राजीव रंजन।
गुरुवार 1 अप्रैल। पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण का मतदान चल रहा है। यूं तो पश्चिम बंगाल का पूरा चुनाव ही देश में गरमागरम चर्चा का विषय है, लेकिन नंदीग्राम में किसके माथे तिलक सजेगा किसकी होगी हार कुछ ज्यादा ही चर्चा का विषय बना हुआ है। पिछले 12 सालों से तृणमूल कांग्रेस का गढ़ रहे और इस चुनाव में ममता बनर्जी के लिए राजनीतिक अस्तित्व का प्रश्न बन चुके नंदीग्राम में आज ही मतदान हो रहा है। कभी नंदीग्राम ने ममता के लिए बंगाल में सत्ता के शिखर पर चढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया था, आज वह उनके राजनीतिक जीवन का सबसे कठिन युद्ध बन गया है। तब जो सुवेंदु अधिकारी नंदीग्राम की उस लड़ाई में ममता के सेनापति थे, आज वही सुवेंदु उन्हीं के खिलाफ अस्त्र तान कर खड़े हैं।
कुछ भी हो सकता है
क्या ममता बनर्जी नंदीग्राम से चुनाव हार सकती हैं? इस प्रश्न का उत्तर अभी दे पाना संभव नहीं है। क्या ममता बनर्जी नंदीग्राम से चुनाव जीत जाएंगी? इस प्रश्न का उत्तर भी अभी दे पाना संभव नहीं है। ग्राउंड रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकारों में इस बात को लेकर एक राय नहीं है कि कौन जीत सकता है। सबके अपने अपने विश्लेषण है। ममता बनर्जी नंदीग्राम में चुनाव हार गईं तो क्या होगा? क्या ऐसा संभव है? पत्रकार से राजनेता बने और फिर पत्रकारिता में लौट आए आशुतोष कहते हैं कि राजनीति में कुछ भी हो सकता है। कभी भी कुछ हो सकता है। बड़े बड़े दिग्गज चुनाव हार चुके हैं। और छोटे लोग जिन के बारे में कोई ध्यान नहीं देता, अचानक एक करिश्मा कर देते हैं। वहीं कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार प्रभाकर मणि तिवारी का मानना है कि ममता के हारने की आशंका नहीं लगती, लेकिन नंदीग्राम में कुछ ध्रुवीकरण तो हुआ है। अगर ममता खुद चुनाव हार जाती हैं, तो बंगाल में भाजपा 200 सीटों के पार चली जाएगी।
लड़ाई दिलचस्प
ममता बनर्जी एक कद्दावर नेता हैं, प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं और केंद्रीय राजनीति में अहम भूमिका निभा चुकी हैं। इसलिए उनका पलड़ा पहली नजर में थोड़ा भारी नजर आता है। लेकिन पश्चिम मेदिनीपुर और पूर्व मेदिनीपुर जिला (जिसमें नंदीग्राम सीट आती है) अधिकारी परिवार का भी गढ़ है। साथ ही, भाजपा की चुनावी मशीनरी और प्रचार तंत्र भी उनके साथ है, इसलिए लड़ाई दिलचस्प है। ममता बनर्जी यह तो जानती थीं कि नंदीग्राम का रण उनके लिए आसान नहीं है, लेकिन वह जितना मुश्किल समझ रही थीं, यह लड़ाई अब उससे ज्यादा मुश्किल साबित हो रही है। पिछले कुछ दिनों की उनकी गतिविधियों पर नजर डालें, तो ऐसा लगता है कि यह बात उन्हें समझ में भी आ गई है। इसलिए बंगाल की दूसरी सीटों पर भी प्रचार करने की बजाय पिछले चार-पांच दिनों से वह नंदीग्राम में ही डेरा डाले हुए हैं। वह अपने प्रतिद्वंद्वी पर निजी प्रहार करने से भी नहीं चूक रही हैं।
ध्रुवीकरण की दुधारी तलवार
भाजपा जहां चुनाव में ध्रुवीकरण की कोशिश कर रही हैं, वहीं ममता इस बात की पूरी कोशिश कर रही हैं कि ऐसा किसी कीमत पर न होने पाए। इसीलिए वह कभी चंडी पाठ कर रही हैं तो कभी खुद को सच्चा हिन्दू कह रही हैं। दो दिन पहले तो उन्होंने अपना गोत्र भी बता दिया कि वे शांडिल्य हैं। इस पर ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के राष्ट्रीय अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने तंज भी कसा कि उन जैसे लोग, जो न शांडिल्य हैं और न जनेऊधारी, वे कहां जाएं। ममता भाजपा की ध्रुवीकरण रणनीति से कितना आशंकित है, इसके बारे में प्रभाकर मणि तिवारी एक दिलचस्प बात बताते हैं। ममता ने नंदीग्राम में किराये के दो घर लिए हैं, जिसमें एक का मकान मालिक मुसलमान है। लेकिन ध्रुवीकरण के डर से उन्होंने उस मकान में अभी तक कदम भी नहीं रखा है।
दोहरी रणनीति और जमीनी सच
नंदीग्राम से चुनाव लड़ने के पीछे ममता बनर्जी की दोहरी रणनीति थी। वह अपने मतदाताओं को संदेश देना चाहती थीं कि सुवेंदु के भाजपा में जाने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। वह उनको उन्हीं के घर में मात देंगी। दूसरा, नंदीग्राम के बहाने वह सुवेंदु के प्रभाव को उनके गृह जिले में कम करना चाहती थीं। ममता की सोच थी कि सुवेंदु के खिलाफ चुनाव लड़कर वे उन्हें नंदीग्राम से बाहर निकलने (दूसरे चरण तक) का मौका नहीं देंगी, लेकिन लड़ाई इतनी मुश्किल साबित हुई कि वे खुद ही नंदीग्राम तक सीमित होकर रह गईं। चुनाव प्रचार के आखिरी दिन तो वह ह्वीलचेयर छोड़ कर खड़ी भी हो गईं।
बड़ा जोखिम
क्या ममता बनर्जी ने नंदीग्राम से चुनाव लड़कर बहुत बड़ा जोखिम ले लिया है? प्रसिद्ध पत्रकार शेखर अय्यर अपने लेख “हैज ममता बनर्जी एर्ड बाई चूजिंग नंदीग्राम?” (क्या ममता बनर्जी ने नंदीग्राम को चुनकर गलती कर दी है?) में लिखते हैं- सुवेन्दु अधिकारी के भाजपा का उम्मीदवार बनने के साथ चुनाव प्रचार में पार्टी और सांप्रदायिक लाइन पर एक तेज ध्रुवीकरण देखने को मिला है। तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को उनकी जीत पर संदेह है। इसके बाद से ही वह अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले खुद को ज्यादा हिन्दू दिखाने की कोशिश कर रही हैं। इसी लेख में एक जगह वह लिखते हैं- अफवाह यह है कि नंदीग्राम में मतदान खत्म होने के बाद बनर्जी एक दूसरे सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ने का फैसला कर सकती हैं।
युद्ध के बीच मदद की गुहार
नंदीग्राम में मतदान के ठीक एक दिन पहले 31 मार्च को ममता बनर्जी ने गैर-भाजपा दलों के नेताओं को एक चिट्ठी लिखी है। सोनिया गांधी, शरद पवार, एम. के. स्टालिन, तेजस्वी यादव, उद्धव ठाकरे, अरविंद केजरीवाल, नवीन पटनायक, अखिलेश यादव, हेमंत सोरेन, फारुक अब्दुल्ला आदि नेताओं को भेजे इस पत्र में उन्होंने लिखा है, “मेरा मानना है कि लोकतंत्र और संविधान पर भाजपा के हमलों के खिलाफ एकजुट होकर प्रभावी ढंग से संघर्ष करने का समय आ गया है।” भाजपा कह रही है कि यह चिट्ठी बताती है, ममता बनर्जी ने अपनी हार मान ली है। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने ट्वीट किया है, “पीसी का ‘बाहिरागतो’ वाला मुद्दा महज ढकोसला था, आज यह साबित हो गया कि बंगाल में ममता बैनर्जी और उनकी पार्टी की जमीन खिसक गई है। विधानसभा चुनाव में अपनी निश्चित हार को देखते हुए अब ममता दीदी ने देशभर के मोदी और भाजपा विरोधी नेताओं से मदद की गुहार लगाई है।” लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान भी कहते हैं कि परिणामों को लेकर ममता बनर्जी के दिमाग में अनिश्चितता है, इसलिए उन्होंने यह चिट्ठी लिखी है। हालांकि इसका नंदीग्राम के परिणाम से कोई सम्बंध है, ऐसा वह नहीं मानते।
70-30 फैक्टर
एक बात तो तय है कि भाजपा 70-30 (70 प्रतिशत हिन्दू, 30 प्रतिशत मुस्लिम) का नारा उछाल कर अगर बंगाल में ध्रुवीकरण की अपनी रणनीति में सफल हो जाती है, तो नंदीग्राम में चौंकाने वाला परिणाम आ सकता है। तृणमूल के भी कई कार्यकर्ता दबे स्वर में यह स्वीकार करते हैं कि पूर्व और पश्चिम मेदिनीपुर में सुवेंदु अधिकारी और उनका परिवार काफी प्रभावशाली है। अगर अब तक के परिणामों की बात करें, तो 2011 और 2016 में नंदीग्राम में जीत का अंतर क्रमशः 43,640 और 81,230 वोटों का रहा है। इन दो चुनावों को छोड़ दें, तो 1977 से 2006 तक नंदीग्राम में जीत का अंतर 138 वोट से 14253 वोट के बीच रहा है। इस बार भी जीत का अंतर 15,000 वोट से ज्यादा रहने की उम्मीद नहीं है, चाहे ममता जीतें या अधिकारी।