पहली बार किसी ने इस सच को बोलने का साहस दिखाया।

प्रदीप सिंह।
कई बीमारियां या सच्चाइयां ऐसी होती हैं, जिनको छिपा कर रखा जाता है। उसका नतीजा यह होता है कि वे एक दिन भयावह रूप में सामने आती हैं। ऐसी ही एक सच्चाई, जिसे बोलने की भारत में किसी ने हिम्मत नहीं की, उसे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पहली बार बोला है । वह सच्चाई है राजनीतिक इस्लाम। जिसका दंश भारत शताब्दियों से झेल रहा है। योगी आदित्यनाथ हाल ही में एक कार्यक्रम में कहा कि अंग्रेजों ने जो कुछ किया, जो उनका उपनिवेशवाद था, उसकी खूब चर्चा होती है। उसके बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा गया है। आखिर राजनीतिक इस्लाम की चर्चा क्यों नहीं होती? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका उत्तर खोजकर भारत आगे का रास्ता आसान कर सकता है। इस सच्चाई को हम और ज्यादा छिपाएंगे तो हमें और ज्यादा कष्ट भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। आखिर यह राजनीतिक इस्लाम है क्या? प्रोफेसर शंकर शरण ने इसका सार बखूबी बताया है। दरअसल गैर इस्लामी लोगों के साथ इस्लाम का व्यवहार ही राजनीतिक इस्लाम है। यह राजनीतिक इस्लाम देश को एक बार फिर बांटना चाहता है। देश के विभाजन के मूल में यह राजनीतिक इस्लाम ही था। मार्च 1940 में मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा था कि हिंदू और मुसलमान दोनों अलग-अलग हैं। दोनों भिन्न सभ्यताओं से जुड़े हैं। एक के लिए जो नायक है, वह दूसरे के लिए खलनायक है। शायद वह मुस्लिम और मुगल आक्रांताओं का जिक्र कर रहे थे। जिन्ना ने इसी राजनीतिक इस्लाम को देश के बंटवारे का आधार बनाया और इसी के आधार पर देश का बंटवारा किया जिसे कांग्रेस ने स्वीकार कर लिया।

नोबेल विजेता वीएस नायपाल की 1977 में एक किताब आई थी। उसका नाम है भारत एक आहत सभ्यता। उसमें उन्होंने जिस घाव का जिक्र किया, वह इस्लामी आक्रांताओं द्वारा दिया गया घाव है। उन्होंने लिखा है कि दुनिया में कोई और ऐसा देश या सभ्यता नहीं है, जिसने अपनी बर्बादी से इतना कम सबक सीखा हो। इसी तरह से डॉ. भीमराव अंबेडकर की किताब है पाकिस्तान या भारत का विभाजन। उसमें उन्होंने लिखा है कि मुस्लिम राजनीति मूलत: मुल्लाओं की राजनीति है और वह हिंदुओं और मुसलमानों के बीच के फर्क को मान्यता देती है। मुसलमान के लिए मजहब ही सब कुछ है। जिसको यह गलतफहमी हो कि राष्ट्र के लिए वह मजहब को पीछे कर देगा, उसकी गलतफहमी दूर हो जानी चाहिए।

मुसलमान जहां कम संख्या में होते हैं, वहां छल और दिखावे का इस्तेमाल करते हैं। यह उनकी सोची समझी रणनीति है। जिसको अलतकैया कहा जाता है। मुस्लिम राजनीति की एक खासियत यह है कि वह विक्टिम कार्ड खेलकर अपनी राजनीति को आगे बढ़ाते हैं। दुख की बात यह है कि भारत के कई राजनेता और बुद्धिजीवी इस राजनीतिक इस्लाम के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करते, जिसकी ओर योगी ने इशारा किया है। डॉ. रामधारी सिंह दिनकर ने भी संस्कृति के चार अध्याय में लिखा था कि मुस्लिम आक्रांताओं ने जो घाव दिया, जिस तरह से मंदिर तोड़े, मूर्तियां तोड़ी। मुसलमानों ने इस पर कभी कोई अफसोस जाहिर नहीं किया।

राजनीतिक इस्लाम की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उनके जो शिकार हैं, वही उनके बचाव में सबसे आगे खड़े हो जाते हैं। इसलिए हम देखते हैं कि हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग कभी सेकुलरिज्म के नाम पर, कभी भाईचारे के नाम पर तो कभी गंगा जमुनी तहजीब के नाम पर उनके बचाव में खड़ा रहता है। पंकज सक्सेना ने अपनी किताब में कहा है कि यह एक वैचारिक लड़ाई है और इस वैचारिक लड़ाई को अगर हम वैचारिक स्तर पर नहीं लड़ेंगे तो ऐसा दिन आएगा जब हमको इसको भौतिक रूप से लड़ना पड़ेगा। भारत शताब्दियों से राजनीतिक इस्लाम के निशाने पर है। भारत को इस्लामी देश बनाने की कोशिश आज से नहीं, शताब्दियों से हो रही हैं। इस्लाम के मानने वाले इसे अपनी सबसे बड़ी नाकामी मानते हैं कि वे अभी तक भारत को इस्लामी देश नहीं बना पाए और यहां शरिया लागू नहीं कर पाए।

हमारे संविधान में भी समय-समय पर कांग्रेस की सरकारों द्वारा जिस तरह के संशोधन किए गए चाहे वह प्लेसेस ऑफ वरशिप एक्ट हो या वक्फ कानून हो, वे दरअसल भारत को शरिया कंप्लायंट बनाने के लिए बने हैं। राजनीतिक इस्लाम की चुनौती आज हमारे सामने और ज्यादा विकराल रूप में खड़ी है। लेकिन पिछले 79 सालों में हम सिर्फ पानी पर लाठी मारते रहे हैं। आजादी के पहले की बात छोड़ भी दें तो आजादी के बाद भी हमने उसका साथ दिया, उसके बचाव में खड़े हुए, जिसने हमको पीड़ा पहुंचाई। इस राजनीतिक इस्लाम के खतरे पर जब तक विचार नहीं करेंगे और उसके विरोध में खड़े नहीं होंगे तब तक देश की एकता, अखंडता को खतरा बना रहेगा।

दरअसल राजनीतिक इस्लाम का असली उद्देश्य कुरान या इस्लाम की रक्षा करना नहीं है। इसका उद्देश्य है गैर मुसलमानों को अपने अधीन करना। इसका उद्देश्य है इस देश का एक और बंटवारा या कई और बंटवारे कराना। अभी हाल ही में दिल्ली दंगों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के सामने पुलिस ने जो हलफनामा दायर किया है, उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यह देश में तख्ता पलट की योजना थी। दंगे के पीछे जो सूत्रधार थे, उनका उद्देश्य क्या था? यह तो कोई छिपी हुई बात है नहीं। बिहार में हाल ही में पीएफआई के जो दस्तावेज पकड़े गए, उसमें भी 2047 तक भारत को शरिया कंप्लायंट बनाने की योजना थी। पीएफआई का पॉलिटिकल ऑर्गन है एसडीपीआई, जिसका कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां समर्थन करती हैं। तो जान लीजिए खतरा कितना बड़ा है। योगी आदित्यनाथ ने सारे राजनीतिक दलों से कहा है कि छिप-छिप कर खेल खेलना बंद कीजिए। खुले में आकर जो असली खतरा है, उसका सामना कीजिए। देश की एकता, अखंडता और संस्कृति के सामने अगर कोई सबसे बड़ी चुनौती है तो वह राजनीतिक इस्लाम है। इस राजनीतिक इस्लाम को बचाने के लिए किस-किस तरह के खेल किए जाते हैं, यह समझने की जरूरत है। जो इसका विरोध करते हैं, उनसे कहा जाता है कि आप देश में सामाजिक विद्वेष पैदा करना चाहते हैं। सांप्रदायिकता फैलाना चाहते हैं।

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पंकज सक्सेना की किताब में क्रिश्चियनिटी को कल्चरल स्नाइपर कहा गया था। यह लंबे समय तक चुपचाप बैठकर सही समय सही मौके का इंतजार करते हैं, लेकिन राजनीतिक इस्लाम 24 घंटे और साल के पूरे 365 दिन सक्रिय रहता है। अलग-अलग रूप में, अलग-अलग मुद्दों को लेकर उसकी सक्रियता कभी रुकती नहीं है। कभी सीएए तो कभी किसी अन्य एक्ट के विरोध में कोई ना कोई मुद्दा उठाकर वह लगातार अपना एजेंडा चलाता रहता है। किसी रणनीति की इससे बड़ी जीत और क्या हो सकती है कि आपकी रणनीति जिसके खिलाफ है, जिसको नष्ट करने के लिए है, जिसका अस्तित्व मिटाने के लिए है, वही लोग उसके बचाव में खड़े हो जाएं।

भारत क्यों गुलाम रहा, उसके कारण क्या थे, हमारी कमजोरी क्या थी, उस कमजोरी को दूर करने के लिए हमने क्या किया इस पर तो विचार किया ही जाना चाहिए था। लेकिन आजादी के बाद हमने किया ठीक इसका उल्टा। अपनी कमजोरी को बढ़ाने का काम किया। आप दुनिया में किसी भी देश में ये कल्पना कर सकते हैं जैसा भारत में हुआ। भारत में ज्यादातर सनातन धर्म के मानने वाले हैं। उनके मंदिर तोड़ दिए गए, मूर्तियां तोड़ दी गईं, लेकिन उनको फिर से लेने के लिए अदालत में भी नहीं जा सकते। कानूनी रास्ता भी नहीं अपना सकते और हमने चुपचाप इसे स्वीकार कर लिया। अब अदालत में जाने की कोशिश जो लोग कर रहे हैं, उनको सांप्रदायिक कहा जा रहा है। कहा जा रहा है हिंदुओं का नेता बनने की कोशिश कर रहे हैं। आखिर हिंदुओं का नेता बनने में बुराई क्या है? अगर कोई हिंदुओं के लिए खड़ा होता है, उनके मुद्दों के लिए खड़ा होता है, उनकी संस्कृति के बचाव में खड़ा होता है, उनके धर्म के बचाव में खड़ा होता है, यह तो आज के परिवेश में बहुत ही साहस का काम है। ऐसे लोगों की सराहना की जानी चाहिए। लेकिन हमारे विरोधी, जो इस्लाम को मानने वाले हैं, उनकी नजर में ये खलनायक हैं। विडंबना तो यह है कि कई हिंदू भी इन्हें खलनायक बताते हैं। इन्हीं को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करते हैं। इसीलिए किसी भी बीमारी के इलाज के लिए जरूरी है डायग्नोसिस। फिर बीमारी का कारण क्या है? उसके बाद इलाज शुरू होता है। यहां तो हम अपनी बीमारी को स्वीकार करने को ही तैयार नहीं है। इलाज का की स्थिति तो तब आएगी जब बीमारी को स्वीकार करेंगे और उसकी जांच पड़ताल कराएंगे। इस बीमारी को बढ़ाने में देश के नहीं देश के बाहर के तत्व भी सक्रिय हैं। एनजीओ और राजनीतिक दलों के जरिए बाहर से पैसा आ रहा है। दुनिया भर के अखबारों, पत्रिकाओं, टेलीविज़न चैनलों और दूसरे माध्यमों से भारत की संस्कृति के खिलाफ अभियान चलाया जा रहा है। अभी हाल में आपने अमेरिका के उपराष्ट्रपति जे डी वेंस का बयाान देखा होगा। उनकी पत्नी हिंदू हैं जबकि जेडी वेंस क्रिश्चियन हैं। एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि वह उम्मीद करते हैं कि उनकी पत्नी भी ईसाई धर्म स्वीकार कर लेंगी। यह किस तरह की मानसिकता है? यह मानसिकता वही है कि दूसरे धर्म के लोग हमें बर्दाश्त नहीं है। अगर हमसे दोस्ती करनी है, हमसे संबंध रखना है तो हमारे मजहब को स्वीकार करो। यही है इस्लाम और क्रिश्चियनिटी का मूल उद्देश्य कि उन्हीं से दोस्ती हो सकती है, जो हमारे मजहब को स्वीकार कर लें। अगर आप हमारे मजहब को स्वीकार करने से मना करते हैं तो आप हमारे दोस्त नहीं हो सकते।

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यह जो गंगा जमुनी तहजीब की बात होती है, इससे बड़ा फ्रॉड भारत में कुछ नहीं हुआ। इसके बारे में मुसलमानों से भी ज्यादा हिंदू बोलते हैं। हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग है, जो बड़े गर्व से कहता है कि इस देश में गंगा जमुनी तहजीब है। कोई उनसे पूछे भाई कि जो आपका सिर कलम करे। सिर तन से जुदा का नारा लगाए उसको आप गले लगा लें। यह कौन सी संस्कृति है?

हमारे देश के राजनीतिक लोग मन भावन बोलना चाहते हैं। ऐसा बोलना चाहते हैं जिसका कोई विरोध न करे। भले ही वह झूठ हो। वे सच्चाई को दबाने की कोशिश करते हैं या सच्चाई से बचने की कोशिश करते हैं। योगी आदित्यनाथ उन नेताओं में नहीं है। इसलिए उन्होंने यह साहस दिखाया। काश आजादी के आंदोलन के दौरान हमारे जो नेता थे, उन्होंने भी राजनीतिक इस्लाम के खिलाफ खड़े होने का साहस दिखाया होता तो या तो देश का बंटवारा नहीं होता या बंटवारा ऐसा होता कि आज हमें उसकी पीड़ा, उसका दंश ना झेलना पड़ता।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)