चुनाव सिर्फ अर्थमेटिक से नहीं जीते जाते।
प्रदीप सिंह।
हिंदी की एक फिल्म आई थी अर्थ। उसमें जगजीत सिंह की एक गजल है- तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या गम है जिसको छुपा रहे हो। उसी की आगे दो लाइनें हैं- रेखाओं का खेल है मुकद्दर, रेखाओं से मात खा रहे हो। इसको अगर पैरोडी बनाकर राजनीति में लाना हो फिर उसको बिहार की राजनीति पर चस्पा करना हो तो कह सकते हैं कि केमिस्ट्री का खेल है चुनाव, केमिस्ट्री से मात खा रहे हो। चुनाव में दो चीजें बेहद महत्वपूर्ण होती हैं। एक है अर्थमेटिक यानी संख्या बल। किस पार्टी या किस गठबंधन के पास समाज के कितने वर्गों का क्या संख्या बल है? और दूसरा है केमिस्ट्री। इसका इस्तेमाल चुनावी राजनीति में बहुत होता है और मैं अंग्रेजी के इस शब्द को ‘सामंजस्य’ से रिप्लेस करना चाहता हू। यानी आपस में सामंजस्य कितना है। केवल अर्थमेटिक या संख्या बल से चुनाव के नतीजे पर असर नहीं पड़ता, जब तक सामंजस्य न हो।

बिहार में 2005 जब से भाजपा और जेडीयू यानी नीतीश कुमार साथ आए दोनों की केमिस्ट्री पर नजर डालिए तो 2010 के चुनाव में यह केमिस्ट्री या सामंजस्य अपने पीक पर था। उसी का नतीजा रहा कि 2010 के विधानसभा चुनाव में एनडीए को 243 में से 206 सीटें मिली थीं। इसी तरह 2020 के चुनाव में भी भाजपा-जदयू न केवल साथ थे बल्कि कुछ और छोटे दल साथ आ गए थे। इसके बावजूद उस तरह का सामंजस्य नहीं था जैसा 2010 में था। चिराग पासवान ने तो उस चुनाव में परस्पर अविश्वास के भाव को बढ़ा दिया था और जेडीयू व नीतीश कुमार के खिलाफ कैंपेन किया। दूसरा फैक्टर यह था कि 2020 के चुनाव में बिहार का सवर्ण मतदाता नीतीश से नाराज था तो इसलिए भी सामंजस्य नहीं था। उसने खुलकर वोट किया बीजेपी के लिए लेकिन जेडीयू के लिए उस तरह से वोट नहीं किया। तो जेडीयू पहली बार गठबंधन में नंबर दो की पार्टी बन गई और पूरे बिहार की बात करें तो वह नंबर तीन की पार्टी रह गई। बहुत से लोग उदाहरण देते है कि 2015 का चुनाव राजद और जदयू मिलकर अर्थमेटिक से जीत गए लेकिन मेरा मानना है कि उसमें अर्थमेटिक यानी संख्या बल और सामंजस्य दोनों था। उसकी अर्थमेटिक केमिस्ट्री में इसलिए बदल पाई कि दोनों पार्टियों का उद्गम स्थल एक ही था। दोनों जनता दल से निकले हुए थे। तो ऐसा नहीं था कि वह बेमेल गठबंधन था। सामाजिक स्तर पर वह जरूर बेमेल था क्योंकि अति पिछड़े यादवों से परेशान थे और अति पिछड़ों के नेता थे नीतीश कुमार। यादवों के अत्याचार से बचने के लिए अति पिछड़ों को लगा कि नीतीश कुमार उनको सुरक्षा दे सकते हैं और ऐसा ही हुआ भी। उस चुनाव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण पर बयान को भी जिस तरह तोड़ मरोड़कर पेश किया गया, उससे भाजपा को खासा नुकसान हुआ। राजद और जदयू ने आरक्षण खत्म होने का जो भय दिखाया उससे सारे पिछड़े एक हो गए और इसका लाभ महागठबंधन को मिला।

अब इस चुनाव की बात। कुछ दूसरे राज्यों के भी उदाहरण देख लें तो बात समझने में थोड़ा आसानी हो जाएगी। 2019 के लोकसभा चुनाव में कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी और जेडीएस (जनता दल सेकुलर) ने गठबंधन कर लिया। दोनों ने देखा कि उनके वोट अगर जुड़ जाएं तो उन्हें जीतने से कोई रोक नहीं सकता है। नतीजा आया तो दोनों को नुकसान हुआ। जुड़कर बढ़ने की बजाय दोनों के वोट कम हो गए और फायदा मिला बीजेपी को। जेडीएस का बड़ा वोट बैंक बीजेपी की तरफ शिफ्ट हो गया। तो यहां अर्थमेटिक फेल हो गया क्योंकि दोनों के बीच में उस तरह का सामंजस्य नहीं बन पाया जो चुनाव जीतने के लिए जरूरी होता है। इसी तरह से उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का समझौता हुआ। वहां न तो अर्थमेटिक काम कर रही थी और ना केमिस्ट्री। अर्थमेटिक इसलिए नहीं कि कांग्रेस के पास कुछ था नहीं। दूसरे कोई सामंजस्य भी नहीँ था। नतीजा यह हुआ कि दोनों डूब गए। सपा 224 से 47 पर आ गई और कांग्रेस पार्टी मात्र सात सीटों पर सिमट गई। 2019 के लोकसभा चुनाव में अर्थमेटिक को ध्यान में रखते हुए यूपी में सपा और बसपा का गठबंधन हो गया। दोनों का संख्या बल देखिए तो फिर उसमें जीत में कोई शंका नहीं थी। लैंडस्लाइड विक्ट्री होनी चाहिए थी। लेकिन नहीं हुआ क्योंकि केमिस्ट्री नहीं बनी। बसपा के मतदाताओं को सपा पर भरोसा नहीं हुआ तो बसपा का वोट सपा को ट्रांसफर नहीं हुआ। नतीजतन बसपा 10 व सपा 5 सीटें ही जीत पाई। तो केवल संख्या बल के आधार पर चुनाव में जीत सुनिश्चित नहीं की जा सकती जब तक उसके साथ केमिस्ट्री का सामंजस्य न बने।
बिहार में 2025 और 2020 के चुनाव में एक बड़ा अंतर है। हालांकि संख्या बल दोनों ही गठबंधनों का लगभग समान है। 2025 में केवल यह हुआ है कि उपेंद्र कुशवाहा एनडीए के साथ आ गए हैं और मुकेश सहनी एनडीए से निकल कर महागठबंधन की ओर चले गए हैं। बिहार में आरजेडी के पास मुसलमान और यादव का लगभग 32% का सॉलिड वोट बैंक है। इसके बावजूद 2010 के चुनाव में, जब लालू प्रसाद यादव भी पूरी तरह सक्रिय थे, आरजेडी 23 सीटों पर सिमट गई थी। लेकिन 2013 में नीतीश कुमार एनडीए छोड़कर चले गए और आरजेडी से समझौता कर लिया। 2015 में जब इस गठबंधन ने चुनाव लड़ा तो उसका नतीजा यह हुआ कि आरजेडी का रिवाइवल हो गया। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से खासकर पिछले 10 सालों में देश में एक फिनोमना बहुत तेज हो गया है। अब पुरुषों की तुलना में महिलाएं ज्यादा बढ़-चढ़कर मतदान में हिस्सा ले रही हैं और महिलाओं के एक बड़े हिस्से का रुझान बीजेपी और उसके गठबंधन की पार्टियों के साथ है। बिहार में महिला मतदाताओं की पहली पसंद नीतीश कुमार हैं। कोई भी वर्ग 100 फीसदी किसी के लिए वोट नहीं करता है। तो यह नहीं कह सकते कि महिलाओं का सारा वोट एनडीए को ही मिलेगा लेकिन महिलाओं के वोट का बड़ा बहुमत एनडीए को मिलेगा और इस बार और ज्यादा मिलने वाला है। सरकार की योजनाएं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार का साथ और एनडीए में जो इस बार जो सामंजस्य है, उनके बीच में जिस तरह की केमिस्ट्री बनी हुई है वह बताती है कि यह चुनाव एनडीए बड़े बहुमत से जीतने जा रहा है। इस चुनाव की तुलना अगर किसी पिछले चुनाव से की जा सकती है तो वह 2010 का चुनाव है। क्या वहां तक एनडीए पहुंचेगा? यह एक बड़ा प्रश्न है। लेकिन एनडीए 2020 में जहां था उससे बहुत आगे जाता हुआ दिखाई दे रहा है।

तेजस्वी यादव की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उनके पास इतना बड़ा वोट बैंक होते हुए भी उनकी अलायंस पार्टनर कांग्रेस उनकी टांग खींचने का काम करती है। 2020 में भी बिहार के मतदाताओं ने तेजस्वी को लगभग सत्ता के दरवाजे तक पहुंचा दिया था लेकिन कांग्रेस ने टांग पकड़ कर खींच लिया। इस बार भी साफ-साफ नजर आ रहा है कि कांग्रेस की पूरी कोशिश है कि आरजेडी कमजोर हो। कांग्रेस को लग रहा है कि बिहार में अगर उसको फिर से उठकर खड़ा होना है तो आरजेडी का कमजोर होना जरूरी है। दोनों दलों के बीच केमिस्ट्री यानी सामंजस्य की भारी कमी है। मेरा मानना है कि तेजस्वी यादव अपनी पीक भी पार कर चुके हैं। 2020 उनका शिखर था। उससे अब उन्हें नीचे ही आना है और आ रहे हैं और इसका सबसे बड़ा प्रमाण 2024 का लोकसभा चुनाव था। जब 40 में से सिर्फ चार सीटें वह जीत सके थे। जबकि राज्य में उस समय बीजेपी और जेडीयू कमजोर दिख रही थीं। नीतीश कुमार के प्रति एक फटीक फैक्टर बन रहा था। इस विधानसभा चुनाव में स्थिति काफी बदल गई है। एनडीए मेँ 2010 के बाद सबसे अच्छा सामंजस्य है तो इस बार है। साथ ही एक और एडिशनल फैक्टर जुड़ा है जो 2010 में नहीं था वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विश्वसनीयता और उनकी लोकप्रियता का है। नीतीश कुमार की सरकार ने महिला मतदाताओं के लिए जिन योजनाओं की घोषणा की है, उनका भी असर है। महिला मतदाताओं के लिए देखिए दो चीजें बड़ी महत्वपूर्ण होती हैं। आर्थिक स्वतंत्रता और कानून व्यवस्था। यह नीतीश कुमार के राज्य में हुआ है।
तेजस्वी यादव की बिहार से बाहर कोई राजनीति नहीं है। उनकी राजनीति की सबसे बड़ी समस्या है केमिस्ट्री यानी सामंजस्य। सामंजस्य केवल यादव और मुस्लिम में है। इस वर्ग के बाहर सामंजस्य कहीं नहीं है। अति पिछड़ा वर्ग को वह जोड़ नहीं पाए हैं। मुकेश सहनी की पार्टी के साथ अलायंस जरूर हो गया है, लेकिन दोनों पार्टियां कितना मिलकर चुनाव लड़ रही हैं, यह बताना मुश्किल है। दूसरी ओर एनडीए में इसबार बीजेपी, जेडीयू, चिराग पासवान, जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा के बीच सामंजस्य चरम पर दिख रहा है। यह केमिस्ट्री यानी सामंजस्य ही इस बार के चुनावी नतीजे को निर्धारित करेगी।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)



