व्‍योमेश चन्‍द्र जुगरान।
उत्तराखंड में वाहन दुर्घटनाओं और बारिश व भूस्‍खलन के कारण हो रहे हादसों में पिछले तीन माह में 45 से अधिक  लोग अकाल मौत मर गए। ताजा हादसा उत्तरकाशी में बडकोट के निकट यमुनोत्री मार्ग पर बादल फटने से हुआ। यहां भूस्‍खलन में एक निर्माणाधीन होटल तबाह हो गया और कम से कम 9 मजदूर दब गए।
इससे पहले 25 जून को रुद्रप्रयाग से बदरीनाथ जा रही एक बस घोलतीर के निकट अलकनंदा में गिर गई जिसमें कम से कम 12 तीर्थयात्री बह गए। कुछ के शव मिले, अधिकांश का पता नहीं चला। 22 जून को देहरादून के निकट वाहन दुर्घटना में चार युवक मारे गए। 15 जून को केदारनाथ से लौट रहा हेलीकॉप्‍टर क्रेश हो गया जिसमें पायलट सहित सात लोगों की मौत हो गई। 26 मई को कीर्तिनगर-‍बडियारगढ़ मोटर मार्ग पर एक कार गहरी खाई में गिर गई जिसमें चार लोगों की मौके पर ही मौत हो गई। 12 अप्रैल को अबदरीनाथ हाईवे पर श्रीनगर के निकट थार अलकनंदा में जा गिरी जिसमें पांच लोगों की जान चली गई।

ये आंकड़े उत्तराखंड में सड़क सुरक्षा की बेहद डरावनी तस्‍वीर पेश करते हैं। सूचनाधिकार से प्राप्‍त आंकड़े बताते हैं कि राज्‍य गठन के 24 सालों के भीतर उत्तराखंड में विभिन्‍न सड़क दुर्घटनाओं में बीस हजार से अधिक लोगों ने जान गंवाई है। केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय की पिछले साल जारी एक रिपोर्ट से पता चलता है कि उत्तराखंड छोटा राज्‍य होने के बावजूद सड़क दुर्घटनाओं की गंभीरता यानी मारक क्षमता के मामले में 62.2 प्रतिशत के साथ देश में आठवें पायदान पर है जबकि राष्‍ट्रीय औसत 36.5 प्रतिशत है।

पहाड़ी मार्गों पर होने वाले सड़क हादसे कोई भूकम्‍प या प्राकृतिक आपदा नहीं हैं कि रोके न जा सकें। ऐसे अधिकांश मामलों में लापरवाही, मानवीय भूल, खस्‍ताहाल सड़कें, वाहनों की फिटनेस, ओवरलोडिंग, तेज रफ्तार, अकुशल ड्राइविंग, ड्राइवरों की मनोदशा, शराब, खराब मौसम और निर्माण कार्यों की अराजक दशा जैसी वजहें गिनाई जाती हैं। इनमें एक भी कारण ऐसा नहीं है जिससे पार न पाया जा सके। बावजूद इसके, हर नया साल यहां मौतों का बढ़ा हुआ आंकड़ा छोड़कर विदा हो रहा है।

पिछले चार वर्षों को देखें तो 2018 में हुए 1468 सड़क हादसों के मुकाबले 2022 में ये बढ़कर 1674 हो गए जिनमें 958 मौतें और 1500 के करीब लोग घायल हुए। वर्ष 2023 में सड़क दुर्घटनाओं के 1520 मामलों में 946 लोगों की जान चली गई। वर्ष 2024 में हुए करीब डेढ़ हजार से अधिक सड़क हादसों में मौतों का आंकड़ा भी 900 के पार बताया जाता है। बीते साल सबसे भीषण दुर्घटना 4 नवम्‍बर 2024 को पौड़ी-अल्‍मोड़ा की सीमा पर मरचूला में हुई जिसमें गढ़वाल मोटर यूजर्स की बस डेढ़ सौ मीटर नीचे खाई में जा गिरी और 36 लोग मौके पर ही मारे गए जबकि दो ने अस्‍पताल में दम तोड़ा। एक अन्‍य बस हादसे में 25 दिसम्‍बर को भीमताल से हल्‍द्वानी जा रही उत्तराखंड रोडवेज की बस सौ मीटर गहरी खाई में जा गिरी जिसमें चार लोग मारे गए और 24 घायल हो गए। उत्तराखंड में नया साल भी विभिन्‍न सड़क दुर्घटनाओं में आठ मौतों के बुरे समाचार के साथ शुरू हुआ और जून आते-आते इनमें खौफनाक इजाफा होता चला गया।

बढ़ती सड़क दुर्घनाओं से साफ है कि सड़क सुरक्षा को लेकर उत्तराखंड राज्‍य अपना रिकॉर्ड सुधारने की दिशा में उतना गंभीर नजर नहीं आता। मरचूला हादसे को ही लें तो 40 यात्रियों की क्षमता वाली बस में 63 लोग सवार थे। चलने के करीब डेढ़ घंटे के बाद ही बस असंतुलित होकर मरचूला के निकट डेढ़ सौ मीटर गहरी खाई में जा गिरी और 38 यात्रियों के अंतिम सफर का शोकगीत लिख गई। इससे पूर्व एक जुलाई 2018 को इसी क्षेत्र में धूमाकोट के निकट ऐसी ही एक बस दुर्घटना में 48 लोगों की मौत हुई थी।

ये मौतें बताती हैं कि देश में सबसे अधिक जोखिम भरी पहाड़ की परिवहन व्‍यवस्‍था को शासकीय और गैरशासकीय दोनों स्‍तर पर हल्‍के ढंग से लिया जाता रहा है। सड़क हादसों की जांच का क्‍या हश्र होता है, कभी पता नहीं चलता। हर नए हादसे के बाद कुछ दिन तक कड़े नियम-कानूनों खूब शोर मचता है, फिर सबकुछ पुराने ढर्रे पर लौट आता है। मरचूला हादसे के बाद सरकार ने सीटों के अतिरिक्‍त एक भी यात्री ले जाने पर सख्‍त पाबंदी लगाई थी, मगर क्‍या हुआ ! आज कोटद्वार बस अड्डे का ही जायजा लें तो यहां से पहाड़ से विभिन्‍न मोटर मार्गों पर चलने वाली बसों में यात्रियों का रेला सारी सच्‍चाई बयां कर देगा।

भीतरी पहाड़ों में जिस तेजी से सड़कों का जाल बिछ रहा है, उस परिमाण में सड़क सुरक्षा और सार्वजनिक परिवहन सेवाओं का विस्‍तार नहीं हो पाया है। यहां रोडवेज सेवा अंतरमार्गीय परिवहन का मुख्‍य साधन कभी नहीं रहीं। भीतरी पहाड़ों में परिवहन का असल धर्म गढ़वाल मोटर ओनर्स यूनियन (जीएमओयू), टिहरी गढ़वाल मोटर्स ओनर्स यूनियन (टीजीएमओयू) और कुमाऊं मोटर्स ओनर्स यूनियन (केएमओयू) ने निभाया है। परिवहन में सहकारिता का विलक्षण आयाम स्‍थापित करने वाली ये सेवाएं ही सही मायने में पर्वतीय परिवहन की प्राणरेखा रहीं हैं। लेकिन हाल के वर्षों में गांव-गांव सड़कों के जाल के साथ ही सरपट दौड़ते जीप परिवहन ने मोटर ओनर्स को लगभग बाहर खदेड़ दिया है। जीपें जवाबदेह पुलिस और परिवहन कर्मियों को ऊपरी कमाई करा नियम कानूनों को ठेंगा दिखाने में माहिर हैं। दूर-दराज के इलाकों में तो ये हर तरह की जांच-पड़ताल से परे होती हैं। एक ओर यदि वैकल्पिक परिवहन फलफूल रहा है, वहीं जीएमओयू जैसी सेवाओं को अपनी उपयोगिता बनाए रखने के लिए खासी जद्दोजहद करनी पड़ रही है। आज इनकी हालत बहुत खराब है। नई गाडि़यां हैं नहीं और 10 से 15 साल पुराने जीर्ण-शीर्ण वाहनों से ही गाड़ी खिंच रही है।
इधर बदरी-केदार यात्रा के लिए हेली सेवाओं के उपयोग ने एक नए तरह के जोखिम को जन्‍म दिया है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले बारह साल में हेली-हादसों में 38 लोगों की जान चली गई। विशेषज्ञों की माने तो अपर हिमालय में हेली सेवाओं के संचालन यहां के मौसमी मिजाज के अनुकूल कतई नहीं है। पर इसे शुरू में सरकार नजरअंदाज करती है और बाद में हेली सेवाएं जमकर ठेंगा दिखाती हैं।

उत्तराखंड एक पर्यटन राज्‍य भी है और पर्यटन का सीधा संबंध परिवहन से होता है। बढ़ती दुघर्टनाओं का संदेश पर्यटन के लिए अच्‍छा नहीं है। ऐसे में सड़क से लेकर आकाश तक की सुरक्षा के पैरामीटरों पर ध्‍यान दिया जाना सरकारों की सर्वोच्‍च प्राथमिकता होनी चाहिए। यदि राज्‍य की शिनाख्‍त सड़क हादसों की दृष्टि से संवेदनशील श्रेणी में की गई है तो इसका सीधा संबंध ड्राइवरों की मनोदशा, सड़कों के रख-रखाव, राहत व बचाव कार्यों, पैरा मेडिकल व अन्‍य चिकित्‍सा सेवाओं, ब्‍लैक स्‍पॉट की पहचान और पैराफिट सुरक्षा जैसे कारकों से है। इन सब कारकों का कारगर और सुदृढ़ समन्‍वय ही एक सुरक्षित परिवहन की गारंटी हो सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)