आईजीएनसीए में ‘पाण्डुलिपि एवं समीक्षित पाठ-सम्पादन’ पुस्तक का लोकार्पण एवं परिचर्चा।
आपका अखबार ब्यूरो।
इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र (आईजीएनसीए) के कलानिधि विभाग द्वारा प्रो. वसन्तकुमार म. भट्ट द्वारा लिखित एक अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक ‘पाण्डुलिपि एवं समीक्षित पाठ-सम्पादन (अभिनव परम्पराओं के साथ)’ का लोकार्पण समारोह एवं परिचर्चा का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता आईजीएनसीए के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने की, जबकि मुख्य अतिथि थे महर्षि वाल्मीकि संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. रमेश चन्द्र भारद्वाज। इनके अतिरिक्त, पुस्तक के लेखक प्रो. वसन्तकुमार म. भट्ट, कलानिधि प्रभाग के अध्यक्ष एवं डीन (प्रशासन) प्रो. रमेश चन्द्र गौड़, पुस्तक के सह-सम्पादक डॉ. कीर्तिकांत शर्मा और श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के शोध विभाग के अध्यक्ष प्रो. शिव शंकर मिश्र ने भी अपने विचार प्रस्तुत किए।
इस अवसर पर डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने पांडुलिपि विज्ञान को अकादमिक जगत के बाहर भी व्यापक चर्चा में लाने की आवश्यकता पर जोर दिया और इस पुस्तक को इस क्षेत्र में एक बहुत ही आवश्यक और प्रासंगिक पुस्तक बताया। उन्होंने कहा कि पांडुलिपियां केवल अभिलेखागारों में दर्ज दस्तावेज नहीं हैं, बल्कि सभ्यतागत ज्ञान का जीवंत भंडार हैं। उनका सक्रिय रूप से अध्ययन किया जाना चाहिए, व्याख्या होनी चाहिए और साझा किया जाना चाहिए। उन्होंने श्रोताओं को भारत सरकार की ‘ज्ञान भारतम’ पहल के बारे में भी बताया, जिसके तहत पारम्परिक ज्ञान परम्पराओं, विशेष रूप से पांडुलिपियों को समकालीन शैक्षिक और सांस्कृतिक ढांचे में एकीकृत करने का प्रयास किया जा रहा है।
उन्होंने कहा, अपनी स्थापना के बाद से ही आईजीएनसीए पांडुलिपि विज्ञान की एक प्रमुख संस्था रही है, जिसने राष्ट्रीय सीमाओं से परे विदेशों में भी- थाईलैंड, मंगोलिया और वियतनाम आदि देशों में महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं। उन्होंने आईजीएनसीए के पांडुलिपि पाठ्यक्रमों के बारे में भी बात की, जो छात्रों और शोधकर्ताओं के बीच क्षमता निर्माण और रुचि पैदा करने के व्यापक प्रयास का हिस्सा हैं। उन्होंने यह भी कहा कि धरोहर को जब तक नई पीढ़ी के लोग नहीं समझेंगे, तब तक इसका कोई लाभ नहीं होगा। पांडुलिपियों के प्रति समाज में भी जागृति आवश्यक है, एक संस्था के करने से कार्य पूरा नहीं होगा।
पुस्तक की प्रशंसा करते हुए प्रो. रमेश चन्द्र भारद्वाज ने कहा, ये इतनी महत्त्वपूर्ण है कि देश के भविष्य का निर्माण करने वाली पुस्तक है, क्योंकि लाखों-लाखों पाण्डुलिपियां पड़ी हैं भारत में, उनके उद्धार का काम युवा पीढ़ी करेगी और उसको इसे (पुस्तक को) आदर्श मानना पड़ेगा। ये वह पुस्तक है, जिसके आधार पर युवा पीढ़ी को दृष्टि मिलेगी और वे आगे इस दिशा में बहुत काम करेंगे। इसलिए इस पुस्तक को एक आदर्श पुस्तक के रूप में हमें समाज को, राष्ट्र को समर्पित करना चाहिए।
प्रो. वसन्तकुमार म. भट्ट ने पुस्तक पर बात करते हुए भारत में पांडुलिपियों के पाठ-संपादन की प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने कहा, पहले हमारे टीकाकार किसी भी ग्रंथ की टीका लिखने से पहले, अलग-अलग प्रदेशों से अलग-अलग पांडुलिपियां एकत्र करते थे। इससे पूर्व, प्रो. रमेश चन्द्र गौड़ ने स्वागत भाषण देते हुए कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की। उन्होंने अतिथियों का स्वागत किया और पांडुलिपि अध्ययन के संदर्भ में पुस्तक विमोचन के महत्व पर प्रकाश डाला।
यह पुस्तक भारतीय पाण्डुलिपि परम्परा, पाठ-सम्पादन की विविध विधाओं तथा समीक्षित पाठ की समकालीन प्रासंगिकता पर एक महत्वपूर्ण अध्ययन प्रस्तुत करती है। लोकार्पण के साथ-साथ आयोजित परिचर्चा में भारतीय ज्ञान परम्परा के संरक्षण, अध्ययन और पुनर्पाठ की आवश्यकताओं पर गहन विमर्श हुआ।