मोहन सिंह। 
पश्चिम बंगाल चुनाव इस बार कई मायने में खास है।  इस चुनाव में जहां एक तरफ  प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और पूरी भाजपा की राजनीतिक साख दांव पर लगी है, वहीं ममता बनर्जी, कांग्रेस, वाम मोर्चा समेत पूरे विपक्ष के लिए यह चुनाव करो या मरो की स्थिति है। इस वजह से बिहार में राजद और झारखंड में  झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसे दल जो महागठबंधन में वाममोर्चा के साथ थे, वे बंगाल विधानसभा  चुनावों में  ममता के साथ खड़े हैं। 

ममता बनर्जी के सामने जहां अपने दस साल की सत्ता को बरकरार रखने की चुनौती है, वहीं भाजपा इस चुनाव में बंगाल की सत्ता हासिल करने के लिए वह सब कुछ कर रही है जो संभव है। इस लगभग ध्रुवीकृत हो चुके चुनाव में कांग्रेस -वाम मोर्चा कुछ सीटों को छोड़कर पूरे चुनाव को त्रिकोणीय बनाने में फिलवक्त असफल दिख रहा है। ममता मोदी विरोधी ताकतों और मुद्दों के सहारे चुनाव लड़ रहीं है, तो भाजपा की पूरी फौज बंगाली पहचान बनाम बाहरी के मुद्दे का सामना करते हुए चुनावी मोर्चे पर डटी है।

धार्मिक पहचान और उपजातीय चेतना का उभार

Mamata throws a challenge to Suvendu Adhikari, announces her decision to contest from his bastion of Nandigram; Trinamool candidates list out - Frontline

इन ऊपरी मुद्दों के अलावा धार्मिक पहचान और उपजातीय चेतना का उभार भी इस चुनाव का एक प्रमुख मुदा बन चुका है।मतुआ समुदाय को- जो विधानसभा की कई सीटों पर निर्णयाक स्थिति में है- गोलबंद करना भाजपा की इसी  रणनीति का हिस्सा है। सन् 2019 के लोकसभा चुनावों के पहले से भाजपा इस समुदाय को अपने पक्ष में करने के लिए बड़े करीने से काम कर रही है। इस चुनाव में भाजपा की यह रणनीति कामयाब नजर आ रही है। इसके अलावा हिंदी भाषी समुदाय में उस तबके को छोड़कर जो सत्ता से लाभान्वित हुआ है, लगभग पूरा समुदाय आज भाजपा के पक्ष में खड़ा है। ममता बनर्जी पिछले दस सालों में अपने किये काम को दर किनार कर खेला होबे और बंगाल की बेटी के नारे से सत्ता विरोधी लहर को पीछे करने की कोशिश कर रहीं है। उधर भाजपा सिंडिकेट, कट मनी, तुष्टिकरण के मुद्दे उठाकर ममता को घेरने का एक भी अवसर छोड़ना नही चाहती। इसलिए धार्मिक पहचान और उपजातीय चेतना के साथ इन मुद्दों की मार ममता पर भारी पड़ रही है। भाजपा को शायद इस बात का अहसास हो कि बंगाल की बेटी, बंगाली अस्मिता और मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा जैसे संवेदनशील मुद्दे कहीं चुनाव में प्रभावी न हो जाएं, इस वजह से बंगाल के ही किसी धरती पुत्र को मुख्यमंत्री बनाने और यह बताने में देर न लगी कि भाजपा के डीएनए में श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे बंगाली का खून है, जो भाजपा के पूर्व अवतार जनसंघ के संस्थापक रहे हैं।

दूसरे दलों से आये लोगों को बड़े पैमाने पर टिकट

Suvendu Adhikari harbouring criminals': TMC writes to EC seeking intervention in Nandigram

भाजपा के लिए एक परेशान करने वाली खबर यह है कि चुनाव के एन वक्त भाजपा का दामन थामने वाले दूसरे दलों से आये लोगों को बड़े पैमाने पर टिकट दिया गया। इससे जगह जगह पार्टी के अंदर विद्रोह की स्थिति पैदा हो गयी थी जो अब कुछ थमती सी नज़र आ रही है। इस स्थिति से निपटने के लिए भाजपा ने सिनेमा की दुनिया से आये अभिनेताओं, अभिनेत्रियों को टिकट दे दिया, जिससे भाजपा के मूल कैडर में नाराजगी है। कई जगह मूल कैडर के नाम पर ऐसे लोगों को टिकट दे दिया गया जो भाजपा में पहले से चुनाव लड़ते रहे हैं। ऐसी सीटों पर पार्टी की स्थिति कमजोर है। पर गनीमत यह है कि ऐसी सीटों पर अंतिम चरण में चुनाव है और भाजपा के चुनाव प्रबन्धकों को उम्मीद है कि रूठे कार्यकर्ताओं को तब तक को मना लिया जाएगा। भाजपा के चुनाव प्रबंधक यह दावा भी कर रहें हैं कि भाजपा उन चुनाव महज लड़ने के लिए नहीं, जीतने के लिए लड़ रही है। इसलिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहीं।

तृणमूल के बैनर पोस्टर पर सिर्फ ममता

All India Trinamool Congress on Twitter: "#21JulyShahidDibas #২১জুলাই #শহীদদিবস… "

उधर तृणमूल कांग्रेस के बैनर पोस्टर पर सिर्फ ममता बनर्जी  नजर आ रहीं है और प्रशांत किशोर की रणनीति के मुताबिक ममता को ही लड़ते हुए पेश किया जा रहा है- बहुत हद तक उत्तर प्रदेश, बिहार के परिवारवादी दलों की तरह। तृणमूल कांग्रेस में चुनाव के पहले विद्रोह की स्थिति इस वजह से पैदा हुई कि अब पार्टी में ममता के बजाय भाइपो अभिषेक बनर्जी की ही चलती है। वाम मोर्चा -कांग्रेस गठबंधन अब उन सीटों पर ही अपनी ताकत लगा रहा, जहां उसकी स्थिति पहले से ही कुछ मजबूत है। लेकिन असली लड़ाई चूंकि भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच है, इसलिए कांग्रेस- वाममोर्चा गठबंधन कोई बड़ा  फेरबदल कर देगा, ऐसी स्थिति नजर नहीं आ रही है। अब वाम मोर्चा के कई बड़े नेता भी इस सच्चाई  को स्वीकार करते हैं।ऐसे में मतदाताओं के सामने विकल्प बहुत साफ हैं। मतदाताओं के लिए यह समझना आसान है कि चुनावों के एन वक्त तृणमूल कांग्रेस में विद्रोह की स्थिति क्यों पैदा हुई?करप्शन, कटमनी, सिंडिकेट क्लब के जरिये शासन चलाने से सबसे ज्यादा नुकसान किसका हुआ? अम्फाम तूफान के समय केंद्र सरकार के सहयोग राशि का पैसा जरूरतमंदों तक क्यों नहीं पहुंचा? केन्द्र सरकार की कई योजनाएं के लाभ से बंगाल की जनता अबतक वंचित क्यों हैं? इस  चुनाव में इन मुद्दों  की भी खूब चर्चा है।इसके अलावा धार्मिक पहचान की चुनावी बयार को थामने के लिए ही ममता बनर्जी अपनी चुनावी सभाओं में दुर्गा पाठ करती नजर आती हैं। ममता बनर्जी को यह पता है कि मतुआ समुदाय की इस चुनाव में कितनी बड़ी भूमिका है? इसलिए बांग्लादेश के आजादी के पचास साल पूरा होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मतुआ समुदाय के देबी मंदिर जाने पर आपत्ति दर्ज कराते हुए उनके वीजा रद्द करने की मांग करती हैं।

गरीब को लुभा रहा कमल

BJP To Announce Names Of Nearly 80 Bengal Candidates Today: Party Leader Rajib Banerjee

इस चुनाव में मतदाताओं के रुझान जानने के लिए बातचीत करने पर कई तरह के नतीजे सामने आ रहे हैं। पहली बात तो यह कि जिस खेला होबे को ममता बनर्जी अपनी सभाओं में बार बार  दुहरा रही हैं, उसका कई बार आमजन नकारात्मक अर्थ  ग्रहण करने लगा है और पूछने लगा है कि की खेला होबे? पिछले दस साल में जो हुआ वह कम है क्या? उसकी व्याख्या करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  विकास होबे का आश्वासन दे रहे हैं। दीदी का खेला शेष होबे का दावा कर रहे हैं। ममता दीदी के शासन काल में करप्शन, सिंडिकेट, कट मनी कलबों के किसी भी मामले में हस्तक्षेप से सबसे ज्यादा परेशान गरीब तबका है। उसे शासन से सहयोग की दरकार होती है और जो नहीं मिलती तो चुपचाप कमल छाप का नारा उसे ज्यादा अपील करने लगता है।
इस नारे ने पिछले लोकसभा चुनावों में अपना कमाल तो दिखाया ही, इस बार वह थोड़ा मुखर भी हैं और कुछ हद तक निर्भय भी। केंद्र में भाजपा की सरकार और चुनाव आयोग की सख्ती से उसे भरोसा हो गया है कि इस चुनाव में भय पैदा कर अब किसी को मतदान से वंचित नहीं किया जा सकता।
इसके पहले के चुनावों में वाममोर्चा और तृणमूल कांग्रेस के शासन में चुनाव जीतने का यह एक कारगर हथियार माना जाता रहा है। भयमुक्त चुनाव करवाने के तमाम दावों के बावजूद एक ऐसा तबका भी है, जो दिखाने के लिए झंडा तो तृणमूल का थामा हैं, पर वोट वह तृणमूल को नहीं देगा।

मध्य वर्ग और शहरी वोटर की बात

West Bengal assembly elections: BJP Parivartan Yatra re-routed for CM rally | Hindustan Times

तथाकथित मध्य वर्ग चुनावों की चर्चा करने पर लड़ाई फिफ्टी फिफ्टी बताएगा, ताकि सुविधा के हिसाब से चुनाव नतीजे आने पर तृणमूल अथवा भाजपा के साथ खड़ा हो जाय। वहीं शहरों में ऐसे लोग ज्यादा हैं, जो बातचीत में बताते हैं कि अभी कुछ भी तय नहीं किया हैं। पर वे यह बताने में संकोच नहीं करते कि वाम मोर्चा के शासन में जहां एक जगह दस रुपये देने से जो काम हो जाता था, वह दस रुपये तृणमूल कांग्रेस के शासन में दस जगह देना पड़ता हैं। ये वो लोग हैं जो सोच समझकर मतदान के एन वक्त निर्णय करते हैं। ऐसे मतदाताओं की संख्या हर चुनाव में दस फीसद मानी जाती हैं। पर बंगाल के कई सर्वे में ऐसे मतदाताओं की संख्या इस बार बीस फीसद बतायी जा रही है। ऐसे मतदाताओं के निर्णय का आधार आमतौर पर यह होता है कि किसे सत्ता की बागडोर सौपनी है और किसे सत्ता से बेदखल करना है। हालांकि ये सारी दुविधा और उभय सम्भव की स्थिति शहर के इर्द गिर्द हावड़ा से हुगली तक ही नज़र आ रही है।

बदलाव के केंद्र गांव

Agitation against 'cut money' in West Bengal: Battling extortion - Frontline

बंगाल में सत्ता का यह चरित्र भी रहा है कि शहर सत्ता के साथ रहे हैं, जबकि सत्ता के बदलाव के केंद्र गांव रहे हैं। हावड़ा ब्रिज पार करते ही स्थितियां साफ होने लगती हैं और लोग मुखर होकर अपनी राय बताते हैं।उनके लिए स्थिति बिल्कुल साफ हैं और विकल्प एकदम स्पष्ट, बिना किसी डर भय के। वह यह कि इस सरकार को इस बार बदलना है। यह चुनाव उनके लिए एक अवसर है ममता के कुशासन का विकल्प चुनने का।

बंगाल का भद्रलोक

BJP announces 63 candidates for Bengal election, fields sitting MPs, Tollywood stars - Elections News

बंगाल के भद्र लोक को यह बात आसानी से पच नहीं रही कि भाजपा जैसी पार्टी अचानक ऐसी स्थिति में कैसे आ गयी कि वह आज पश्चिम बंगाल की स्थापित सत्ता को चुनौती देने की स्थिति में खड़ी हो गई है। उस सत्ता के खिलाफ जो वाममोर्चा के 34 साल और तृणमूल कांग्रेस पिछले 10 साल के शासनकाल में केंद्र सरकार को हमेशा चुनौती पेश करती रही है। इस तबके के लिए ही भाजपा, देश के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री बाहरी हैं और उनका बार बार बंगाल का चुनावी दौरा भी इस तबके को अखरता है। आठ चरणों मे भयमुक्त चुनाव कराने के लिए पारा मिलिट्री बलों की तैनाती बेचैनी पैदा करती है। सत्ता की बागडोर हाथ से निकल न जाए, इसलिए बंगाल की अस्मिता, बंगाल की बेटी और बाहरी भीतरी की बहस को बार बार केंद्र में लाने की कोशिश होती हैं, ताकि ममता के दस साल के कारनामों की हकीकत कहीं सामने न आ जाए।
ऐसी स्थिति में आमतौर कुशासन से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला तबका ही तय करेगा कि पश्चिम बंगाल में किसे सत्ता की ताजपोशी करनी है और किसे सत्ता से बेदखल करना है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)