरजती अपनी पीड़ा को उच्छल संजीदगी से उँडेलते हुए…जो चंद क्षण बनते हैं, उसी को शायद ‘भूमिका के पार चले जाना’ कहते हैं।
वैसे यहाँ ऐसी भारतीय नारी की संयम-समर्पण, त्याग-सेवा, धैर्य-श्रम…आदि वाला स्वरूप साठ साल पुराना होने से फिर भी ठीक है, लेकिन नाटक के रूपांतर के साथ ‘इस नारी का रूपांतर कब होगा’…पर सोचें, तो यहाँ दूसरी शादी पर कैफी के आक्रोश में बाप को धकेल देने में एक बात किलकी है। वह ऐसे बाप के लिए कुछ नहीं करना चाहता…। कैफी की यह भूमिका भी घर के काम, पढ़ाई-खेल…आदि में गतिशील है। इसे निभाते हुए रवि चाहर अपने हाव-भाव, गति-चापाल्य…थसमसाने-भागने…आदि जैसे निर्वाह में सटीक भी है, सोहता भी है। और उधर लतीफ़ बने अंकित के चेहरे पर शायर की सज्जनता व मन की निर्मलता तो बड़ी मनभावन है। पर खड़े होने व खड़े-खड़े चलने और बिलकुल सीधे (स्ट्रेट) झट से आने-जाने में निभाने से ज़्यादा निकल जाने की छाप बनती है। हाँ, परिवार में शायरी का समाँ अपनी सादगी में खूब फबता है… उसका शायर गति भी पकड़ता है, क्या इसे मजलिस में बाप (अंसारी) के न होने का असर भी माना जाये…!! वैसे अभिषेक शुक्ला की ग़ज़ल भी मज़े की अच्छी है।
एक पात्र गुलरेज हैं – अंसारी के भाई। फ़ौज में थे। गम्भीर रूप से घायल होकर दिमाँगी संतुलन खो बैठे हैं और अपने फ़ौजी रूप में ही उनकी चेतना अटक गयी है। यह भूमिका न हो, तो भी नाटक की मूल सेहत पर फ़र्क़ न पड़े, लेकिन होकर नाटक में बेहद महत्त्व का आयाम जोड़ती है – त्रासद-दयनीय-सोचनीय। यह भूमिका कथा की पृष्ठभूमि (विभाजन व दंगे-फ़साद) का प्रतिफल है। करने वाले नंद पंत को पहली बार ‘रंगभूमि’ में नायक सूरदास बने बीस साल पहले देखा था और मुरीद हो गया था…। अभी कुछ दिनो पहले फिर देखा, तो मुरीदी और बढ़ गयी…। पर्दे की छोटी-मोटी भूमिकाओं के साथ ‘तर्पण’ जैसी पूरी फ़िल्म में देखा…और पाया कि अपनी भूमिका को गढ़ने का हुनर उन्हें आता है, जिसका एक चरम इस गुलरेज में इसलिए दिखता है कि इस भूमिका में एक ही वेश है, काम भी एक ही करना है, लेकिन उसे अनेक व विविधतापूर्ण बनाना है, जो इकले कलाकर के ही ज़िम्मे है। छोटे-छोटे तीन प्रवेश हैं…तीनो को एक विक्षिप्त आदमी के बाहोश होने की और विस्मय-विश्वास की विरोधाभासी स्थिति के अनुरूप अपनी गति-प्रवाह, अदा-अंदाज…आदि से पंतजी खूब लहका देते हैं। उनके संवाद नहीं के बराबर हैं – सब लगभग एकालाप हैं, पर उसमें पंतजी का अंग-प्रत्यंग बोलता है, जो मुंह से बोलने की बनिस्पत ज्यादा सुनायी पड़ता है…। भूमिका का अंत अपेक्षित है, पर उसे आकस्मिक (ऐबडरप्ट) बना देना ज्यादा कारगर हो गया है।
लेकिन सबसे अधिक बोलता है फ़िरोज़ अब्बास साहब का सेट। उनके नाटक में सेट हो, तो उसके आकार-प्रकार, बनावट व सुंदरता को देखने व उपयोगिता का संधान करने के लिए सभागार में जल्दी जाना होता है…। ताकि नाटक के दौरान समाज सकें कि किस भाग व उपादान का कब-कैसे-क्या कहने-करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है…और यह देखना एक अलग नाटक देखने का दोहरा मज़ा देता है। फिर इस ‘हिंद-१९५७’ का सेट तो अपने साठ साल के पुरानेपन को साकार करने में सोहता तो है ही, अपनी मूकता में बोलता भी है। इसके पिछले भाग में पुराने से पर्दे का दरवाजा है, जिससे होकर एक-एक पात्रा का दर्ज़नों बार आना-जाना… घर होने का माध्यम नही, श्रिंगार बन जाता है। पर्दे के सामने की जगह घर का दुआर (सामने वाला हिस्सा) है – पूरा मंच ही, जो जीवन की तरह पूरे नाटक के घटित के लिए पर्याप्त है। सर्वाधिक दर्शनीय हैं सीढ़ियाँ, जिससे होकर गोया सचमुच की छत पर कैफी जाता है साफ़ करने, अंसारी साहब जाते है – उसकी मरम्मत का अंदाज लगाने व बनवारी के साथ मंत्रणा करने…। लेकिन यह सीढ़ी एवं छत गुलरेज की भूमिका के मुख्य आश्रय है। प्रवेश में उनकी विक्षिप्ति वहीं परवान चढ़ती है।
और इतना बड़ा संभार, इतना सारा सोच-सरंजाम… दृश्यता-वैचारिकता, ऐतिहासिकता के खट्टे-मीठे फल, मानवीय रिश्तों के मर्म-दंश…आदि सबको जिस संजीदगी-मनोहरता व कलात्मकता से प्रस्तुत किया गया है, वह सब फिरोजजी की सोच-संवेदना-रंगदृष्टि से बने चुस्त-दुरुस्त निर्देशन-कौशल का ही सुफल है, यह क्या कोई कहने की बात है…?
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)