छोटी दृष्टि वालों को विराट इतिहास नहीं दिखता।

डॉ. सुधांशु त्रिवेदी।
जब विषय ‘इतिहास के संदर्भ में भारतीयता’ हो तो सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि भारत अपने आप में दुनिया का एक अनूठा देश है। दुनिया के बाकी देश इतिहास बन गए, लेकिन भारत कभी इतिहास नहीं बना। वो इतिहास के अनादि काल से आज तक जीवंत चला आ रहा है। हम एकमात्र मौजूद सभ्यता हैं, जो प्राचीन विश्व से लेकर अब तक निरन्तर चली आ रही है। जिसके लिए अटल जी ने अपनी कविता की एक पंक्ति में कहा था कि-‘दुनिया का इतिहास पूछता रोम कहां, यूनान कहां है/ घर घर में शुभ अग्नि जगाता वो उन्नत ईरान कहां है/ दीप बुझे पश्चिमी जगत के छाया जब बरबर अंधियारा/ तभी चीरकर तम की छाती चमका हिंदुस्तान हमारा।’

तो सदैव इतिहास के ज्ञात और अज्ञात काल से जिस प्रकार का एक संदेश और दृष्टि भारत देता रहा है, वह तो अद्भुत है ही, पर पहले हमें भारत के बारे में इतिहास की दृष्टि समझ लेनी चाहिए। इतिहास की भारत की व्याख्या और पश्चिम की व्याख्या में बुनियादी फर्क है। पश्चिम कहता है कि इतिहास ज्ञान की वह शाखा है, जो आपको अतीत में घटित किसी घटना के बारे में बताता है कि वास्तव में क्या घटित हुआ तथा कब और किस समय घटित हुआ।

अगर इस परिभाषा को देखें, तो युवा वर्ग कहता है कि इससे हमको क्या मतलब है भई कि 300 साल पहले क्या हुआ था, 3000 साल पहले क्या हुआ था? उसका हमारे ऊपर क्या प्रभाव है? और इसी कारण से परिस्थिति बनती है कि इतिहास को एक नीरस और एक अनुपयोगी विषय के रूप पर प्रस्तुत कर दिया गया।

परंतु हमारे यहां कहा गया, इतिहास वह है, जो पूर्व काल में हुई घटना को उस रूप में प्रस्तुत कर सके, जो वर्तमान समय में समाज के जीवन मूल्यों को स्थापित करने और बढ़ाने में भूमिका निभा सके। इसलिए हमारा इतिहास श्रीरामलीला है। हमारा इतिहास रामायण और महाभारत है। इसीलिए प्रतिवर्ष रामलीला होती है, ताकि बच्चों को वह जीवन के मूल्य दे सकें।

राम कब हुए और किस जगह पर हुए, कितने वर्ष पूर्व हुए, इसका पूरा इतिहास हमारे पास है, परंतु हमारे लिए वो इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। राम ने क्या किया और आज के समाज में उसको किस रूप में उतारा जा सकता है, यह अधिक महत्त्वपूर्ण है। पश्चिम के हिसाब से देखें तो जूलियस सीज़र ने ईसा पूर्व 40 या ईसा पूर्व 60 में इंग्लैंड पर आक्रमण किया था, आज इसका क्या महत्व है? परंतु यदि राम ने अपने पिता के कहने पर राजपाट छोड़ दिया, तो दुनिया की सभ्यताओं के उस इतिहास में, जहां भाई-भाई का गला काट कर गद्दी पर बैठा बेटा बाप को मारकर गद्दी पर बैठा, उसकी तुलना में निश्चित रूप से हमारे लिए एक अनुकरणीय उदाहरण दिखाई पड़ता है। यह इतिहास की हमारी सोच और उनकी सोच में बहुत अंतर है। और कई बार क्या होता है कि हमारे यहां मूल्यों की प्रधानता इतिहास में होने की वजह से उन्हें वह इतिहास नजर नहीं आता। यहां पश्चिम की सोच और हमारी सोच में अंतर हो जाता है। मैं यह इसलिए भी कहना चाहता हूं गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस के अंत में लिखा है- कहत परम पुनीत इतिहासा/ श्रवणहि होत सकल भ्रम नासा।

यानि एक ऐसा परम पवित्र इतिहास है, जिसको सुनने मात्र से समस्त भ्रम का नाश हो जाता है। तो, समस्त मन के भ्रम का नाश करना हमारे इतिहास का उद्देश्य है।

अब दूसरी प्रॉब्लम क्या आती है? वह कहते हैं कि साहब पुरातात्त्विक साक्ष्य (आर्कियोलॉजिकल एविडेंस) नहीं दिख रहा है। उसका कारण यह है कि उनकी बुद्धि छोटे इतिहास तक ही सीमित है। किसी का इतिहास 2,000 साल, किसी का 3,000 साल है। ईलियड-ओडिसि से पहले की तो उनकी कुछ डॉक्यूमेंटेड हिस्ट्री (प्रलेखित इतिहास) ही नहीं है, 1,000-1,200 BC से पहले। इसलिए उनको सब कुछ समेट कर डेढ़ हजार ईसा-पूर्व के अंदर में लाना है। वेदों को उसी में लाना है, रामायण-महाभारत को उसी में लाना है, बौद्ध ग्रंथों को भी उसी में लाना है। इलियड-ओडिसी से पीछे कुछ नहीं जाना चाहिए। अब किसी का कहना है कि दुनिया ही 7,000 साल पहले हुई थी और कोई जो कहता है कि दुनिया ही 7,000 साल पहले की है, तो दुनिया को सात हजार साल से पहले का मानेगा कैसे? अगर नासा अपने प्लेनेटोरियम सॉफ्टवेयर में भी निकाल दे कि भगवान राम 7,114 से पूर्व हुए थे और अगर दूसरे ढंग से देखें तो 14,000 वर्ष पीछे जाते हैं। वह जो उनको ग्रहों की गति दिखाता है तो उसको मानने को कैसे तैयार हो सकते हैं। यह उनकी समस्या है। और दूसरा, मैं एक विचार रखना चाहता हूं, चुंकि आप सभी प्रबुद्ध लोग हैं। जो लोग आर्कियोलॉजिकल एविडेंस को बहुत महत्व देते हैं, तो आर्कियोलॉजिकल एविडेंस शॉर्ट टर्म (लघु अवधि) में ही प्रभावी होता है, लॉन्ग टर्म (दीर्घ अवधि) में नहीं। जैसे राम मंदिर के निर्णय के समय हम लोगों के विपक्ष में में जो लोग गलत उद्धरण करने की कोशिश करते हैं, वह यह कहते हैं कि 12वीं शताब्दी से पहले वहां पर कोई मंदिर था, इसका आर्कियोलॉजिकल एविडेंस नहीं है। तो मैं उनसे कहता हूं 6 दिसंबर 92 से पहले वहां पर कोई ढांचा था इसका आज की डेट में कोई आर्कियोलॉजिकल एविडेंस नहीं है। अगर आप डॉक्यूमेंट्री एविडेंसेज (लिखित साक्ष्यों) को नकार दे तो कोई आर्कियोलॉजिकल एविडेंस नहीं है। मगर फिर भी वह आर्कियोलॉजिकल एविडेंस क्यो खोजते हैं। जानते हैं क्यों? कोई लाख कह दे कि मैं वैज्ञानिक हूं। मेरी सोच बड़ी रेशनल (तर्कसंगत) है। वह जिस सभ्यता से निकला होता है, उसके बियॉन्ड (उससे परे) नहीं जाता, क्योंकि वहां अंत में आदमी को जमीन में दफन किया जाता है, तो सबूत भी दफन की जमीन के नीचे खोजने में लगते हैं। हमारे यहां दफन नहीं किया जाता, हमारे यहां मास एनर्जी कन्वर्जन (पिंड ऊर्जा रूपांतरण) होता है और आकाश तत्त्व में चला जाता है। इसलिए हमारे यहां सेलेस्टियल क्लॉक (खगोलीय घड़ी) में इतिहास लिखा रहता है कि जब यह घटना हुई तो यह मुहूर्त था, जब यह घटना हुई तो यह मुहूर्त था। तो हमारे इतिहास के प्रमाण आकाश में है, क्योंकि आकाश तक उनकी दृष्टि नहीं थी, वह जमीन के नीचे ही खोज रहे थे, इसलिए उसी को खोजते रह जाते हैं। दूसरा, शॉर्ट टर्म की हिस्ट्री सिर्फ इससे खोजी जा सकती है।

मैं छोटा-सा उदाहरण दे रहा हूं। किसी जगह पर उल्का पिंड आकर गिर जाए, तो उससे पहले के सारे के सारे आर्कियोलॉजिकल एविडेंस खत्म, अब कुछ भी नहीं मिलेगा। परंतु जो आकाशीय स्थिति है, वह एक लाख साल बाद भी अगर कोई पढ़ पाएगा, तो समझ लेगा। इसीलिए जब वह कहते हैं कि इसका एग्जैक्ट टाइम (सटीक समय) नहीं लिखा हुआ, तो अगर आज की डेट में कोई कहे कि 2 अप्रैल 2025 माने 2.4.25 है और मान लीजिए आज सभ्यता नष्ट हो जाए और 4,000 साल के बाद कोई एक दस्तावेज मिले, जिसपर 2.4.25 लिखा हो तो शायद वह सभ्यता समझ ही नहीं पाएगी कि इन चार अंकों का मतलब क्या है, 2.4.25 का। परंतु हमारे यहां हमेशा सेलेस्टियल क्लॉक में लिखा रहता है कि जब भगवान राम हुए तो यह सूर्य जो था, वह मेष राशि में था, मंगल मकर राशि में था, शुक्र मीन राशि में था। पूरा का पूरा कॉन्फिग्रेशन (विन्यास) लिखा हुआ है। अब यह कोई एक लाख साल बाद भी देख सकता है कि यह कॉन्फिग्रेशन किस टाइम पर था। इसलिए जिन सभ्यताओं का इतिहास छोटा है, वह अपनी छोटी दृष्टि के कारण उन्हीं चीजों को अधिक महत्व देते हैं। जिनका इतिहास विराट है, उनको विराट दृष्टि से देखने की आवश्यकता है। (जारी)

(लेखक भाजपा नेता और राष्ट्रवादी विचारक हैं)

कल दूसरी कड़ी में पढ़िए-
कुतुबमीनार वाले जहां से आए थे, वहां बांस की मीनार भी नहीं बना सके।