बिहार के जनादेश में राहुल, इंडी गठबंधन का सरेंडर।
प्रदीप सिंह।भारतीय राजनीति में इन दिनों एक शब्द बड़ी चर्चा में है और वह शब्द है सरेंडर। इसे चर्चा में लाने वाले हैं राहुल गांधी। ऑपरेशन सिंदूर के बाद जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह दावा करना शुरू किया कि मैंने युद्ध रुकवा दिया तो उस बात को लेकर राहुल गांधी ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्रंप के सामने सरेंडर कर दिया। हालांकि दुनिया और हमारे देश में इस बात को मानने वाला कोई नहीं है। वैसे भी राहुल गांधी की सभी बातें ऐसी होती हैं,जिनको मानने वाला कोई नहीं होता। लेकिन असल में बिहार विधानसभा चुनाव में सरेंडर किसका हुआ और किसने कराया।

आप कह सकते हैं कि चुनाव के जो नतीजे आए हैं,उसके हिसाब से आरजेडी अपने न्यूनतम के करीब पहुंच गई है। 2010 में वह 23 सीटों पर थी, इस बार उसे कुल जमा 25 सीटें ही मिली हैं। तो यह आरजेडी या लालू प्रसाद यादव या तेजस्वी यादव का सरेंडर है। अब यहां से उसके लिए उठ पाना बहुत मुश्किल है। हालांकि आरजेडी समर्थक 2010 के नतीजों को याद दिलाते हुए कहते हैं कि वह एक बार फिर उठ खड़ी होगी, लेकिन वे परिस्थितियों को भूल जाते हैं। आरजेडी 2015 में इसलिए उठकर खड़ी नहीं हो गई कि वह ताकतवर हो गई थी,वह सिर्फ इसलिए खड़ी हो गई कि नीतीश कुमार उनके साथ चले गए थे। लेकिन नीतीश कुमार अब बार-बार कह रहे हैं कि वे एनडीए छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे। वैसे भी अब उनकी राजनीति का संध्या काल है। वह कब रिटायर होंगे,कोई नहीं जानता है,लेकिन यह चुनाव उनका आखिरी चुनाव था, यह मानकर चलने में कोई हर्ज नहीं है।
तो फिर लौट कर मूल बात पर आते हैं कि बिहार विधानसभा चुनाव में सरेंडर किसका हुआ और किसने कराया? 2023 के लोकसभा चुनाव से पहले राष्ट्रीय स्तर पर एक गठबंधन बना, जिसका नाम रखा गया आईएनडीआईए। यह गठबंधन बनाने वालों को लगा कि इंडिया के नाम पर यह देश से जुड़ जाएगा और देशवासी हमको समर्थन दे देंगे। लेकिन चुनाव में उनको बड़ा धक्का लगा। हालांकि धक्का इंडी गठबंधन बनते ही लगने लगा था जब वह अपना कोई कन्वीनर नहीं चुन पाया। अध्यक्ष नहीं चुन पाया। गैर कांग्रेसी पार्टियां राहुल गांधी को किसी भी रूप में किसी भी पद पर इस संगठन में नहीं देखना चाहती थीं। उस समय भी नाम चला किसका? ममता बनर्जी का। जब देखा गया कि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा कर रही है तो मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम उछाल दिया गया कि वे दलित हैं, कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, इस नाते उनको होना चाहिए।

एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि संसदीय जनतंत्र में नेता वही होता है जो वोट दिला सके। गांधी परिवार की वह शक्ति खत्म हो चुकी है। अब गांधी परिवार का लोगों पर जादू नहीं चलता। तो बिहार विधानसभा चुनाव का एक नतीजा तो यह है कि बहुत भारी बहुमत से एनडीए जीता। नीतीश कुमार ने दसवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। इस चुनाव में जिस तरह से मतदाता ने कंटिन्यूटी का संदेश दिया,उसी तरह का संदेश मंत्रिमंडल का गठन भी देता है। मंत्रिमंडल में आश्चर्यजनक रूप से कोई शामिल हो गया हो या हटा दिया गया हो, ऐसा नहीं है। अब दो बातों पर मामला टिका हुआ है जिस पर नीतीश कुमार मानने को तैयार नहीं हो रहे। एक है विधानसभा अध्यक्ष का पद और दूसरा सरकार में गृह मंत्री का पद। पिछली विधानसभा में विधानसभा अध्यक्ष का पद बीजेपी के पास था। चूंकि अब भी बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी है तो उसका दावा बनता है और जिस तरह का एनडीए का गणित है, उसमें यह पद बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यह किसी को पता नहीं कि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री तो बन गए हैं लेकिन कितने समय तक रहेंगे। कोई उनको हटाने नहीं जा रहा है। लेकिन नीतीश कुमार जिस हालत में हैं वे मुख्यमंत्री के रूप में बहुत समय तक नहीं चलने वाले। इसलिए संभावनाएं और आशंकाएं दोनों बनी हुई हैं। सरकार को कोई खतरा नहीं है, लेकिन गठबंधन के अंदरूनी समीकरणों में बदलाव की पूरी संभावना है। तो पहली चीज तो ये जो जनादेश था वो कंटिन्यूटी का था और उस जनादेश का भाजपा और एनडीए के उसके दूसरे साथी दलों ने सम्मान किया है। लेकिन फिर लौट कर आता हूं उसी बात पर कि दरअसल किसने सरेंडर किया। सरेंडर किया कांग्रेस और इंडी गठबंधन ने। बिहार चुनाव ने इंडी गठबंधन के ताबूत में आखिरी कील ठोक दी है। कांग्रेस पार्टी ने सीधे-सीधे नहीं कहा कि इस गठबंधन से हम अलग हो रहे हैं या इसको खत्म कर रहे हैं, लेकिन संकेतों से स्पष्ट कर दिया कि इंडी गठबंधन खत्म। यह मुश्किल से दो साल चला। लोकसभा चुनाव से पहले यह इस उम्मीद में बना था कि नरेंद्र मोदी को हरा देंगे और सरकार बनाएंगे। सरकार बनाना तो दूर आपस में साथ भी नहीं रह पाए। लोकसभा चुनाव में 99 सीट जीतकर कांग्रेस ने इस तरह से व्यवहार करना शुरू कर दिया जैसे उसको बहुत भारी जनादेश मिल गया हो। राहुल गांधी ने मान लिया कि वह डी फैक्टो प्राइम मिनिस्टर तो बन चुके हैं,लेकिन महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली और बिहार में विधानसभा चुनावों के नतीजों ने उनकी गलतफहमी बहुत जल्द दूर कर दी। इनमें महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव तो सबसे अहम रहा। वहां लोकसभा चुनाव में जिन दलों कांग्रेस,शरद पवार की पार्टी और उद्धव ठाकरे की पार्टी ने बेहतर प्रदर्शन किया था, उन सबका सफाया हो गया। महाराष्ट्र में उत्तर प्रदेश के बाद लोकसभा की सबसे ज्यादा 48 सीटें हैं,वहां का झटका कांग्रेस के लिए बहुत बड़ा था। इसके बाद इंडी गठबंधन को बिहार में बड़ी उम्मीदें थीं। हालांकि किसी ने इंडी गठबंधन का नाम नहीं लिया। महागठबंधन बोलते रहे। तो ये इंडी गठबंधन और राहुल गांधी का सरेंडर है। राहुल गांधी ने बिहार में 16 दिन की वोट अधिकार यात्रा निकाली। हालांकि लोगों ने कहा, हमारे पास वोट का पर्याप्त अधिकार है। जो हमें मिलना चाहिए वह हमें मिला हुआ है। हमें आपकी जरूरत नहीं है और ऐसी विदाई की कि कांग्रेस पार्टी छह सीटों पर सिमट गई है।

बिहार विधानसभा के इतिहास में यह कांग्रेस की सबसे छोटी टैली है। चुनाव के दौरान कई लोग ढोल नगाड़ा बजा रहे थे कि महागठबंधन या इंडी गठबंधन जो भी कहें, उसकी सरकार बन रही है। भाड़े के बुद्धिजीवियों और पत्रकारों के जरिए अभियान चलाया गया कि नीतीश कुमार की अप्रूवल रेटिंग या उनकी लोकप्रियता तेजस्वी यादव से कम है और तेजस्वी नीतीश से बहुत आगे निकल गए हैं। लेकिन बिहार की जनता ने कहा कि अभी बताते हैं और बता दिया कि राहुल गांधी और तेजस्वी यादव कहीं दौड़ में ही नहीं थे। राहुल गांधी उम्मीद कर रहे थे कि कांग्रेस का रिवाइवल होने जा रहा है। वे तालाब में कूद गए और इस तरह के और भी कारनामे करने लगे। उनको लगा इन टोटों से ही चुनाव जीता जाता है। उनको चुनावी राजनीति में 21 साल हो गए हैं लेकिन अभी तक समझ में नहीं आया है कि जनता चाहती क्या है? किस बात का मतदाता पर सकारात्मक असर होता है और किस बात का नकारात्मक। राहुल गांधी जो कुछ करते हैं सबका असर नकारात्मक ही होता है। उनकी नजर में भारत का मतदाता सबसे ज्यादा नासमझ है। जो राहुल गांधी जैसे हीरे को कोयला समझ रहा है। अब इसका तो कोई इलाज है नहीं। तो बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे ने कहा कि अपने हथियार रखो। आत्मसमर्पण करो और कुछ और काम खोजो। जैसे नक्सलियों, आतंकवादियों का आत्मसमर्पण होता है। उसके बाद उनके लिए रोजगार की व्यवस्था की जाती है। तो अब लोगों को तेजस्वी और राहुल गांधी के लिए वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था करनी होगी। हालांकि इनको रोजगार की जरूरत नहीं है। बिना रोजगार के तो ये करोड़पति-अरबपति हैं और ये लोग बात करते हैं बेरोजगारों की। कोई बेरोजगार मिला नहीं इनको जो पूछे कि भैया हमको भी वह फार्मूला बता दो कि बिना नौकरी किए, बिना कोई व्यापार किए कैसे करोड़पति और अरबपति बना जाता है। एक शहर से दूसरे शहर जाना तक बेरोजगार युवा के लिए मुश्किल है, लेकिन ये ऐसे बेरोजगार युवा हैं जो जब चाहे विदेश चले जाते हैं। अरे जिसने बेरोजगारी देखी ही नहीं वह बेरोजगारी को कैसे समझेगा? जिसने गरीबी देखी ही नहीं, वह गरीबी को कैसे समझेगा? जिसने सामाजिक प्रताड़ना सही नहीं, वह सामाजिक प्रताड़ना को कैसे समझेगा? तो बिहार के मतदाताओं ने तेजस्वी यादव और राहुल गांधी दोनों को बताया कि फिर से पढ़ाई करो,जीरो से शुरू करो। तब शायद कुछ एक, दो, तीन, चार नंबर मिल जाएं। बिहार के मतदाता जो परीक्षक थे, उन्होंने राहुल गांधी और तेजस्वी यादव को फेल कर दिया। अब इन दोनों के लिए बिहार की राजनीति में कोई बड़ी गुंजाइश नहीं रह गई है। उनको मालूम है वे जीतेंगे नहीं। वे केवल चर्चा में बने रहना चाहते हैं। और चुनाव अगर नहीं लड़ेंगे तो चर्चा से भी बाहर हो जाएंगे। चुनाव लड़ेंगे तभी तो इस तरह के टोने-टोटके करेंगे। बिहार की जनता ने निर्णायक रूप से खासतौर से राहुल गांधी को बताया है कि भैया तुम्हारे बस का नहीं है। कुछ और व्यापार-धंधा देख लो। अगर देश के बाहर भी काम मिल रहा हो तो वह भी कर लो।

चुनावी राजनीति में हार-जीत तो लगी रहती है। नवभारत टाइम्स के संपादक रहे राजेंद्र माथुर ने एक लेख लिखा था। राजीव गांधी 89 का चुनाव हारने के बाद जिंबाब्वे की राजधानी हरारे गए थे। उस पर राजेंद्र माथुर ने व्यंग्य किया था-हरा रे कभी तो जिता रे। तो राहुल गांधी की भी वही मांग है कि कभी तो जिता रे। अब उनकी हार की सेंचुरी पूरी होने वाली है। राहुल गांधी नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे घूम रहे हैं कि कोई मुद्दा मिल जाए। उनको पहली बात तो मुद्दा समझ में नहीं आता और वह इसलिए कि वे भारतीय जनमानस को समझते नहीं । जो चुनावी राजनीति में है, वह अगर जनमानस को नहीं समझता तो वह कभी उनकी जरूरत के मुताबिक मुद्दे लेकर आ नहीं सकता और ऐसे मुद्दे लेकर आएगा नहीं तो उसको सफलता मिल नहीं सकती। वही हो रहा है राहुल गांधी के साथ और यह आने वाले समय में भी होता रहेगा। उनको महाराष्ट्र ने बाहर किया, हरियाणा ने बाहर किया, दिल्ली ने बाहर किया और अब बिहार ने कर दिया। गिनना शुरू कीजिए कितने प्रदेशों में कांग्रेस की राजनीति खत्म हो चुकी है। तमिलनाडु में 1967 के बाद से खत्म हो गई। आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस केवल शोभा के लिए वहां मौजूद है और शोभा के लिए भी विधानसभा में मौजूद हो, यह जरूरी नहीं है। मैं मानता हूं कि बिहार का ये जो जनादेश है, यह राष्ट्रीय राजनीति को बहुत बड़े पैमाने पर प्रभावित करने जा रहा है। यह शुरुआत है। पिक्चर तो अभी बाकी है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)



