कुतुबमीनार वाले जहां से आए थे, वहां बांस की मीनार भी नहीं बना सके।
डॉ. सुधांशु त्रिवेदी।
मैं एक विचार देना चाहूंगा। हमारे इतिहास के साथ कुछ बहुत बड़े षड्यंत्र हुए। आप सब को शायद पता हो कि एक रूसी केजीबी का एजेंट था जो पत्रकार बनकर भारत में 60 और 70 के दशक में रहता था, जिसका नाम था यूरी बेजमेनोव (यूरी एलेक्ज़ेंड्रोविच बेजमेनोव)। उसने कहा कि उसको एक प्रोजेक्ट दिया गया था कि भारत को 50 से 60 साल के बीच में कम्युनिस्ट बनाना है और उस प्रोजेक्ट के चार हिस्से थे। बाद में वह डिफेक्ट करके कैनेडा चला गया और 2005-06 में उसने कनेडियन टीवी को अपने इंटरव्यू में ये सारी बात विस्तार से बताई है। उसने कहा, चार चरणों का हमारा प्रोजेक्ट था। पहला 15 से 20 साल का था, जिसको कहता था ‘स्टेज ऑफ डीमॉरलाइजेशन’ (मनोबल गिराने का चरण) यानी 15-20 साल हमें यह प्रतिपादित करना है कि तुम्हारा सब गलत है। तुम्हारा धर्म गलत है, संस्कृति गलत है, सभ्यता गलत है। तुम्हारे समाज में सिर्फ बुराइयां ही बुराइयां हैं। यह 15 से 20 साल क्यों? इसलिए कि एक जनरेशन प्राइमरी स्कूल से यूनिवर्सिटी में पहुंच जाएगी।
फिर कहता है फर्स्ट स्टेज यानी ‘स्टेज ऑफ डीमॉरलाइजेशन’ और फिर सेकंड स्टेज- ‘स्टेज ऑफ डिस्टेबलाइजेशन’ (अस्थिरता पैदा करने का चरण)। यानि अब उन मुद्दों को लेकर आंदोलन खड़े करो, 15 से 20 साल। क्यों? इसलिए कि अब दूसरी जनरेशन यूनिवर्सिटी तक आ जाएगी और जो पहली वाली है, वह 35 से 40 साल की उम्र में पहुंच गई होगी। अब वह अस्थिरता पैदा करने में भूमिका निभा सकती है। उसके बाद आता तीसरा चरण, जो है ‘स्टेज ऑफ रिवॉल्यूशन’ यानी क्रांति का चरण। अब उन आंदोलनों को हिंसक क्रांतियों में तब्दील कर दो 15-20 साल में। तो जो पहले वाली जनरेशन 55-60 की हो गई यानि वह शासन करने लायक उम्र में आ गई। और एक तीसरी पीढ़ी भी स्कूल से पढ़कर यूनिवर्सिटी में आ गई। यानी अब आपने लगभग पुराना इतिहास भुलाने का प्रयास संपूर्ण कर लिया। फिर कहता है- उसके बाद आता है चौथा चरण, जो है ‘स्टेज ऑफ नॉर्मलाइजेशन’ यानी सामान्यीकरण का चरण। यानी अब ‘रिजीम’ (शासन व्यवस्था) स्थापित हो गया।
एक बार ‘स्टेज ऑफ नॉर्मलाइजेशन’ आ गया, तो अब किसी को बोलने की आवश्यकता ही नहीं है। सब कुछ खत्म। उसने कहा कि इसके लिए मुझे भारतीय संस्कृति और भारतीय इतिहास का अध्ययन करने को कहा गया और उसका कहना था, ज्यों-ज्यों मैं अध्ययन करता चला गया, मैं भारतीय संस्कृति और इतिहास का मुरीद होता चला गया। मुझे लगा, यह कितनी महान संस्कृति है और हम इसे नष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं।
उसने कहा, मेरे लिए यह इतनी खतरनाक बात थी कि अगर यह मेरी एजेंसी को पता लग जाती तो मुझे सफाई देने का मौका नहीं दिया जाता। उसके लिए शब्द था- स्प्लिट लॉयल्टी (दोहरी वफादारी)। आप जिस देश में नियुक्त हैं, अगर वहां के लिए आपके मन में लॉयल्टी (वफादारी) भी उत्पन्न हो गई तो सीधे एलिमिनेशन (हत्या)। तो वह कहता है कि मैंने उससे बचने के लिए ऊपर से मदद मांगी और यह अनुमति मांगी कि एक भारतीय लड़की से शादी कर सकूं, ताकि मैं उनको (भारतीयों को) ये जस्टिफाई (औचित्य सिद्ध करना) करूं और भारतीय समाज में मेरी स्वीकार्यता अधिक हो। और उसके माध्यम से मैं जितना बचाव कर सकता था, किया।
आज आप समझ लीजिए कि ‘स्टेज ऑफ डिमॉरलाइजेशन’ और ‘स्टेज ऑफ डिस्टेबलाइजेशन’ किस हिसाब से हमारे दिमागों में भरी गई इन वर्षों में, जिसके आप कुछेक उदाहरण बहुत सहज और सामान्य रूप से समझ सकते हैं, जिसके लिए बहुत दिमाग लगाने की आवश्यकता ही नहीं है। ।
एक छोटी-सी बात देखिए, दिल्ली का प्रतीक कुतुबमीनार बताया जाता है। एक तो पहली बात कि कुतुबमीनार वाले जहां से आए थे, वहां बांस की मीनार तो कभी बना नहीं पाए और यहां आकर कुतुबमीनार बना दिया। गजब का तर्क देते हैं। मगर बगल में महरौली का लौह स्तंभ है, जो हमारी मेटलर्जिकल साइंटिफिक सुपरमेसी (धातु विज्ञान की श्रेष्ठता) का प्रतीक है, उसे दिल्ली का प्रतीक नहीं बताया गया। वह महरौली का लौह-स्तंभ 2,300 साल पहले से है और इनके बकौल कुतुबमीनार 12वीं शताब्दी में बनी यानी 1300-1500 साल वहां पर कुछ ऐसे ही खंभा खड़ा हुआ था। बगल की जमीन खाली छोड़ी हुई थी कि यहां कोई आली जनाब आएंगे बाहर से, जिनके हाथ खपच्ची वाली मीनार भी नहीं होगी, वो यहां आकर मीनार तामीर कर देंगे। और 2012 में एक आरटीआई लगाई गई एनसीईआरटी के पास- राजपूत साहब बैठे हैं, उनको इस विषय की बहुत बेहतर जानकारी होगी- जिसमें पूछा गया कि हम सबने पढ़ा है सिलेबस में कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने कुतुबमीनार बनवाई, इसका डॉक्यूमेंट्री एविडेंस (लिखित साक्ष्य) क्या है? तो, एनसीईआरटी ने जवाब दिया हमारे पास इसका कोई डॉक्यूमेंट्री एविडेंस नहीं है। कोई ऐसा कागज तो होना चाहिए, जिसमें लिखा हो कि उसने यह बनाई थी। यह सिर्फ कहानियों, किस्सों के हिसाब से चलता हुआ चला गया।
जरा सोचिए कि यह किस प्रकार का वातावरण हमारे मन में बनाने का प्रयास किया गया। आप खुद सोचिए, जिन लोगों ने बृहदेश्वर का मंदिर बनाया, जो बगैर नींव का मंदिर है; जिन्होंने अजंता-एलोरा की गुफाएं बनाईं, जो अप-साइड डाउन बनी हुई दुनिया की सबसे बड़ी कंस्ट्रक्शन है; वह यह नहीं बना सकते थे। पर बाहर से आने वाले लोग, जहां खाने के लाले पड़े थे, जो लड़ाई-झगड़ा करते हुए भाग रहे थे, जो पूरी दुनिया में कहीं पर भी कोई कंस्ट्रक्टिव (रचनात्मक) काम करते दिखाई नहीं पड़े, सारा कंस्ट्रक्टिव काम भारत में ही किया, आप सोचिएगा! (जारी)
(लेखक भाजपा नेता और राष्ट्रवादी विचारक हैं)
कल तीसरी कड़ी में पढ़िए-
घी का घ तुम्हारे पास नहीं, शक्कर का श तुम्हारे पास नहीं, फिर भी हलवा तुमने बनाया।