अगर नहीं गए हैं तो ज़रूर जाइए।

अशोक झा ।
एवरेस्ट बेस कैम्प के बारे में मैं क़रीब सात-आठ साल पहले सुना था। और जैसे सुना था वैसे ही उसे भुला दिया। इसका कारण यह था कि वहाँ कभी जा सकते हैं, ऐसी कभी कल्पना ही नहीं की थी। एवरेस्ट के आसपास हमारे जैसे लोग भी जा सकते हैं यह विचार ही सोच के बाहर था। हमारे आसपास ऐसे लोग भी नहीं थे जिनसे इस बाबत कभी बात हो। एवरेस्ट कभी किसी चर्चा में ही नहीं रहा।

वैसे ट्रेकिंग के बारे में पढ़ता रहता था और ट्रेकिंग पर जाने की ललक थी। पर इस बारे में कभी गंभीरता से कोई कोशिश नहीं की।

ट्रेकिंग के रूप में एक अवसर आया जब परिवार में वैष्णो देवी की यात्रा का मौक़ा आया। मैं भी इन श्रद्धालुओं के साथ हो लिया। मुझे एक ही लालच थी कि पहाड़ पर ट्रेकिंग का मौक़ा मिलेगा। यह अपनी पीठ थपथपाने जैसी बात नहीं है पर पूरी चढ़ाई के दौरान मैं एक बार भी कहीं नहीं बैठा। चढ़ने से ज़्यादा मुश्किल काम हमेशा ही ऊँचाई से उतरना होता है जब आपके घुटने में इंजुरी की आशंका अधिक होती है। सो उतरने के दौरान सावधान था और बिना किसी विशेष परेशानी के हम पहाड़ से नीचे उतरने में सफल रहे।

एवरेस्ट बेस कैम्प ट्रेकिंग के लिए जाने से पूर्व जनवरी के पहले सप्ताह में हम मसूरी में थे और वहाँ हमने ट्रेकिंग का जमकर अभ्यास किया।

फिर पिछले साल अक्टूबर में पुणे के हमारे दोस्त दिल्ली मैराथन दौड़ने आए तो उन्होंने एवरेस्ट बेस कैम्प जाने की बात छेड़ी। मैंने उन्हें बताया कि मेरी ओर से हाँ है। उन्होंने हमें बताया कि जब रजिस्ट्रेशन शुरू होगा वे हमें बताएँगे पर इतना आश्वासन दिया कि हम जाएंगे ज़रूर।

महाराष्ट्र अपेक्षाकृत संपन्न राज्य तो है ही, वह बहुत क्षेत्रों में देश के अन्य राज्यों से कहीं आगे है। ट्रेकिंग भी इनमें से एक है। यह भी संयोग की बात है कि महाराष्ट्र में कोंकण क्षेत्र में पश्चिमी घाट और पुणे के नज़दीक लोनावला ट्रेकिंग के लिए बहुत ही अच्छी जगह है। दिल्ली में ट्रेकिंग के लिए लोगों को उत्तराखंड या हिमाचल जाना पड़ता है जो वैसे तो बहुत ज्यादा दूर नहीं है पर वहाँ जाने के लिए प्लान तो बनाना ही पड़ता है। बिहार के लोगों के लिए यह एक बड़ी समस्या है। बिहार में अगर कहीं पहाड़ है तो वह भी दक्षिण बिहार में गया या कैमूर क्षेत्र में है पर मुझे पता नहीं कि इन पर ट्रेकिंग होती है कि नहीं। इस दृष्टि से देखें तो बिहार में ट्रेकिंग की चर्चा का पूरी तरह अनुपस्थित होना कोई अचरज पैदा नहीं करता।

पर महाराष्ट्र में ट्रेकिंग और फिर एवरेस्ट बेस कैम्प या एवरेस्ट पर चढ़ने को लेकर लोगों में काफी उत्साह है। मुझे बेस कैम्प जाते हुए जितनी संख्या में महाराष्ट्र के लोग दिखे उससे तो यही लगता है कि यहाँ महाराष्ट्र से सबसे ज़्यादा लोग आते हैं।

वैसे नेपाल से सटे बिहार और उत्तर प्रदेश के मैदानी इलाक़े के लोगों की गाड़ी काठमांडू में दिखना बड़ी बात नहीं है। पर ये लोग अपनी कार से काठमांडू सिर्फ सैर सपाटे और मौज मस्ती के लिए जाते हैं। ट्रेकिंग के लिए नहीं।

तो दिसंबर में हमारा रजिस्ट्रेशन हो जाने के बाद एवरेस्ट बेस कैम्प जाना पक्का हो गया। इसके बाद हम इसकी तैयारी में लग गए।

तैयारी दो तरह की थी – एक तो वहाँ ले जानेवाली चीज़ों को जुटाने की और दूसरा फ़िटनेस का। सामान में मुख्य रूप से गर्म कपड़े, जैकेट और ट्रेकिंग शूज़ शामिल थे। हमें किस तरह के कपड़े और कितने ले जाने हैं इसका ब्योरा एजेंसी ने दे दिया था। एजेंसी में हमारे संपर्क सूत्र और काठमांडू से हमारे समूह के मार्गदर्शक ने हमें यह भी बताया था कि हमें फ़िटनेस बनाए रखने के लिए क्या करना है। मैराथन दौड़ने की वजह से ज़्यादा ऊँचाई पर साँस लेने में दिक्कत होने जैसी समस्या हमें नहीं पेश आनेवाली थी। पर ऊँचाई पर चढ़ने या उतरने का अभ्यास हमें एकदम नहीं था। इसके लिए हमें हर दिन कम से कम पाँच मंज़िल तक पाँच किलो वजन के साथ पाँच से दस बार चढ़ने का अभ्यास करने की हिदायत दी गयी थी। ऐसा आठ से दस सप्ताह तक करना था। हमें ट्रेकिंग के दौरान अपने ज़रूरी सामानों को ख़ुद ही ढोना पड़ेगा ऐसा बताया गया था। शेष सामान डफ़ल बैग में याक एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव पर ले जाते थे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)