दुनिया का सबसे ख़तरनाक हवाई अड्डा।
अशोक झा !
हमें अपने खर्चे पर अपने अपने स्थान से काठमांडू पहुँचना था और वापसी भी काठमांडू से अपने खर्चे पर ही करना था। काठमांडू से आगे ट्रेकिंग एजेंसी की सारी ज़िम्मेदारी थी।
पर ऐसा नहीं है कि सारे लोग एजेंसी के ज़रिए ही जाते हैं। डेंगबोचे में हमें महाराष्ट्र के अकोला के चार युवक मिले जो बिना किसी शेरपा या गाइड की मदद लिए ही बेस कैम्प जा रहे थे। वे अपना सारा सामान भी ढो रहे थे।
एवरेस्ट बेस कैम्प (ईबीसी) जाने के लिए ट्रेकिंग की शुरुआत लुकला से होती है और लुकला में आकर ही समाप्त होती है। काठमांडू से चार-पाँच घंटे की सड़क मार्ग से यात्रा कर रामेछाप आना होता है जहाँ से एक छोटी फ़्लाइट से ट्रेकर्स लुकला पहुँचते हैं।
तो पहले दो शब्द लुकला के बारे में। नेपाल के कोशी प्रांत में सोलुखंबु ज़िला में स्थित लुकला वास्तव में खुंबु पासंग लहमु ग्रामीण इलाक़े का हिस्सा है। नेपाली में लुकला का अर्थ है भेड़ बकरियाँ। कभी इस इलाक़े में ये बहुतायत में रहते होंगे पर अब विरले ही दिखते हैं।
लुकला से काठमांडू तक पहुँचने का एकमात्र ज़रिया है लुकला और रामेछाप के बीच छोटी फ़्लाइट। मौसम के मिज़ाज के सही रहने पर दो इंजनोंवाला डोर्नियर 228 और द हाविलार्ड कनाडा ट्वीन ओट्टर्स विमान लुकला से काठमांडू पहुँचने का एकमात्र ज़रिया हैं। ये विमान कैसे हैं इसका अंदाज़ा आपको तबतक नहीं लगेगा जबतक आप इसमें यात्रा नहीं करते। एक पायलट, एक सह-पायलट और एक विमान परिचारिका, सिर्फ तीन लोगों का क्रू होता है 18 सीटों वाले इस विमान में। लुकला और रामेछाप में इन विमानों के लिए एक छोटी सी हवाई पट्टी तैयार की गयी है। रामेछाप में यह हवाइपट्टी पहाड़ों के बीच एक छोटी सी समतल जगह पर है। उड़ान भरने के बाद अचानक यह खिलौना विमान पहाड़ों के रू-ब-रू हो जाता है। शुरू में उन्हीं के बीच से गुजरता हुआ बाद में थोड़ी ऊँचाई प्राप्त करता है।
लुकला में हवाई पट्टी पहाड़ की ऊँचाई पर बना है। अपनी छोटी सी हवाई पट्टी को छोड़ने के बाद विमान सीधे घाटी में होती है। यहाँ भी इस खिलौना विमान को पहाड़ों के बीच से गुजरते हुए ऊँचाई प्राप्त करनी होती है। फ़्लाइट का समय बमुश्किल 17-18 मिनट है। पर इतना वक़्त भी ऊपर गुज़ारना हर दिल पर कितना भारी पड़ता है इसका अंदाज़ा तब लगता है जब सफल लैंडिंग के बाद तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई देती है।
यह दुनिया का सबसे ख़तरनाक हवाई अड्डा है।
ईबीसी से लौटते हुए नामचे बाज़ार से शाम को लुकला पहुँचने पर हमने लुकला के एक छोटे से होटल में अभियान की सफलता पर जमकर ख़ुशियाँ मनायी। यह स्वाभाविक सी ख़ुशी थी जिसमें मानव प्रयास की सीमाओं की स्पष्ट स्वीकारोक्ति थी।
इसी लुकला हवाई अड्डे पर अपने विमान के उड़ने की प्रतीक्षा करते हुए हम अपने एक दोस्त और सहयात्री से यह चर्चा कर रहे थे कि प्रकृति के समक्ष मानव कितना निस्सहाय है। मौसम के आगे हम विवश थे। लुकला में ख़राब मौसम के कारण विमान उड़ान के 21 दिनों तक नहीं उड़ने का रिकार्ड रहा है। जिस दिन हमें उड़ना था उस दिन मौसम खराब हो गया। उड़ान मौसम के ठीक होने तक संभव नहीं था। ऐसी स्थिति में लुकला से बाहर निकलने का एकमात्र ज़रिया था हेलिकॉप्टर। और इसका किराया था 500 डॉलर। यह कोई छोटी रक़म नहीं थी। हमने मौसम के सुधरने तक इंतज़ार करना मुनासिब समझा। यह भी कहा गया कि अगर मौसम साफ नहीं होता है तो डिमांड के अनुरूप हेलिकॉप्टर का किराया भी बढ़ेगा।
लुकला-रामेछाप के बीच तीन निजी एयरलाइंस अपना विमान चलाती हैं – तारा, समिट और सीता एयरलाइंस। हमारा टिकट तारा एयरलाइंस का था। रामेछाप से पहला विमान आया और लोगों ने तालियाँ बजायीं। हम अपनी बारी की उम्मीद लगाए बैठे रहे। शाम को हमें बोर्डिंग पास जारी किया गया। रामेछाप से फ़्लाइट वापस भी आयी पर हमें कहा गया कि अब आज़ कोई फ़्लाइट नहीं जाएगी। अब कल ही जाना संभव होगा। हम अपने ग्रूप में सभी भारतीय थे और हमीं लोग पीछे छूट गए थे। कोई गोरा या विदेशी पासपोर्टधारी भारतीय नहीं बचा था। यह एक ऐसा प्रश्न था जिसका उत्तर हमने जानने की कोशिश की पर स्पष्ट रूप से कुछ भी पता नहीं चला। एक संभव सा उत्तर यह सुनने में आया कि टिकट के लिए जिसने जितनी ज़्यादा क़ीमत चुकायी उसको उतना ज़्यादा प्रेफ़ेरेंस मिला।मजबूरन हमें लुकला में एक रात और गुज़ारनी पड़ी जो हमें काठमांडू में गुज़ारनी थी।
दूसरे दिन हम सुबह पाँच बजे लुकला हवाई अड्डे पर पहुँच गए और वही विमान हमें लेकर रामेछाप पहुँचा जो रात में वहाँ विश्राम कर रहा था। रामेछाप से पाँच घंटे की कार यात्रा के बाद हम काठमांडू पहुँचे जहाँ हमारे अभियान की पूर्णाहुति हुई।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)