प्रमोद जोशी।
ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में ईरान पर प्रतिबंधों का आक्रामक इस्तेमाल किया था, लेकिन वे इनके औचित्य पर संदेह भी व्यक्त करते रहे हैं। पिछले साल न्यूयॉर्क के इकोनॉमिक क्लब में उन्होंने कहा था, प्रतिबंधों के बेतहाशा इस्तेमाल से डॉलर को नुकसान पहुँचता है, क्योंकि प्रभावित देश प्रतिबंधों से बचने के लिए दूसरी मुद्राओं का इस्तेमाल करने लगे हैं।
रूस ने क्रिप्टोकरेंसी का रुख किया है और ब्रिक्स मुद्रा की बात शुरू की है, ताकि ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश डॉलर पर अपनी निर्भरता कम करें।
रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार चीन की सरकारी रिफाइनरियों ने समुद्री रास्ते से आने वाले रूसी खनिज तेल की ख़रीद ज़रूर रोकी है, पर कुछ रिफ़ाइनर पाइपलाइन के ज़रिए भी अच्छी मात्रा में आयात कर रहे हैं।
भारतीय रिफाइनर रूसी कच्चे तेल का आयात तीसरे और यहाँ तक कि चौथे पक्ष के व्यापारियों के माध्यम से भी करते हैं, जिन्हें काली सूची में नहीं डाला गया है। वे अपनी खरीदारी में कटौती शायद तभी करेंगे सरकार उन्हें ऐसा करने का निर्देश देगी।
भारत पर असर

ट्रंप बार-बार कह रहे हैं कि भारत अब रूस से तेल नहीं खरीदेगा। बेशक कमी ज़रूर आएगी। यह कितनी होगी और भारत वैकल्पिक व्यवस्था क्या करेगा, यह देखना है। भारत को यह भी साबित करना है कि वह अमेरिकी दबाव में नहीं है।
मीडिया रिपोर्ट बता रही हैं कि भारत-अमेरिका व्यापार वार्ता अब निर्णायक मोड़ पर है। इसकी व्याख्या करते हुए, वरिष्ठ अधिकारी ने कहा: सैद्धांतिक रूप से, हम सहमत हो गए हैं और सौदे के पाठ को अंतिम रूप दे रहे हैं।
शायद इन पंक्तियों के प्रकाशित होने तक यह काम भी हो गया होगा। जहाँ तक सौदे का सवाल है, दोनों पक्षों में कमोबेश सहमति है, पर अंतिम घोषणा के लिए राजनीतिक सहमति चाहिए।
इसका मतलब है कि पेच केवल आर्थिक-रिश्तों में नहीं हैं, बल्कि कहीं और है। वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने शुक्रवार को बर्लिन में संकेत दिया था कि भारत से कोई भी समझौता ‘सिर पर बंदूक’ रखकर नहीं किया जा सकेगा।
ट्रंप क्या पंगा लेंगे?
ब्रिटिश साप्ताहिक ‘इकोनॉमिस्ट’ का अनुमान है कि फौरी तौर पर इस टकराव से रूस के तेल-निर्यात में कमी आ जाएगी, पर असली कमी लाने के लिए अमेरिका को या तो मोदी को संतुष्ट करना होगा, या फिर खुलकर पंगा लेना होगा। यानी किभारतीय तथा चीनी रिफाइनरियों और बैंकों पर प्रतिबंध लगाने होंगे।
Courtesy: The Economic Times Hindi
बेशक रूसी तेल का भारत पूर्ण बहिष्कार करेगा, तो रूस को बड़ा धक्का लगेगा, पर इससे वैश्विक कीमतों में कम से कम 10-15डॉलर प्रति बैरल की वृद्धि होगी। सवाल है कि ट्रंप किस हद तक जाने को तैयार हैं?
अमेरिकी प्रतिबंधों के वास्तविक प्रभाव का आकलन करना अभी जल्दबाजी होगी। सरकारी रिफाइनरियाँ जोखिमों का मूल्यांकन कर रही हैं। यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि अब जो भी रूसी तेल खरीदें, वह सीधे रोज़नेफ्ट, लुकॉइल और उनकी शाखाओं से नहीं लिया जाए। बैंकों से भी अपेक्षा की जा रही है कि वे प्रतिबंधित संस्थाओं से लेन-देन से बचें, ताकि वाशिंगटन से अतिरिक्त प्रतिबंधों के जोखिम से बचा जा सके।
नीतिगत स्वायत्तता
भारत की दीर्घकालीन नीतियाँ भी कसौटी पर हैं। हम किसी के भी इस निर्देश को नहीं मानेंगे कि हमें किसके साथ व्यापार करना है और किसके साथ नहीं। खासकर जब बात रूस की हो, जो हमारा पुराना और प्रमुख साझेदार है।
रूस के विरुद्ध प्रतिबंध और निर्यात नियंत्रण सुरक्षा परिषद के किसी प्रस्ताव से नहीं आए हैं, बल्कि इन्हें एकतरफा तौर पर एक गठबंधन ने लागू किया है। इस गठबंधन का नेतृत्व मुख्य रूप से जी-7और यूरोपीय संघ कर रहे हैं।
भारत हमेशा एकतरफा प्रतिबंधों का विरोधी रहा है। 1974और 1998में जब भारत ने परमाणु परीक्षण किए थे, तब हमारे देश पर भी ऐसे प्रतिबंध लगाए गए थे। भारत का कहना है कि हम संरा सुरक्षा परिषद के प्रतिबंधों का पालन करते हैं, किसी देश-विशेष की ओर से लगाए गए एकतरफा प्रतिबंधों का नहीं।
दूसरी तरफ भारत ने ट्रंप के पहले कार्यकाल में ईरान पर लगाए गए एकतरफ़ा प्रतिबंधों का सम्मान भी किया था। हालाँकि वे प्राथमिक प्रतिबंध थे, सेकंडरी नहीं, जो अब रूस पर लगे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)



