बाल आयोग ने सरकार से फैसले के खिलाफ अपील करने को कहा।

मध्यप्रदेश जबलपुर उच्च न्यायालय ने चार साल की बच्ची के साथ रेप के दोषी को राहत दी है।अनुसूचित जनजाति के 20 वर्षीय व्यक्ति की मृत्युदंड की सजा को कम कर दिया गया, जबकि निचली अदालत ने यह देखते हुए मृत्युदंड दिया था कि बच्ची हमेशा के लिए विकलांग हो गई। हाईकोर्ट ने सजा को आजीवन कारावास में बदलते हुए दोषी के इतिहास, शिक्षा की कमी और आदिवासी पृष्ठभूमि जैसे कारकों को ध्यान में रखते हुए उसकी सजा कम करने का निर्णय सुनाया, जिसके प्रति अब जहां एक ओर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य एवं पूर्व राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो ने आश्चर्य व्यक्त किया है। वहीं मध्य प्रदेश बाल अधिकार संरक्षण आयोग की सदस्य डॉ. निवेदिता शर्मा ने प्रदेश की डॉ. मोहन यादव सरकार से इस प्रकरण में अपील करने का आग्रह किया है।
दो जजों की पीठ ने मौत की सजा को 25 साल में बदला

दरअसल, न्यायमूर्ति विवेक अग्रवाल और न्यायमूर्ति देवनारायण मिश्रा की दो सदस्यीय खंडपीठ ने मामले में अपना निर्णय सुनाते हुए कहा, “इसमें कोई संदेह नहीं है कि अपीलकर्ता का कृत्य क्रूर था क्योंकि उसने चार वर्ष और तीन महीने की पीड़िता के साथ बलात्कार किया और बलात्कार करने के बाद उसका गला घोंटकर उसे मृत समझकर ऐसी जगह फेंक दिया जहां उसकी तलाशी न ली जा सके, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि उसने क्रूरता नहीं की है।” और इसी के साथ हाईकोर्ट की जबलपुर बेंच ने उसकी फांसी की सजा को 25 साल की सजा में बदल दिया।
यहां अदालत ने जो माना उसके अनुसार उच्च न्यायालय ने इस धारणा से असहमति जताई कि स्थायी विकलांगता घटना के कारण हुई थी। उच्च न्यायालय का कहना रहा है कि निचली अदालत ने केवल डॉ. राकेश शुक्ला की गवाही पर भरोसा किया, लेकिन यह भी पाया कि डॉक्टर ने यह स्पष्ट रूप से नहीं बताया कि शरीर का कौन सा हिस्सा क्षतिग्रस्त हुआ था या क्या चोट ऐसी प्रकृति की थी जिससे आजीवन विकलांगता हो सकती थी। इसलिए, उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के इस निष्कर्ष को खारिज कर दिया।
जजों ने कहा- ‘मौजूदा प्रकरण बर्बर है लेकिन क्रूर नहीं’, दिए इन मामलों के उदाहरण
पीठ ने कहा, “गंभीर परिस्थितियाँ हैं कि पीड़िता चार साल की थी और बलात्कार इतनी छोटी बच्ची के साथ किया गया और अपराध इस तरह से किया गया कि पीड़िता का गुप्तांग फट गया और अपराध करने के बाद पीड़िता को एकांत जगह पर फेंक दिया गया और उसे ऐसा समझा गया कि वह मर गई है।” भग्गी बनाम मध्य प्रदेश राज्य [(2024) 5 एससीसी 782] के मामले का हवाला देते हुए , जबलपुर न्यायालय ने बलात्कार के कृत्य के बीच अंतर किया जो बर्बर और क्रूर दोनों है और एक ऐसा कृत्य जो बर्बर है लेकिन जरूरी नहीं कि क्रूर हो। पीठ ने कहा कि मौजूदा मामला बर्बर है लेकिन क्रूर नहीं है।
मनोहरन बनाम राज्य [(2019) 7 एससीसी 716] और धनंजय चटर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य [(1994) 2 एससीसी 2020] के मामलों का हवाला देते हुए , पीठ ने कहा कि दोषी का कृत्य क्रूर था, लेकिन यह क्रूरता के साथ नहीं किया गया था। दोषी आदिवासी समुदाय से संबंधित एक अशिक्षित व्यक्ति था जिसे सड़क किनारे ढाबे पर काम करने के लिए उसके घर से दूर भेज दिया गया था। होईकोर्ट ने कहा, “अपीलकर्ता लगभग 20 वर्ष की आयु का आदिवासी समुदाय का युवक है। उसके आचरण के बारे में कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं है। ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं है कि उसने पहले इस तरह का कोई अपराध किया है और उसकी माँ के बयान के अनुसार, उसने बहुत कम उम्र में ही माता-पिता का घर छोड़ दिया था और ढाबे में काम करके अपना पेट पाल रहा था। वह ठीक से शिक्षित नहीं है।”
और फिर पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के तहत दंडनीय अपराध बदल गया कठोर कारावास में
दो जजों की पीठ ने कहा, “इसलिए, भारतीय दंड संहिता की धारा 363, 450, 307, 201 के तहत दंडनीय अपराध के लिए अपीलकर्ता पर लगाई गई सजा की पुष्टि की जाती है, लेकिन पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के तहत दंडनीय अपराध के लिए उसकी सजा को मृत्युदंड से 25 साल के कठोर कारावास में बदल दिया जाता है, जिसमें 10,000 रुपये का जुर्माना भी शामिल है और जुर्माना राशि (दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 432 और 433 के तहत छूट/आयोग के बिना वास्तविक कारावास) न चुकाने की स्थिति में, अपीलकर्ता को एक साल का कठोर कारावास और भुगतना होगा।” लेकिन जैसे ही इस निर्णय की जानकारी आम हुई, न सिर्फ मप्र बल्कि देश भर में कई लोगों ने न्यायालय के इस निर्णय पर आपत्ति दर्ज कराई है। सबसे ज्यादा तो इस बात पर लोगों की आपत्ति है कि इस अपराध पर न्यायालय की पूरी स्पष्टता समझ नहीं आ रही कि ‘अपराधी का कृत्य क्रूर था पर क्रूरता के साथ नहीं किया गया’।
खून से लथपथ पाई गई। उसके निजी अंग फाड़ दिए गए थे।अब इस दुर्भाग्यपूर्ण गरीब लड़की को…
हाईकोर्ट के इस निर्णय के सामने आने पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य एवं पूर्व राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो ने कहा, “माननीय उच्च न्यायालय का यह फैसला एक 4 वर्षीय लड़की के बारे में है, जिसका 20 वर्षीय व्यक्ति ने बलात्कार किया और उसे अकेले मरने के लिए कंटीली झाड़ी में फेंक दिया। जब उसे बचाया गया तो वह खून से लथपथ पाई गई। उसके निजी अंग फाड़ दिए गए थे।अब इस दुर्भाग्यपूर्ण गरीब लड़की को इस घटना के कारण स्थायी विकलांगता के साथ जीवित रहकर “क्रूर अपराध” और “क्रूरता के साथ अपराध” के बीच के अंतर के बारे में जीवन का सबक सीखना होगा।सरकार को अपील दायर करनी चाहिए।”
बच्ची के साथ न्याय हो इसके लिए प्रदेश सरकार करे अपील दायर
इसी तरह की मांग मध्य प्रदेश बाल अधिकार संरक्षण आयोग की सदस्य डॉ. निवेदिता शर्मा ने जो इस वक्त प्रदेश में पॉक्सो के मामले भी आयोग की ओर से देख रहीं हैं ने की है। वे इसके साथ कुछ अन्य प्रश्न भी उठाती हैं । उन्होंने मध्य प्रदेश की डॉ. मोहन यादव की सरकार से निवेदन किया है कि उक्त केस में अपील दाखिल करे ताकि इस चार साल की बच्ची के साथ पूरा न्याय हो सके। उन्होंने कहा, “इस बारे में हमारे समाज को और पूरे सिस्टम को गंभीरता से मिलकर सोचना होगा। वास्तव में उस चार साल की बच्ची के साथ आरोपी ने न सिर्फ बलात्कार किया बल्कि बलात्कार करने के बाद उसे गला दबाकर मारने की कोशिश भी की थी। इसके बाद वह उसे मरा समझ कर वहां से भाग गया था। यह तो परिवार, पुलिस और गांव वालों की सक्रियता रही कि बच्ची को खोज कर उसे तुरंत चिकित्सकीय सुविधा उपलब्ध करवाई, अन्यथा थोड़ी देर ओर होती तो वह बच्ची मर गई होती”
स्वत: संज्ञान लेवें उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय
उन्होंने बताया कि मामले की छानबीन करने वे स्वयं इंदौर जिस अस्पताल में उसे लाया गया था वहां पहुंची थीं, वहां उन्हें जो ज्ञात हुआ, उसे सुनकर ही आरोपी की संवेदनहीनता पर भयंकर क्रोध आया था। जिस हालत में बच्ची मिली उसके शरीर पर चीटिंयां, मक्खी एवं अन्य कीड़े रेंग रहे थे। इंदौर में इलाज कराने के बाद आज भी वह बच्ची सदमें में दिखाई देती है। डॉ. निवेदिता कहती हैं, “उन्हें इस निर्णय पर बेहद आश्चर्य है। मैं इस मामले में माननीय उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय से विनम्र आग्रह करूंगी कि वे इस मामले में स्वत: संज्ञान लेवें और जनहित में केस की गंभीरता को देखते हुए अपराधी को आजीवन कारावास या निचली अदालत के निर्णय के अनुसार पुन: मौत की सजा का प्रावधान सुनिश्चित करेंगे।”
बच्ची घटना के दो साल गुजरने पर भी नहीं हो सकी सामान्य
डॉ. शर्मा ने कहा कि बच्ची का बचना देखा जाए तो किसी चमत्कार से कम नहीं है, यदि वह नहीं बचती, तब फिर क्या होता? क्या यह अपराधी की साक्ष्य मिटाने की कोशिश नहीं है? उन्होंने कहा कि न्यायालय का जो निर्णय है उसमें लिखा हुआ है कि स्थाई विकलांगता कौन सी है? आखिर स्थाई विकलांगता क्या होती है। नियमानुसार 21 प्रकार की विकलांगता को परिभाषित किया गया है। वह बच्ची जो अस्पताल में भर्ती हुई थी, तब कई दिनों तक वह कोमा की स्थिति में रही। उसकी मानसिक स्थिति कैसी है इसका परीक्षण तो मनोचिकित्सक ही करेंगे। क्या मनोचिकित्सक को दिखाया गया? वह बच्ची अभी तक बोल नहीं पा रही। घटना के बाद से ठीक से चल नहीं पा रही, आज भी वह लंगड़ा के चल रही है, तो क्या यह विकलांगता (दिव्यांगता) की परिभाषा में नहीं आएगा?
अब भी इसलिए बनी है सुधार की संभावना
मप्र बाल संरक्षण आयोग आयोग सदस्य का तर्क है कि हाईकोर्ट ने जो चार बातों का जिक्र किया है कि आरोपी की उम्र 20 साल है, आरोपी अशिक्षित है, आरोपी आदिवासी है, आरोपी गरीब है, तब यह जो स्थिति है यह तो इस पीड़ित बिटिया के साथ भी है। बिटिया चार साल की बच्ची अभी स्कूल पढ़ते ही नहीं गई। वह भी आदिवासी है और गरीब भी है। सिर्फ इन कारणों के आधार पर सजा कम करना फिलहाल इस केस की एक बार फिर से गंभीर स्टडी करने की ओर ले जाता है। लेकिन न्यायालय को यह बताया जाना बहुत जरूरी है कि इस घटना के बाद से बच्ची अब तक गुमसुम है। ठीक से चलती नहीं, कोई अनजान पास पहुंचता है तो भयभीत हो जाती है। लोगों से सामान्य जीवन क्रम में बात नहीं कर पाती। पीड़िता के मन पर जो गुजरी है, उससे वह अभी भी बाहर नहीं हो पाई है।
उन्होंने कहा, “इस घटना का दूसरा एक पक्ष भी है, जिसे नकारा नहीं जाना चाहिए, यह कि इस पूरे मामले में डॉक्टर ने अपने परीक्षण में माना कि यह क्रूर घटना है। डीएनए सैंपल पूरी तरह से मैच हुए। पुलिस ने भी इसे क्रूर करार दिया और निचली अदालत ने तो अपराध को क्रूरतम माना ही, इसलिए आरोपी को मौत की सजा सुनाई। तब प्रश्न यह है कि चिकित्सक, पुलिस और निचली अदालत जिस अपराध को एक सुर में क्रूर मानती हैं, वह उच्च न्यायालय में जाकर फिर क्रूर नहीं रहता, यह कैसे संभव है? इसका मतलब है कि या तो पहले डॉक्टर, पुलिस और जज गलत थे या अभी दिए गए निर्णय में सुधार की गुंजाइश है।”
जबलपुर कोर्ट के सामने आए निर्णय के बारे में नहीं पता है पीड़िता के परिवार को
इस बारे में कि आरोपी की सजा में परिवर्तन हुआ है अब उसे फांसी नहीं दी जाएगी, सिर्फ 25 साल की सजा होगी, पीड़िता के परिवार को अभी तक कुछ नहीं पता था, जब बच्ची की बुआ से एवं परिवार के अन्य सदस्यों से इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि हम तो यही मान रहे हैं कि आरोपी को फांसी होगी। हमें नहीं पता कोर्ट का नया निर्णय क्या सुनाया गया है जिसमें उसे अब पच्चीस साल की सजा दी जाएगी। इसी प्रकार जिस वकील ने निचली अदालत में उक्त प्रकरण को देखा, उसे भी नहीं मालूम था कि इस केस में उच्च न्यायालय ने फांसी की सजा को पच्चीस साल की सजा में तब्दील कर दिया है।
न्यायालय के निर्णय के विरोध में उठ रही हैं, कई आवाजें
फिलहाल इस प्रकरण से प्रियंक कानूनगो या डॉ. निवेदिता शर्मा ही आहत नहीं है, सोशल मीडिया पर अनेक पोस्ट इस निर्णय के खिलाफ साफ तौर पर आज देखने को मिल रही हैं। ये सभी मध्य प्रदेश सरकार से निवेदन करते दिखे हैं कि उक्त मामले को लेकर राज्य सरकार अपील में जाए। जबलपुर हाईकोर्ट के निर्णय के विरोध में सोशल मीडिया पर लगातार लिखा जा रहा है। हालांकि कोर्ट के विरोध में जाना न्यायालय की अवमानना हो सकती है, लेकिन फिलहाल किसी को इसका डर हो ऐसा दिख नहीं रहा। अब इस मामले में आगे निर्णय मध्य प्रदेश सरकार को लेना है। डॉ. निवेदिता शर्मा साथ में इतना अवश्य बताती हैं कि संबंधित मामले में वे मप्र बाल संरक्षण आयोग की ओर से सरकार में संबंधित जिम्मेदारों को एक पत्र अवश्य लिख रही हैं, ताकि सरकार इस प्रकरण को लेकर अपील में जल्द से जल्द जा सके।
मध्य प्रदेश के खण्डवा में 2022 मे घटी थी घटना
उल्लेखनीय है कि उक्त प्रकरण खंडवा जिले में 30 और 31 अक्टूबर 2022 की दरमियानी रात का है। ये बच्ची अपने झोपड़े में सो रही थी। इसी दौरान परिजन उठे तो वह बिस्तर पर नहीं दिखी। उसे आरोपी उठा ले गया था। परिजनों ने जब रिपोर्ट पुलिस में की तब बच्ची की तलाश में अगली सुबह पुलिसकर्मी स्निफर डॉग राजपूत ढाबे पर जाकर रुक गया। पुलिस ने स्टाफ से पूछताछ की तो पता लगा कि राजुकमार रात से गायब है। पुलिस का शक गहराया। राजकुमार को गिरफ्तार किया गया। उसने बताया कि रेप के बाद बच्ची को मारकर फेंक दिया है। पुलिस ने उसकी बताई लोकेशन से बच्ची को ढूंढ निकाला। सांसें चलती देख उसे जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया। यहां से इंदौर रेफर किया गया, जहां लंबे इलाज के बाद उसकी जान बच सकी। आरोपी राजकुमार (20) खालवा का रहने वाला है। वह जसवाड़ी रोड पर राजपूत ढाबे में काम करता था। ढाबे के पीछे बने खेत में आदिवासी परिवार रहता था। घटना वाले दिन बच्ची को इसी खेत में बनी झोपड़ी से उठाया गया था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )