आपका अखबार ब्यूरो।
इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र (आईजीएनसीए) के कलानिधि विभाग द्वारा आयोजित एक गरिमामय कार्यक्रम में प्रसिद्ध शिक्षाविद् और लेखक डॉ. विनोद कुमार तिवारी की संस्कृति त्रयी पुस्तकों का लोकार्पण हुआ। तीनों पुस्तकों – ‘रामायण कथा की विश्व-यात्रा’, ‘हमारी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता’ और ‘पूर्वजों की पुण्य-भूमि’ के लोकार्पण के साथ-साथ उन पर चर्चा भी हुई। पुस्तकों का विमोचन करते हुए विद्वानों ने इन्हें भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीयता के गहन विमर्श की महत्त्वपूर्ण कड़ी बताया। पुस्तकों का प्रकाशन ‘मोतीलाल बनारसीदास’ ने किया है।
आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरी जी महाराज

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे जूना पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद जी गिरि और अध्यक्षता की आईजीएनसीए ट्रस्ट के अध्यक्ष रामबहादुर राय ने। तीनों पुस्तकों की प्रस्तावना भी स्वामी अवधेशानंद गिरि जी ने लिखी है। इस अवसर पर राष्ट्रीय संस्मारक प्राधिकरण की पूर्व अध्यक्ष और आईसीएचआर की सदस्य प्रो. सुष्मिता पांडेय, आईजीएनसीए के कला निधि विभाग के अध्यक्ष एवं डीन, प्रशासन प्रो. रमेश चन्द्र गौड़ और दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व अध्यापक डॉ. शशि तिवारी ने भी अपने विचार रखे। वक्ताओं ने इन कृतियों को भारतीय ज्ञान-संपदा, सांस्कृतिक विरासत और राष्ट्रीय एकात्मता की दिशा में एक उल्लेखनीय योगदान बताया। कार्यक्रम की शुरुआत शंख ध्वनि और मंगलाचरण से हुई। इसके बाद, प्रो. रमेश चंद्र गौड़ ने अतिथियों का परिचय और स्वागत भाषण दिया।
आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद जी गिरि ने कहा, “रामायण इतिहास है। भारत में इतिहास के लिए दो ग्रंथ हैं— रामायण और महाभारत। ये ऐतिहासिक ग्रंथ हैं। हमारे यहाँ इतिहास इज़्म (वाद) नहीं है और न ही वो मिथ है। ये सब आंग्ल भाषा के शब्द हैं— मिथ या माइथोलॉजी या मिथक और इज़्म। जैसे वो बोलते हैं हिंदुइज़्म। इज़्म का अर्थ है, जो अनुमान है, जो सत्य नहीं है, कल्पना है और जिसका अतीत में कदाचित् कोई अस्तित्व भी नहीं था। बस एक अनुमान है, उसे इज़्म कहते हैं, और मिथ भी वही है। मिथ का अर्थ सत्य से नहीं है। हमारी संस्कृति माइथोलॉजी नहीं है, यह सत्य है, अत्यंत प्राचीन है और उसका मूल ऋग्वेद है।”

उन्होंने आगे कहा, “हमारी संस्कृति सत्य सनातन है। हमारी संस्कृति लोकतांत्रिक मूल्यों, संवाद, गणित, विज्ञान, अंक, शून्य, दशमलव— सबका मूल है। तो यह चर्चा केवल पुस्तकों तक सीमित नहीं है, यह भारतीय जीवन-दर्शन का उद्घोष है। डॉ. विनोद तिवारी जी ने इस पर अद्भुत कार्य किया है।”

श्री रामबहादुर राय

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में रामबहादुर राय ने स्वामी अवधेशानंद गिरी जी द्वारा लिखी गई पुस्तकों की प्रस्तावना का उल्लेख करते हुए कहा, “रामायण कथा में भारतीय संस्कृति अपने सर्वोत्तम रूप में अभिव्यक्त हुई है। रामायण भारतीय संस्कृति का पासपोर्ट है। एक बार पंडित राम किंकर उपाध्याय जी से किसी ने पूछा कि गीता की सबसे अच्छी टीका क्या है? मैं गीता का प्रसंग इसलिए ला रहा हूं, क्योंकि स्वामीजी ने हमको वेद से जोड़ा है कि वेद मूल हैं। और, वेद से जब आप जुड़ेंगे तो 2025 को ज्यादा ठीक से समझ सकेंगे। तो राम किंकर जी कहते हैं कि मेरी समझ से गीता की सबसे अच्छी टीका रामचरित मानस है। लोकमान्य तिलक ने मांडले जेल में गीता की टीका लिखी- ‘गीता रहस्य’, जिसका हिन्दी अनुवाद 1915 में प्रकाशित हुआ। हिंदी अनुवाद माधवराव सप्रे ने किया, जो पत्रकार थे और तिलक के शिष्य भी। गीता जो कहती है, वह गीता रहस्य में है।”
उन्होंने आगे कहा, “गीता रहस्य की श्री अरबिंदो ने तारीफ की है। महात्मा गांधी ने तिलक के देहावसान के बाद अपने तीन भाषणों (बनारस, कानपुर और पुणे के भाषण) में यह कहा कि गीता पर अब तक इससे बड़ा अनुसंधान किसी ने नहीं किया है। मैं नहीं जानता कि भविष्य में होगा या नहीं।” रामबहादुर राय ने अपने भाषण का समापन करते हुए कहा, “मैं निवेदन करना चाहता हूं कि विनोद तिवारी जी तिलक महाराज की गीता को इसी तरह की भाषा में ले आएं। अपनी इन तीनों किताबों के लिए विनोद जी बधाई के पात्र हैं।”

डॉ. विनोद कुमार तिवारी ने पुस्तकों का परिचय देते हुए दक्षिण-पूर्व एशिया में रामकथा के प्रसार के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि रामायण भारतीय संस्कृति का प्रतीक है और संस्कृत विज्ञान की भाषा और गणित की भाषा भी है। उन्होंने विश्व में राम कथा के प्रभाव पर बात करते हुए कहा कि इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता का मूल नाम अयोध्याकर्ता था, जो बिगड़कर जकार्ता हो गया।

प्रो. सुष्मिता पाण्डेय ने कहा “रामायण कथा की विश्व यात्रा पुस्तक में एक चीज मुझे बहुत अच्छी लगी कि डॉ. विनोद तिवारी ने दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के बारे में तो बहुत लिखा है, लेकिन उनका सबसे अभिनव प्रयास इसमें यह है कि उन्होंने कैरिबियाई द्वीपों के जो भारतीय मूल के लोग हैं, जो गिरमिटिया कहलाते हैं, उन्होंने कैसे अपनी मुश्किलों के बावजूद रामायण का प्रसार किया, इसका वर्णन पुस्तक में किया है। संस्कृति वास्तव में हमारी आत्मिक चेतना का ही एक प्रकार है। इसमें एक प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त चेतना है, जो हमें रामायण में स्पष्ट दिखती है। संस्कृति और रामायण का गहरा सम्बंध है। दक्षिण-पूर्व एशिया की बात करें, तो हमारा संबंध वहां से बहुत पुराना है। आर्कियोलॉजिस्ट आई. के. शर्मा ने कहा कि तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व से हमारा संपर्क वहां से रहा है। उनकी सिरामिक वस्तुओं में भारतीय चिह्न मिलते हैं। लौह युग के अंतिम संस्कार स्थलों में भारत से गए कांच और पत्थर के मनके पाए गए। गुप्तकाल में यह सम्बंध और मजबूत हुआ।”

डॉ. शशि तिवारी ने कहा, “तीनों ही पुस्तकें अत्यंत उपयोगी, आकर्षक और रोचक हैं। उनमें विभिन्न प्रकार से आलेख लिखे गए हैं। राष्ट्रीयता की परिभाषा बनाना अत्यंत कठिन माना गया है। अनेक विद्वानों ने प्रयास किया, पर सटीक परिभाषा नहीं बन पाई। जैसे कि किसी एक जाति के लोग जहां रहते हैं, वह राष्ट्र कहलाता है। एक धर्म के लोग जहां रहते हैं, वह राष्ट्र कहलाता है। एक भाषा के लोग जहां रहते हैं, वह राष्ट्र कहलाता है। परंतु भारत में यह आधार लागू नहीं हो सकता, क्योंकि यहां अनेक जातियां, अनेक धर्म, अनेक भाषाओं के लोग रहते हैं। इसलिए राष्ट्र की परिभाषा के संदर्भ में मुझे सबसे अच्छी पुस्तक लगी वासुदेव शरण अग्रवाल की ‘पृथ्वी-पुत्र’। इस पुस्तक का नाम अथर्ववेद के मंत्र “माता भूमिः पुत्रोऽहम् पृथिव्याः” पर आधारित है। इस आधार पर उन्होंने परिभाषा दी- एक निश्चित भूभाग, जन और उनकी संस्कृति- ये तीनों मिलकर राष्ट्र बनाते हैं।” जन की संस्कृति चाहे विविध हो, पर मिलकर एकता बनाती है। यही सांस्कृतिक राष्ट्रीयता है। इसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं होती। संस्कृति के अंतर्गत धर्म, विज्ञान, ज्ञान, दर्शन, कला, संगीत, साहित्य सब आते हैं। हमारे देश में समय-समय पर इसकी एकता को अनुभव किया गया है।”
प्रो. रमेश चंद्र गौड़ ने स्वागत भाषण में कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए कहा कि भारत में 121 भाषाएं ऐसी हैं, जिन्हें दस हज़ार से ज़्यादा लोग बोलते हैं, लेकिन इन सभी भाषाओं में रामायण का अनुवाद नहीं हुआ है। यदि ऐसे भारतीय ग्रंथों का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद नहीं होगा, तो यह ज्ञान आम लोगों तक नहीं पहुंचेगा। यह समय की आवश्यकता है। अंत में उन्होंने अतिथियों, वक्ताओं और आगंतुकों के प्रति आभार भी व्यक्त किया। आईजीएनसीए के समवेत सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में विद्वान, शोधार्थी, विद्यार्थी और साहित्य-प्रेमी उपस्थित रहे।