प्रत्यक्षदर्शियों की आंखों देखी पर आधारित पुस्तक ‘विभाजन: टीस और सीख’  के कुछ अंश।

#santoshtiwariडॉ. संतोष कुमार तिवारी।
अभी हाल में पहलगाम कश्मीर में 28 हिन्दुओं की मुस्लिम आतंकवादियों ने हत्या कर दी। ये हत्याएं सिर्फ इसलिए की गईं क्योंकि ये लोग हिन्दू थे। इसके बाद देश में तमाम जगहों पर इन हत्याओं के विरोध में प्रदर्शन हुए और दो मिनट मौन रखा गया।

परन्तु क्या आगे से ऐसे हत्याकांड नहीं होंगे? ऐसी कोई गारंटी नहीं है। लेकिन हत्याओं से हम कुछ सीख जरूर सकते हैं। सबसे बड़ी सीख है कि हम एक रहें। सतर्क रहें। जरूरत पड़ने पर हर स्थिति से निपटने के लिए तैयार रहें।

एक पुस्तक है ‘विभाजन: टीस और सीख’। इसमें उन कुछ लोगों के बयान दर्ज हैं जिन्होंने भारत के विभाजन का दर्द झेला है उसको अपनी आँखों देखा है। अब ऐसे बहुत कम लोग बचे हैं, फिर भी इनको ढूढ़ कर इनके बयानों को टेप किया गया और फिर इस पुस्तक में दर्ज किया गया। उन बयानों में से सिर्फ तीन चार को उदहारण के लिए यहां नीचे दिया जा रहा है।

‘सों में सवार सभी हिंदुओं को मार दिया

इस पुस्तक के पृष्ठ 46-47 में चेलाराम पुपरेजा का बयान दर्ज है जोकि तब मरदान, पाकिस्तान में रहते थे।  उन्होंने बताया:

भारत विभाजन के समय मेरा परिवार मरदान जिले के रेदा में रहता था। मेरा विवाह हो चुका था। उन दिनों मेरी मैट्रिक की परीक्षा चल रही थी। मरदान के खालसा स्कूल में परीक्षा केंद्र पड़ा था। एक दिन जब हम लोग परीक्षा दे रहे थे, तब स्कूल के बाहर मुसलमानों का एक जुलूस आया। उसमें लोग ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’, ‘अल्लाह-हू-अकबर’ के नारे लगा रहे थे। इससे भीतर परीक्षा केंद्र में हिंदू विद्यार्थी डर गए। परीक्षा समाप्त होने के बाद सभी हिंदू छात्र एक कमरे में बैठे। जब वहां से मुसलमानों की भीड़ चली गई तब हम लोग बाहर निकले और घर पहुंचे।

तब वहां हिंदू-मुसलमानों की पोशाकें एक-सी होती थीं। सभी सलवार पहनते थे, लेकिन चेहरे से पहचान में आ जाते थे। बिगड़े माहौल के दिनों में मैं एक दिन किसी जरूरी काम से बाजार गया। कुछ मुसलमान मेरे पीछे पड़ गए। मैं तेजी से भागकर एक मुस्लिम की दुकान में घुस गया। उन्हें लगा कि मैं भी मुसलमान हूं और वे वहां से चले गए, तब में घर लौटा।

एक दिन गांव के सारे मुसलमान हिंदुओं के पीछे पड़ गए। उन लोगों ने मार-काट शुरू कर दी। इसके बाद हम लोगों ने गांव छोडने का निर्णय लिया। जब हम गांव छोड़ रहे थे, तब वहां कुछ मुसलमान आए और कहने लगे कि एक बार में जितना सामान ले जा सकते हो, ले जाओ, कुछ गिर जाए तो उठाना नहीं। ऐसी विचित्र बात सुनकर हम लोग दंग रह गए, लेकिन और कोई रास्ता भी नहीं था। हम लोगों ने उनकी बात मान ली। इसके बाद मेरे भाई ने कुछ सामान उठाया, पर उनके हाथ से वह छूट गया। इस पर मुसलमानों ने उन पर हमला कर दिया। मेरे परिवार के लोग घायल भाई को लेकर गांव से निकले और मरदान स्थित शरणार्थी शिविर पहुंचे। मरदान के बाद हम रावलपिंडी पहुंचे। वहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने जगह-जगह पानी, खाने की व्यवस्था कर रखी थी। इसके साथ ही स्वयंसेवक हमलावर मुसलमानों का भी मुकाबला कर रहे थे। इस कारण उस समय रावलपिंडी में बहुत सारे हिंदुओं की जान बची।

आज भी मैं एक घटना को भूल नहीं पाता। मेरी ससुराल के गांव के कुछ लोग छह बसों में बैठकर जा रहे थे। उसमें एक मेरा साला था। बसों का काफिला अभी कुछ दूर ही गया था कि उस पर मुसलमानों ने हमला कर दिया। इसमें मेरे साले को छोड़कर सभी हिंदू मारे गए। मेरा साला एक सीट के नीचे छिप गया। बाद में उस पर उनकी नजर गई। वे लोग उन्हें निकाल कर मारने लगे, तभी एक बुजुर्ग मुसलमान सामने आया और कहा कि इसे क्यों मार रहे हो, यह तो मेरा बच्चा है। इसके बाद हमलावरों ने उसे नहीं मारा। एक दूसरी घटना बहुत ही दिल दहला देने वाली है। पाकिस्तान के गुजरात से एक रेलगाड़ी भारत के लिए चली। उस पर मुसलमानों ने हमला कर दिया। पहले जितनी लड़कियां थीं, उन्हें अपने कब्जे में ले लिया और बाकी सारे हिंदुओं को मार दिया। आज भी जब ऐसी घटनाएं याद आती हैं, तो नींद टूट जाती है।

70 years of independence: Partition survivors recall bloodshed that killed  over a million - India Today

तीन मौसेरी बहनों ने चुनी मौत

इस पुस्तक के पृष्ठ 48-49 पर प्रेमनाथ रावल (चक हाफसाबाद, मुलतान, पाकिस्तान) का बयान दर्ज है। श्री रावल ने बताया:

आज 75 वर्ष बाद भी मैं उस घटना को नहीं भूल पाता, जिसमें मेरी तीन मौसेरी बहनों ने कुएं में कूद कर जान दे दी। जब मुसलमानों ने हमारी मौसी के घर हमला किया तो उन लोगों ने उनकी तीनों बेटियों के साथ बहुत ही बुरा व्यवहार किया। जब मुसलमान चले गए तो तीनों बहनों ने अपने माता-पिता से कहा कि तलवार उठाएं और हमें मार दें। इस बात से उनके माता-पिता बहुत विचलित हुए, फिर भी उन्होंने तीनों को समझाने का प्रयास किया। लाख समझाने पर भी वे नहीं मानीं। इसके बाद उन तीनों ने सबकी नजरों से बचते हुए घर के पास ही एक कुएं में छलांग लगा दी। आप समझ सकते हैं कि उनके साथ क्या हुआ होगा।

जब यह घटना घटी, उस समय मैं अपने माता-पिता के साथ मुलतान के शिविर में था। उस समय मैं साढ़े आठ साल का था। मेरा परिवार मुलतान जिले के चक हाफसाबाद में रहता था।

बड़े गांव में एक ही हिंदू घर था और वह मेरा था। मेरे पिताजी पटवारी थे। इस कारण उनके विरोधी भी बहुत थे। 15 अगस्त, 1947 के बाद की घटना है। एक दिन हमारे गांव का एक मुसलमान जबरन मेरे घर में घुस गया और कहने लगा, “पटवारी निकलो, आज तुम्हें बताता हूं कि मैं कौन हूं।”

आवाज सुनकर और कुछ लोग आए और उन्होंने उसे समझा-बुझाकर वापस कर दिया। हम लोग डर के साये में 10 दिन रहे। इसी दौरान पता चला कि भारतीय सेना जगह-जगह फंसे हिंदुओं को निकालकर भारत ले जा रही है। उन दिनों भारतीय सेना भी हमारे जैसे परिवारों को ढूंढती रहती थी। जब सेना को हमारे बारे में पता चला तो कुछ मराठा सैनिक गाड़ी लेकर हमारे गांव आ गए। उन्होंने हमें तुरंत सामान बांधने को कहा और छह-सात घंटे के अंदर मुलतान के शिविर में छोड़ दिया।

वहां पर हम 15 दिन रहे। वहां भी रोज मार-काट होती थी। जो भी व्यक्ति शिविर से बाहर जाता, वह कभी नहीं लौटता। मुलतान में जिस रेलगाड़ी पर हमें चढ़ना था उसमें जबर्दस्त भीड़ थी। इसलिए हम लोग उसमें नहीं चढ़े। बाद में पता चला कि रास्ते में उस गाड़ी के ज्यादातर लोगों को मार दिया गया। फिर हम अपने शिविर में लौट गए। तीन-चार दिन बाद माहौल थोड़ा ठीक हुआ तो हम लोगों ने लाहौर जाने वाली गाड़ी पकड़ ली। रास्ते में बेवजह अनेक स्थानों पर गाड़ी रुकने लगी तो पता चला कि चालक मुसलमान है। इससे गाड़ी में बैठे सभी लोग डर गए। इसी डर के बीच आगे कुछ मुसलमानों ने गाड़ी को रोक लिया। वह घंटों खड़ी रही और हम लोग अंदर दुबके रहे। फौजी कार्रवाई के बाद गाड़ी चली और हम लोग पहले लाहौर और उसके बाद अटारी पहुंचे। बाद में भारत में पिताजी की नौकरी लगी और हम लोगों की पढ़ाई हुई। मैं सेना के इंजीनियरिंग विभाग में कई साल तक अधिकारी रहा। अब समय काटने के लिए कुछ समाज सेवा कर लेता हूं।

मेरे चाचा को जिंदा दबाकर मार दिया

इस पुस्तक के पृष्ठ 74-75 पर श्री गणपतराय सतीजा (नौतक, मियांवाली नगर, पाकिस्तान) का बयान है:

बहुत ही भयानक दौर था वह। उस वक्त मैं सरकारी स्कूल में चौथी कक्षा में पढ़ता था। मेरे गांव का नाम नौतक है, जो मियांवाली नगर को बक्खर तहसील में है। 1947 में गांव में 70 प्रतिशत मुसलमान और 30 प्रतिशत हिंदू थे। गांव में मस्जिद थी, पर मंदिर नहीं था। 1946 में मेरे घर के सामने ही एक मंदिर बना था, पर 1947 में उसको तोड़ दिया गया। मेरे पिताजी आढ़ती थे। जब पाकिस्तान बन गया तब मुसलमान हिंदुओं को लूटने और मारने लगे। उन्होंने हर हिंदू को लूटा और अनेक को तो जान से ही मार दिया। उस समय मेरे चाचाजी 30 साल के थे। मुसलमानों ने उनको एक दिन दोपहर के समय पकड़ लिया और बोला कि मुसलमान बन जाओ तो तुम्हें छोड़ देंगे। चाचाजी ने कहा कि मैं मुसलमान नहीं बनूंगा। इसके बाद उन्हें तपती रेत के अंदर जिंदा दबाकर मार दिया गया।

मुझे अच्छी तरह याद है 14 अगस्त, 1947 को जब पाकिस्तान बना तो गांव के मुसलमानों के साथ-साथ हिंदुओं ने भी खुशियां मनाई। लेकिन दूसरे ही दिन मुसलमानों ने अनेक हिंदुओं को मार दिया। बाकी हिंदुओं को गांव से बाहर नहीं जाने दिया जा रहा था। सबको कहा जा रहा था कि मुसलमान बन जाओ।

1 सितंबर, 1947 को गांव के कुछ मुसलमानों ने कहा कि बाहर से लुटेरे आ रहे हैं और यह भी कहा कि महिलाओं को पीर की हवेली में छोड़ दो। डर के मारे लोगों ने ऐसा ही किया। कुछ देर बाद हमलावर आए और उन्होंने सब्जी की तरह हिंदुओं को काट दिया। मेरे परिवार के लोग ऐसी जगह छिपे थे कि वे हमें देख नहीं पाए। इसलिए हम बच गए। हमलावरों ने पीर की हवेली के दरवाजे भी खुलवाए और ज्यादातर हिंदू महिलाओं को अपने साथ ले गए। बाकी हिंदू दूसरे दिन गांव से जाने लगे तो मुसलमान तलवारें लेकर आ गए और एक बार फिर से हिंदुओं पर टूट पड़े। उस दिन भी बहुत हिंदू मारे गए। जो बचे, वे नंगे पांव और खुले बदन तहसील बक्खर पहुंचे। वहां संघ के (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के) स्वयंसेवकों ने हमारी बड़ी मदद की। बक्खर में एक महीना रहे। फिर मियांवाली नगर लाए गए। यहां भी हम पर हमले हुए। अंत में भारत आने के लिए एक दिन रेलगाड़ी में बैठे। रास्ते में गाड़ी में भी काट-मार की गई। हम लोगों के आगे जो गाड़ी भारत जा रही थी उसमें कोई भी जिंदा नहीं बचा था। हमारी गाड़ी में केवल एक चौथाई लोग जिंदा बचे थे। दो दिन बाद किसी तरह जब अटारी पहुंचे तब जान में जान आई। दो दिन के भूखे-प्यासों को अटारी में खाना मिला। यहां से जालंधर कैंप में आए। फिर कुरुक्षेत्र शिविर भेज दिया गया। मेरे पास उस समय एक पैसा नहीं था। कई साल तक कंगाली की हालत रही। बाद में अपनी मेहनत से घर-द्वार बनवाया और बच्चों को भी पढ़ाया। आज बच्चे अमेरिका में हैं।

हिंदुओं को जिंदा आग में फेंका गया

इस पुस्तक के पृष्ठ 94-95 पर श्री रामलाल (कोटली, पाकिस्तान) का बयान है:

बात 1946 की है। मैं कोटली में रहता था और मेरी उम्र करीब 22 साल थी। उन दिनों उर्दू का अखबार ‘प्रताप’ कोटली, मुलतान जैस नगरों में बहुत ही प्रसिद्ध था। उस अखबार में बराबर ऐसे लेख छाते थे कि पुलिस विभाग में अधिकतर मुसलमान हैं। हिंदू युवाओं को भी पुलिस में भर्ती होना चाहिए। चूंकि मैं पुलिस में जाने की अर्हता रखता था, इसलिए मैंने तय किया कि अब पुलिस में ही जाना है। कुछ समय बाद पुलिस की भर्ती निकली तो मैंने आवेदन कर दिया। दिसंबर, 1946 में मैं पुलिस में भर्ती हो गया। इसके प्रशिक्षण के लिए पहले मुलतान गया और कुछ दिन बाद लाहौर। लाहौर में प्रशिक्षण लेते हुए कुछ ही दिन हुए थे कि एक रात मुसलमान और हिंदू पुलिसकर्मियों में झगड़ा हो गया। कुछ हिंदू पुलिसकर्मियों की पिटाई कर दी गई। चूंकि पुलिस में मुसलमानों का ही दबदबा था इसलिए उस झगड़े को मुसलमान अधिकारियों ने गंभीरता से नहीं लिया। इसके बाद सभी हिंदू पुलिसकर्मियों ने लाहौर में प्रशिक्षण लेने से मना कर दिया। इसके साथ ही हिंदू पुलिसकर्मियों ने बड़े अधिकारियों से निवेदन किया कि प्रशिक्षण के लिए उन्हें अमृतसर भेज दिया जाए या फिर साथ में रायफल रखने की इजाजत मिले। यह निवदेन छोटे से लेकर बड़े अधिकारियों तक से किया गया, लेकिन उन्होंने साफ मना कर दिया। अंत में अधिकारियों ने तय किया कि सबको 15 दिन की छुट्टी दे दी जाए और फिर ऐसा ही हुआ। छुट्टी मिलते ही सभी अपने-अपने घर चले गए। मैं भी कोटली आ गया।

कोटली के पास ही रामपुर नाम से एक कस्बा है। मेरे कोटली पहुंचने के कुछ दिन बाद ही वहां एक रात बलवा हो गया।

मुसलमान वहां के हिंदुओं को मारने लगे। हालत कितनी भयावह थी, उसका एक बहुत ही हृदयविदारक उदाहरण है।

मुसलमानों ने एक जगह आग लगा रखी थी और जो भी हिंदू मिलता था जिंदा या मरा, उसे आग में डाल दिया जाता था। इसके बाद तो स्थिति और भयावह होने लगी थी। पुलिस हिंदुओं की सुनती ही नहीं थी। इस कारण हिंदू पलायन कर भारत आने लगे। मैंने भी अपने घर के सारे लोगों को भारत भेज दिया। चूंकि मैं पुलिस में था इसलिए मेरी जान को कम खतरा था और मुझे पुलिस की वर्दी लाहौर में वापस करनी थी इसलिए मैं अपने परिवार के लोगों के साथ भारत नहीं आया।

एक दिन मैं वर्दी लौटाने के लिए लाहौर पुलिस लाइन जा रहा था, तभी राजू पैलेस के बाहर पुलिस लाइन में खाना बनाने वाला रसोइया मिल गया। उसने मुझसे पूछा कि कहां जा रहे हो। मैंने बताया तो उसने कहा कि अंदर बिल्कुल मत जाना। माहौल खराब है। हिंदू पुलिसकर्मियों को मारा जा रहा है। इसके बाद मैं वर्दी लौटाए बिना वापस हो गया। उस समय मुझे भी लगा कि अब यहां रहना ठीक नहीं है और मैंने भी लाहौर से अटारी आने वाली गाड़ी पकड़ ली। रास्ते में राजाराम नाम से एक रेलवे स्टेशन पड़ता है। मैंने देखा कि उस स्टेशन का नाम बदल कर राजेशाह स्टेशन कर दिया गया था।

(पुस्तक: ‘विभाजन: टीस और सीख’, संपादक: हितेश शंकर, पृष्ठ: 287, प्रकाशक: भारत प्रकाशन (दिल्ली) लिमिटेड)

(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं)