डॉ. सुधांशु त्रिवेदी के चार विचारोत्तेजक लेखों की पहली कड़ी पढ़िए कल।
आपका अख़बार ब्यूरो।
भारतीय राजनीति में आज ऐसे लोगों की बहुत कमी है, जो तर्क, तथ्य और विचार की गहराई में जाकर संवाद करें। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और राज्यसभा सांसद डॉ. सुधांशु त्रिवेदी उन गिने-चुने नेताओं और लोकप्रिय वक्ताओं में से हैं, जो गहन अध्ययन के बाद किसी बात को तर्क और तथ्य के साथ प्रस्तुत करते हैं।
इंजीनियरिंग की पृष्ठभूमि होने के बावजूद डॉ. त्रिवेदी का भारतीय संस्कृति, इतिहास, धर्म और हिन्दुत्व पर गहन अध्ययन उन्हें अन्य राजनेताओं से अलग खड़ा करता है। उनकी भाषण कला में ओज, स्पष्टता और तथ्यपरकता होती है।
वह कहते हैं, “इतिहास की भारत की व्याख्या और पश्चिम की व्याख्या में बुनियादी फर्क है। पश्चिम कहता है कि इतिहास ज्ञान की वह शाखा है, जो आपको अतीत में घटित किसी घटना के बारे में बताता है कि वास्तव में क्या घटित हुआ तथा कब और किस समय घटित हुआ। परंतु हमारे यहां कहा गया, इतिहास वह है, जो पूर्व काल में हुई घटना को उस रूप में प्रस्तुत कर सके, जो वर्तमान समय में समाज के जीवन मूल्यों को स्थापित करने और बढ़ाने में भूमिका निभा सके।”टीवी बहसों में वह अपने विरोधियों के तर्कों को शालीन, किंतु प्रभावी ढंग से खंडित करते हैं। उनके भाषणों में परम्परा और आधुनिकता का मेल दिखाई देता है। सोशल मीडिया पर उनकी लोकप्रियता इस बात का प्रमाण है कि वे नई पीढ़ी को न केवल संवाद के स्तर पर प्रभावित करते हैं, बल्कि उन्हें वैचारिक दिशा भी प्रदान करते हैं।
पिछले दिनों उन्होंने इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली द्वारा प्रख्यात पत्रकार, इतिहासकार और चिंतक प्रो. देवेन्द्र स्वरूप की स्मृति में आयोजित ‘आचार्य देवेन्द्र स्वरूप स्मारक व्याख्यान’ में ‘इतिहास के संदर्भ में भारतीयता’ विषय पर सारगर्भित व्याख्यान दिया। भारतीय इतिहास और संस्कृति से जुड़ी कई बातों को श्रोताओं के सामने रखा। भारतीय संस्कृति और इतिहास के साथ जो ढेरों सुनियोजित षडयंत्र किए गए, झूठे नैरेटिव गढ़े गए, उनके बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने बताया कि “कैसे हिन्दुओं में शर्मिंदगी का भाव पैदा करने के लिए उन्हें पढ़ाया गया कि भारत में जो कुछ भी अच्छा आया, वह बाहर से आया।”
“लॉर्ड मैकाले ने भारत की शिक्षा व्यवस्था को नष्ट करने में तो सफलता प्राप्त कर ली थी, लेकिन भारतीय संस्कृति को नष्ट करने में वह सफल नहीं हो पाया। आज़ादी के बाद यह काम रूस ने करने की कोशिश की। भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के उद्देश्य से चार चरणों का प्रोजेक्ट चलाने के लिए रूसी गुप्तचर एजेंसी केजीबी के एजेंटों को यहां भेजा गया, जिन्होंने भारतीयों के मानस में शर्मिंदगी का भाव भरने में काफी हद तक कामयाबी भी पाई।” इसके साथ ही सुधांशु त्रिवेदी पुरातात्त्विक प्रमाणों की सीमाओं पर बात करते हुए भारत की प्राचीन काल गणना की विशेषताओं के बारे में वैज्ञानिक दृष्टि से बताते हैं। भारत की शौर्य परम्परा की बात करते हुए संकेत करते हैं कि भारत में पिछले 10-11 वर्षों में सांस्कृतिक चेतना का पुनर्जागरण हुआ है।
डॉ. त्रिवेदी के व्याख्यानों के सम्पादित अंशों को हम ‘आपका अखबार’ के पाठकों के लिए ‘भारत के साथ छल’ शृंखला के अंतर्गत चार कड़ियों में प्रस्तुत कर रहे हैं। कल पहली कड़ी में पढ़िए- “छोटी दृष्टि वालों को विराट इतिहास नहीं दिखता”।