#pramodjoshiप्रमोद जोशी।
अमेरिका का टैरिफ-युद्ध इस हफ्ते पूरी तरह शुरू हो गया है। उसका असर अब चीन, कनाडा और मैक्सिको से आगे निकलकर विश्वव्यापी होगा, जिसमें भारत भी शामिल है। वैश्विक-अर्थव्यवस्था के लिए यह एक नया संधिकाल है।

मामला केवल आर्थिक-रिश्तों तक सीमित नहीं है। सामरिक, पर्यावरणीय और अंतरराष्ट्रीय-प्रशासन से जुड़े मसले भी इससे जुड़े हैं। अमेरिका की नीतियों को बदलते वैश्विक-संबंधों के लिहाज से देखने की ज़रूरत है, खासतौर से हमें भारत-अमेरिका रिश्तों के नज़रिए से इसे देखना होगा।

केवल 2 अप्रैल की घोषणाओं से ही नहीं, बल्कि उससे पैदा होने वाली अनुगूँज से भी बहुत कुछ बदलेगा। ट्रंप-प्रशासन ने इसे ‘लिबरेशन डे’ कहा है। रेसिप्रोकल यानी पारस्परिक टैरिफ का मतलब यह कि दूसरे देशों से अमेरिका आने वाले माल पर वही शुल्क वसूला जाएगा, जो वे देश अमेरिकी वस्तुओं पर लगाते हैं।

अमेरिकी पराभव

The day after Trump tariffs: On Govt table, issue of potential surge in China imports | Business News - The Indian Express

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में सोवियत संघ पर अमेरिकी विजय के पीछे केवल भौतिक-शक्ति ही जिम्मेदार नहीं थी। अमेरिकी संस्कृति की कई आकर्षक विशेषताओं ने उसे सफलता दिलाई थी।

इसमें सबसे भूमिका थी अमेरिकी समाज के राजनीतिक खुलेपन की। नोम चॉम्स्की जैसे अमेरिका के सबसे बड़े आलोचक भी वहीं रहते हैं, और आदर पाते हैं। अब लगता है कि अमेरिका की उस सॉफ्ट पावर का भी क्षरण हो रहा है।

अब ट्रंप-प्रशासन की नीतियों को लेकर दो बातें पूछी जा रही हैं। वे ऐसा क्यों कर रहे हैं और इसका परिणाम क्या होगा? पिछले सौ साल से ज्यादा समय से दुनिया पर अमेरिका का वर्चस्व कायम है, जिसके खत्म होने का खतरा पैदा हो गया है। इसकी बड़ी वजह है चीन का उदय।

चीन के आर्थिक-शक्ति बनकर उभरने में अमेरिकी नीतियों का हाथ भी है। अमेरिका उदार-व्यवस्था, खुले बाज़ार का समर्थक और राजकीय संरक्षणवाद का विरोधी रहा है, जबकि चीनी-व्यवस्था संरक्षणवादी नीतियों पर चलती रही है। अब अमेरिका भी उस रास्ते पर जा रहा है।

डॉलर की भूमिका

दुनिया के दूसरे देशों से बनकर आने वाला सामान अमेरिकी उपभोक्ताओं को सस्ता मिल जाता है। वहाँ लागत कम है, दूसरे अमेरिकी डॉलर बहुत मजबूत है। डॉलर की असाधारण मजबूती का कारण है: मुद्रा भंडार के रूप में उसकी साख है कि उसकी कीमत कम नहीं होगी।

दुनिया के सभी विदेशी मुद्रा भंडारों में डॉलर का हिस्सा 60 प्रतिशत के आसपास है। वैश्विक-कारोबार में विनिमय की वह सबसे प्रमुख हार्ड करेंसी है। वैश्विक लेन-देन का करीब 50 फीसदी डॉलर में होता है।

चूंकि सभी देश डॉलर का भंडार बनाकर रखना चाहते हैं, इसलिए उसकी माँग बहुत ज़्यादा है। डॉलर की क्रय शक्ति बढ़ रही है, पर यही बात उसके व्यापार घाटे की वजह है। टैरिफ बढ़ाने का उद्देश्य है आयात को महंगा करना। इसका पहला प्रभाव अमेरिकी उपभोक्ता पर पड़ेगा।

दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में, इतने बड़े बदलाव का असर तमाम चीज़ों पर पड़ेगा। शेयर बाजार, सोना, मुद्रा विनिमय दरों और रियल एस्टेट हर चीज़ करवट लेगी। टैरिफ लगाने वाले देश भी जवाबी कार्रवाई करेंगे और विश्व-स्तर पर पूर्ण टैरिफ-युद्ध शुरू हो जाएगा, तो चारों ओर चीजें महंगी होंगी और सप्लाई चेन टूटेंगी। कई तरह के चेन-रिएक्शन शुरू होंगे, जिनकी अभी कल्पना नहीं की गई है।

इसके पहले विश्व-स्तर पर होने वाले बदलावों में अमेरिका मित्र देशों को साथ लेकर चलता था, पर इस बार वह ‘अमेरिका फर्स्ट’ के नारे लगा रहा है। इस बात के बहुत से परिणाम अभी समझ में आ नहीं रहे हैं।

 मेक अमेरिका ग्रेट

अमेरिका ने 2024 में एक ट्रिलियन (दस खरब) डॉलर से अधिक का व्यापार घाटा दर्ज किया। दूसरे शब्दों में, अमेरिका द्वारा आयातित वस्तुओं का कुल मूल्य अमेरिका निर्यातित वस्तुओं के मूल्य से एक ट्रिलियन डॉलर अधिक था। वह लगातार चौथा वर्ष था जब अमेरिका ने एक ट्रिलियन डॉलर का व्यापार घाटा दर्ज किया।

अमेरिका के लिए यह कमज़ोरी कोई नई बात नहीं है। दशकों से उसका व्यापार घाटे में है। अलबत्ता इतना बड़ा घाटा पहले नहीं रहा। लगातार बढ़ते व्यापार-असंतुलन का मतलब है कि अमेरिका के अंदर निर्माण कम हो कहा है, जिसका दूसरा मतलब है कि वहाँ रोजगार सृजन कम होता जा रहा है।
राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा कि दुनिया, अमेरिका को लूट रही है। उन्होंने इस वायदे के साथ इसबार चुनाव लड़ा और जीता कि मैं हालात को बदल दूँगा।

मार-ए-लागो सहमति

ट्रंप के फ्लोरिडा स्थित रिसॉर्ट के नाम पर इस रणनीति को ‘मार-ए-लागो एकॉर्ड’ का नाम दिया गया है।

अमेरिकी आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष स्टीफन मिरान का यह विचार है। मिरान का दावा है कि इससे, कर राजस्व वृद्धि या खर्च कम किए बगैर, अमेरिका के चालू खाते और राजकोषीय घाटे को कम किया जा सकेगा।

1985 में जी-5 देशों ने डॉलर के लगातार मजबूत होने पर ‘प्लाज़ा एकॉर्ड’ का रास्ता अपनाया था। उसी तरह इस बार का समाधान दुनिया में अमेरिकी निर्यात को प्रतिस्पर्धात्मक बनाने के इरादे से तैयार किया गया है।

न्यूयॉर्क प्लाज़ा होटल में जी-5 देशों (फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका, ब्रिटेन और जापान) के बीच हुए उस समझौते का उद्देश्य अमेरिकी डॉलर का अवमूल्यन करना था, ताकि व्यापार घाटे को कम किया जा सके।

तब दुनिया के कई देश अमेरिका के साथ थे, पर इस समय कौन किसके साथ है पता नहीं। इस बार भी डॉलर के अवमूल्यन की कोशिश हो सकती है, ताकि अमेरिकी माल विदेशी बाजारों में सस्ता हो। अंदेशा इस बात का है कि चीन जैसे देश अपनी मुद्रा का भी अवमूल्यन करेंगे।
(लेखक ‘हिंदुस्तान’ नयी दिल्ली के पूर्व वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं)