खिलाफत आंदोलन आजादी नहीं, तुर्की के खलीफा की गद्दी बचाने के लिए था। 

प्रदीप सिंह। 
आज से 106 साल पहले खिलाफत आंदोलन की शुरुआत हुई। जैसे कहा गया है कि लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई। यह आंदोलन कुछ वैसा ही था। इस आंदोलन की शुरुआत तो वैसे तुर्की का समर्थन करने वाले मुसलमानों ने की लेकिन गांधी ने इसको भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ दिया। प्रोफेसर शंकर शरण ने हिंदू महासभा के डॉ. विवेक आर्य को कोट करते हुए इस आंदोलन के बारे में कई तथ्य बताए हैं। उन्होंने लिखा है कि खिलाफत आंदोलन असफल होने पर मुसलमानों का गुस्सा निरपराध हिंदुओं पर दंगे के रूप में फूटा।

गांधी की इस अदूरदर्शिता का परिणाम देश के विभाजन के रूप में सामने आया। जिसका नतीजा आज तक देश भुगत रहा है। प्रोफेसर शंकर शरण लिखते हैं कि भारत में गांधी का पहला बड़ा राजनीतिक अभियान खिलाफत आंदोलन में शामिल होने को लेकर था। यह मुहिम भारतीय मुसलमानों ने तुर्की के खलीफा की खिलाफत को बचाने के लिए शुरू की थी। इसका उद्देश्य था कि तुर्की के बादशाह की गद्दी बची रहे। 1919 में खिलाफत सभाओं में गांधी के भाषण शुरू हुए। खिलाफतवादियों ने 17 अक्टूबर 1919 को खिलाफत दिवस के रूप में मनाया और गांधी ने इसका खूब प्रचार किया। दिल्ली में 23 नवंबर 1919 को पहली खिलाफत कॉन्फ्रेंस हुई, जिसकी अध्यक्षता गांधी जी ने की। इन सम्मेलनों में आंदोलन को विस्तार देने की योजना बनी।
सरकार के दिए हुए पुरस्कारों को वापस करने की घोषणा हुई। इसे लेकर डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भी उनकी किताब थॉट्स ऑन पाकिस्तान में कहा है कि असहयोग आंदोलन का उद्गम खिलाफत आंदोलन था न कि कांग्रेस के स्वराज आंदोलन से यह जुड़ा हुआ था। खिलाफतवादियों ने तुर्की की सहायता के लिए इसे शुरू किया और कांग्रेस ने खिलाफतवादियों की सहायता के लिए इसमें मदद की। इसका मूल उद्देश्य स्वराज्य नहीं खिलाफत था। इसे स्वराज से इसलिए जोड़ दिया गया ताकि इसमें हिंदू भी शामिल हो सके और यह केवल मुसलमानों का आंदोलन न रह जाए। कांग्रेस नेता एनी बेसेंट ने भी लिखा है कि खिलाफत की गांधी एक्सप्रेस की आंधी ऐसी चली कि कांग्रेस की पिछली परंपराएं ध्वस्त हो गई। गांधी जी ने कहा कि खिलाफत मुसलमानों की गाय है। जिस तरह से गाय की हिंदू की पूजा करते हैं, उसी तरह से मुसलमान खलीफा की पूजा करते हैं। विडंबना देखिए भारत में गांधी जी तुर्की के खलीफा को बचाने का खिलाफत आंदोलन चला रहे थे, लेकिन मुस्लिम जगत को इसकी कोई परवाह नहीं थी। बल्कि अरब के मुसलमान तुर्की के खलीफा से छुटकारा पाना चाहते थे। खुद तुर्क लोग खिलाफत के भार से परेशान थे और यह बात तुर्की के सबसे बड़े नेताओं में से एक कमाल पाशा ने कही। इस आंदोलन का नतीजा यह होता कि अगर खलीफा तुर्की का बादशाह बना रहता तो कई देश तुर्की के उपनिवेश बन जाते। गांधी जी ने 12 जून 1920 को यंग इंडिया में लिखा मेरे विचार से तुर्की का दावा बिल्कुल नैतिक और न्यायोचित है। वे वही मांग रहे हैं, जो उनका है। मैं यह नहीं मानता कि तुर्क निर्बल, अक्षम या क्रूर हैं। गांधी जी यह भूल गए कि तुर्की ने 15 लाख आर्मेनियाई लोगों का नरसंहार किया था और इन्हीं तुर्कियों को गांधी जी दयालु बता रहे थे। आज भी देखिए तुर्की का रवैया भारत के प्रति क्या है। भारत का पाकिस्तान से भी कई मामलों में बड़ा दुश्मन तुर्की है। उस समय कहा यह गया था कि गांधी जी खिलाफत आंदोलन में इसलिए शामिल हुए जिससे मुसलमानों का मन बदल जाए। वे हिंदुओं के प्रति नरम हो जाएं और हिंदू मुस्लिम भाईचारा को बढ़ावा मिले। अब यह उनका दिवा स्वप्न था। वे अगर आर्मेनिया को याद करते, तुर्की के शासन को याद करते और मुसलमानों के इतिहास को याद करते तो शायद यह बात कभी न कहते। यहां तक कि पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना ने भी कहा था कि खिलाफत पुराने जमाने की बात हो गई। आज ये नहीं चल सकता। जिन्ना ने तो चेतावनी दी थी कि इन मौलवियों को मंच देना गांधी जी की बहुत बड़ी भूल है। हालांकि चौरीचौरा कांड के बहाने गांधी जी ने यह आंदोलन वापस ले लिया। लेकिन मुसलमानों के मन में आवेश पैदा कर उस आग में हिंदुओं को झोंक कर और एक साल में स्वराज्य का प्रलोभन देकर गांधी ने जो आंधी पैदा की उससे समाज में दरार पैदा हो गई। इस्लाम खतरे में है। इस नारे के साथ जिहादियों में हिंदुओं के प्रति हिंसा का भाव आया। उसका नतीजा क्या हुआ? 1920 में मालाबार में हिंदुओं का नरसंहार, धर्मांतरण और बलात्कार हुआ। बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। हिंदुओं के खिलाफ इस हिंसा की आलोचना करना तो दूर गांधी ने एक तरह से उसका समर्थन किया। उन्होंने मोपला पर प्रस्ताव लाने से कांग्रेस को इसलिए रोक दिया कि अगर ऐसा प्रस्ताव आया तो मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहुंचेगी। हालांकि डॉ. कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी और कांग्रेस के अन्य बहुत से नेता मानते थे कि गांधी एक गलत उद्देश्य के लिए अनैतिक काम कर रहे थे।
मोपला नरसंहार के बाद लाला लाजपत राय, एनी बेसेंट, गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर आदि ने भारी चिंता प्रकट की थी, लेकिन गांधी पर इसका कोई ज्यादा असर पड़ा नहीं। खिलाफत के पक्ष में जो सभाएं हो रही थीं, स्वामी श्रद्धानंद ने उनमें से एक का विवरण देते हुए कहा कि वहां जो भाषण हो रहे थे, उसमें हिंसा की बातें हो रही थीं। उन्होंने गांधी जी से कहा कि ये लोग हिंसा की बातें कर रहे हैं तो गांधी जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि वे ब्रिटिश नौकरशाहों की ओर इशारा कर रहे हैं। इस पर स्वामी श्रद्धानंद ने कहा कि अगर हिंसा का भाव इनके मन में आ गया है तो हिंदुओं के खिलाफ इनको हिंसा करने से कौन रोक पाएगा और वही हुआ। एक लेखक और इतिहासकार हैं स्टेनले वपार्ट। उन्होंने एक किताब जिन्ना ऑफ पाकिस्तान लिखी जो 1984 में प्रकाशित हुई। उन्होंने कहा कि खिलाफत आंदोलन के खात्मे के बाद मुसलमानों ने जगह-जगह पर हिंदुओं के खिलाफ अपना गुस्सा उतारा। उनका कत्ल, धर्मांतरण और बलात्कार किया। लेकिन अहिंसा की बात करने वाले गांधी जी का मोपला नरसंहार पर चुप रहना, उस पर बयान देने और उस पर प्रस्ताव पास करने से कांग्रेस को रोकना उनका दोहरापन दिखाता है।

गांधी जी के इस आंदोलन का यह शताब्दी वर्ष है। उनकी इस एक भूल ने पूरे देश को बहुत बड़ी सजा दी और उस सजा को आज भी हम भुगत रहे हैं। अहिंसा को लेकर गांधी जी का जो सिद्धांत था और व्यवहार में उन्होंने जो कुछ किया, उसमें कई विरोधाभास हैं। आजादी के आंदोलन में क्रांतिकारियों ने जो रास्ता अपनाया गांधी जी ने उसका कभी समर्थन नहीं किया। दूसरे विश्व युद्ध में भारतीयों के अंग्रेजों की तरफ से लड़ने पर उनको कोई ऐतराज नहीं हुआ। इस युद्ध में जो भारतीय मारे गए, वो किसकी लड़ाई लड़ रहे थे? वो उन अंग्रेजों की लड़ाई लड़ रहे थे, जिनके बारे में गांधी जी कह रहे थे कि हम उनसे लड़ रहे हैं। अब इस विरोधाभास को क्या कहा जाएगा कि आप जिनसे लड़ रहे हैं, जिनको अपने देश से निकालना चाहते हैं उन्हीं के देश का साम्राज्य बचाने के लिए अपने देश के लोगों को सैनिक बनाकर सेना में भर्ती करके भेज रहे हैं। सुभाष चंद्र बोस को समझ में आ गया था कि ऐसी अहिंसा से कुछ होने वाला नहीं है तो उन्होंने देश से बाहर निकलकर आजाद हिंद फौज बनाई और ब्रिटिश सरकार पर आक्रमण कर दिया। कल्पना कीजिए कि उस समय जिन लोगों को ब्रिटिश आर्मी में शामिल कराया गया था और जो अंग्रेजों के लिए लड़ने गए थे उन सब लोगों ने अगर नेताजी का साथ दिया होता तो आजादी कितने साल पहले मिल गई होती?

विडंबना है कि मोपला नरसंहार का विरोध न करना और खिलाफत आंदोलन में गांधी जी के शामिल होने की चर्चा इतिहास में बहुत कम आपको सुनने को मिलेगी। इसकी समीक्षा तो होती ही नहीं है। क्योंकि गांधी ने कुछ गलत किया, यह मानने के लिए इस देश का एक बड़ा वर्ग तैयार ही नहीं है। लेकिन अब समय बदल रहा है। अब आलोचना शुरू हुई है। गांधी की आलोचना करने वाले सब लोग सही हैं ऐसा नहीं है, लेकिन जो गलत है उसको गलत कहने का साहस तो होना चाहिए। इतिहास को जिस तरह तोड़ा मरोड़ा गया। छिपाया और कितना गलत तरीके से पेश किया गया आजादी के 79 साल बाद भी अभी तक वह सिलसिला खत्म नहीं हुआ है। अब समय आ गया है कि भारत के असली इतिहास को पेश किया जाए। उसको सामने लाया जाए क्योंकि इतिहास अक्सर विजेताओं का होता है। विजेता इतिहास को अपनी दृष्टि से लिखते हैं। ब्रिटिशर्स ने भी यही किया। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि कांग्रेस पार्टी ने उसको जैसे का तैसा स्वीकार कर लिया। आक्रमणकारियों के इतिहास को कांग्रेस ने न केवल मान्यता दी बल्कि उसको और बढ़ाने और उसका प्रचार प्रसार करने का काम भी किया।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)