सिद्धार्थ त्रिपाठी

कुछ चेहरे समय की धूल से ढकते नहीं… बल्कि समय उन्हें और साफ़ कर देता है। धर्मेंद्र का चेहरा ऐसा ही रहा। हिंदी सिनेमा के इतिहास में धर्मेंद्र एक दुर्लभ नायक थे जिसमें ताक़त थी, पर ताक़त का शोर नहीं था। जिसमें हँसी थी, पर वो हँसी माहौल में बिखरने से पहले एक क्षण ठहरती थी।

सोमवार 24 नवंबर को उनकी मृत्यु की खबर आई, तो लगा जैसे भारतीय सिनेमा के इतिहास की एक खिड़की बंद हुई है… हालांकि उसी पल कुछ और खिड़कियाँ खुल भी गईं.. जहाँ से उनके चेहरे, उनके व्यक्तित्व और उनके किरदारों की रोशनी लगातार दिखाई देती है।

धर्मेंद्र ने हमें नायक का एक अलग अर्थ दिया था। एक ऐसा अर्थ, जिसमें वीरता कोई मफलर या साधारण कमीज़ पहनकर आती थी… शोर मिटाकर, सादगी ओढ़कर। और संवेदनशीलता आँख के कोने में आए एक आँसू से सबको द्रवित कर देती थी। फूल और पत्थर में उनके डायरेक्टर कहते थे कि धर्मेंद्र की आंखें उनके एक्शन से ज़्यादा बोलती थीं।

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’सत्यकाम’ में उनका चरित्र मानो आंतरिक ईमानदारी का एक्स-रे था। एक ऐसा आदमी जो टूटते हुए भी अपनी नैतिकता नहीं छोड़ता।

सत्यकाम की शूटिंग के समय धर्मेंद्र ने जान-बूझकर अपने डायलॉग कम रखे, वो चाहते थे कि ईमानदारी उनके चेहरे और आंखों से दिखे, शब्दों से नहीं।

’अनुपमा’ में वो धीमी और सधी हुई आवाज़ से बनने वाले भरोसे का प्रतीक थे– ’चुपके चुपके’ में उनका किरदार हास्य का सभ्य सारथी था–

और ’शोले’ में जय–वीरू की दोस्ती का वो पक्का वादा… आज भी आम भारतीय के मन के किसी लॉकर में आदर्श की तरह सुरक्षित रखा हुआ है।

धर्मेंद्र की एक बड़ी उपलब्धि ये भी थी कि उन्होंने खुद को और अपने फिल्मी नायक को असभ्यता के गर्व से दूर रखा। हम सबके पास धर्मेंद्र की अपनी-अपनी यादें हैं… अपनी-अपनी फिल्में, अपने-अपने किरदार हैं। लेकिन मेरे लिए उनकी सबसे बड़ी भूमिका उनका संवेदनशील मनुष्य होना है.. एक ऐसा मनुष्य जो अपने संघर्षों को छुपाता नहीं था।

फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड लेते समय उन्होंने ये स्वीकार किया था कि वे हर साल सूट सिलवाते थे, इस उम्मीद में कि एक दिन उन्हें भी बेस्ट ऐक्टर का अवॉर्ड मिलेगा पर वो अवॉर्ड नहीं मिला। फिर उन्होंने सूट सिलवाना बंद कर दिया।

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और जब 37 साल बाद उन्हें लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिला, तो उन्होंने मंच से पूरी दुनिया को कहा, “इस एक ट्रॉफी में मुझे अपने 15 पुराने अवॉर्ड दिख रहे हैं… जो मुझे मिलने चाहिए थे”

इस वाक्य में अहंकार नहीं था… बल्कि उचित सम्मान न मिलने की टीस थी। इस किस्से में एक पूरी पीढ़ी का संघर्ष था। ये ऐसी सच्चाई है जिससे धर्मेंद्र सिर्फ अपने दौर के हीरो नहीं, हमारे ‘अपने’ बन जाते हैं।

धर्मेंद्र ने भारतीय दर्शक के भीतर ये उम्मीद बोई कि एक मजबूत ही-मैन टाइप आदमी भी इमोशनल हो सकता है, प्यार कर सकता है, रो सकता है, टूट सकता है– और फिर उठकर खड़ा भी हो सकता है बिना अपना हौसला खोए। उन्होंने ये सिखाया कि लोकप्रियता का ऊँचा पहाड़ तभी टिकता है जब उसके भीतर मनुष्यता की मिट्टी हो। वैसे उनमें पंजाब की मिट्टी महका करती थी।

तस्वीर 1964 की है तब धर्मेंद्र के पास इंपाला कार थी लेकिन उन्हें नींद खाट पर ही आती थी।

जीवन के अंतिम वर्षों में वे अपने फार्महाउस में ठेठ पंजाबी अंदाज़ में रहते थे और सोशल मीडिया के ज़रिए लोगों से संवाद करते थे। एक बार धर्मेंद्र ने कहा था कि मुझमें संकोच करने वाला गाँव का लड़का हमेशा रहा जिसने अपनी माँ की उंगली पकड़कर ही दुनिया देखी थी।

कुल मिलाकर उनकी यादें उतनी ही उजली रहेंगी, जितनी उजली उनकी मुस्कान थी।

एक बात ये भी महसूस हुई कि धर्मेंद्र इससे बेहतर विदाई के हकदार थे। किसी भी सेलिब्रिटी का निजी और सार्वजनिक जीवन आपस में घुल जाता है। धर्मेंद्र की अंतिम यात्रा पर सिर्फ उनके परिवार का अधिकार नहीं था बल्कि उन करोड़ों फैन्स का भी अधिकार था जिन्होंने धर्मेंद्र को एक सुपरस्टार बनाया। अगर उनके संदर्भ में एक चीज़ बदलने का मौका होता तो इसे बदलना चाहिए था।

(लेखक TV9 में सीनियर एक्जीक्यूटिव एडिटर– स्पेशल प्रोजेक्ट हैं। आलेख SidTreenium से साभार)