स्वामी विवेकानंद।
भक्ति जिन विविध रूपों में प्रकाशित होती है, उनमें से एक है- ‘श्रद्धा’। श्रद्धा का मूल है प्रेम। हम जिससे प्रेम नहीं करते, उसके प्रति कभी श्रद्धालु नहीं हो सकते। इसके बाद है ‘प्रीति’ अर्थात् ईश्वर-चिंतन में आनन्द। मनुष्य इंद्रियों-विषयों में कितना तीव्र आनन्द अनुभव करता है! भक्त को चाहिए कि वह भगवान के प्रति इसी प्रकार का तीव्र प्रेम रखे।

इसके उपरांत आता है ‘विरह’- प्रेमास्पद के अभाव में होने वाला तीव्र दुख। यह दुख संसार के समस्त दुखों में सबसे मधुर है- अत्यंत मधुर है। जब मनुष्य भगवान को न पा सकने के कारण, संसार में एकमात्र जानने योग्य वस्तु को न जान सकने के कारण भीतर तीव्र वेदना अनुभव करने लगता है और फलस्वरूप अत्यंत व्याकुल बिल्कुल पागल सा हो जाता है, तो उस दशा को विरह कहते हैं।

मन की ऐसी दशा में प्रेमास्पद को छोड़ उसे और कुछ अच्छा नहीं लगता (एकरतिविचिकित्सा)। बहुधा यह विरह सांसारिक प्रणय में देखा जाता है। ठीक इसी प्रकार पराभक्ति हृदय पर अपना प्रभाव जमा लेती है, तो अन्य अप्रिय विषयों की उपस्थिति हमें खटकने लगती है, यहां तक कि प्रेमास्पद भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी विषय पर बातचीत तक करना हमारे लिए अरुचिकर हो जाता है।
प्रेम की इससे भी उच्च अवस्था तो वह है, जब उस प्रेमास्पद भगवान के लिए जीवन धारण किया जाता है, जब उस प्रेमस्वरूप के निमित्त प्राण धारण करना सुंदर और सार्थक समझा जाता है। ऐसे प्रेमी के लिए उस प्रेमास्पद भगवान बिना एक क्षण भी रहना असम्भव हो उठता है। उस प्रियतम का चिन्तन हृदय में हमेशा बने रहने के कारण ही उसे जीवन इतना मधुर प्रतीत होता है। शास्त्रों में इसी अवस्था को ‘तदर्थप्राणसंस्थान’ कहा है। ‘तदीयता’ तब आती है, जब साधक भक्ति-मत के अनुसार पूर्णावस्था को प्राप्त हो जाता है, जब वह श्री भगवान के चरणारविंदों का स्पर्श कर लेता है, तब उसकी प्रकृति विशुद्ध हो जाती है- सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाती है। तब उसके जीवन की साध पूरी हो जाती है।

ऐसा है प्रेम का प्रभाव! जब मनुष्य अपने आपको बिल्कुल भूल जाता है और जब उसे यह भी ज्ञान नहीं रहता कि कोई चीज अपनी है, तभी उसे यह ‘तदीयता’ की अवस्था प्राप्त होती है। तब सब कुछ उसके लिए पवित्र हो जाता है, क्योंकि वह सब उसके प्रेमास्पद का ही तो है। इसी प्रकार जो मनुष्य भगवान से प्रेम करता है, उसके लिए सारा संसार प्रिय हो जाता है, क्योंकि यह संसार आखिर उसी का तो है।
(विवेकानन्द साहित्य से साभार)