ममता कह रहीं- देश हिला दूंगी, अखिलेश बोले- फॉर्म भरो और भरवाओ।
प्रदीप सिंह।तीर कहां मारा और दर्द कहां-कहां हो रहा है। एसआईआर (स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन ऑफ इलेक्टोरल रोल) का अधिकार चुनाव आयोग को हमारे संविधान ने दिया है और जिसकी पुष्टि सुप्रीम कोर्ट ने की है। बिहार में एसआईआर के बाद एक भी वोटर सामने नहीं आया कि मेरा नाम वोटर लिस्ट में होना चाहिए था,लेकिन काट दिया गया। जो पार्टियां विरोध कर रही थीं, वे भी किसी को लेकर नहीं आ पाईं। लेकिन अब भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो इस सच्चाई को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं या उनको डर लग रहा है कि अगर सच्चाई को स्वीकार कर लिया तो फिर उनके पास बचेगा क्या? लेकिन मैं एसआईआर की बात कर रहा हूं तो मामला एसआईआर तक ही सीमित नहीं है।बिहार में चुनाव हो गया। राज्य के मतदाताओं ने ऐतिहासिक जनादेश दिया। 2010 के बाद एनडीए की सबसे बड़ी जीत हुई। लेकिन इस नतीजे का असर बिहार में जितना हुआ है, उससे ज्यादा पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में हो रहा है। एनडीए की यह जीत कुछ लोगों के गले नहीं उतर रही है। उनको लग रहा है कि यह धांधली से हुआ है। तो उनको 2010 को याद करना चाहिए जब एनडीए की इससे भी बड़ी जीत हुई थी और 2015 को भी जब महागठबंधन में नीतीश कुमार थे और बीजेपी बुरी तरह से हार गई थी, लेकिन ऐसी बातें लोग याद नहीं रखते। उनको अपने एजेंडे के मुताबिक जो सूट करता हो, वह याद रखते हैं। तो बिहार के जनादेश का सबसे बड़ा असर हुआ है पश्चिम बंगाल में। ममता बनर्जी तो आपे से बाहर हैं। वह कह रही हैं कि अगर पश्चिम बंगाल में हमको परेशान किया तो पूरा देश हिला दूंगी। परेशान वह किस बात से हैं? एसआईआर से। यानी आप मतदाता सूची में कोई भी शुद्धिकरण मत कीजिए। कोई बदलाव मत कीजिए तो ममता बनर्जी शांत रहेंगी। अगर आप संवैधानिक रूप से मतदाता सूची में बदलाव करते हैं तो फिर आप आप ममता बनर्जी का गुस्सा झेलने के लिए तैयार रहिए। उनको मालूम नहीं है कि इस पूरी प्रक्रिया पर सुप्रीम कोर्ट की नजर है। कोई भी गड़बड़ी होगी तो सुप्रीम कोर्ट तुरंत इंटरवीन करेगा, लेकिन उनको सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा नहीं है। उनको किसी पर भरोसा है तो बांग्लादेशी वोटरों पर है। उनको लग रहा है कि यह एसआईआर उसी वोटर को निशाना बनाकर किया जा रहा है। अभी जो देश के 12 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों में एसआईआर की प्रक्रिया चल रही है, उसके बाद बाकी प्रदेशों में भी होगी। टारगेट वही है कि जो इस देश के नागरिक नहीं हैं,जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, जो अपना मूल स्थान छोड़कर जा चुके हैं और कहीं और वोटर बन गए और एक से ज्यादा जगहों पर मतदाता सूची में जिनका नाम है, ऐसे लोगों के नामों को मतदाता सूची से हटा दिया जाए। बिहार में विपक्ष ने यह कहकर इसका विरोध किया कि चुनाव इतना नजदीक है। ऐसी क्या जल्दी है? लेकिन सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग ने यह बहाना नहीं सुना। अब पश्चिम बंगाल में तो चुनाव मार्च-अप्रैल में होने हैं। काफी समय है तो ममता बनर्जी के पास यह बहाना नहीं है। उन्होंने एक नया बहाना तलाशा है कि काम का दबाव इतना ज्यादा है कि उसकी वजह से बीएलओ आत्महत्या कर रहे हैं। हालांकि उनके पास ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं है जिसके आधार पर वह साबित कर सकें कि जिस बीएलओ ने आत्महत्या की, वह काम के दबाव के कारण की। देखिए एक बूथ पर ज्यादा से ज्यादा 1500 मतदाता होते हैं। अब एक परिवार से सिर्फ तीन वोटर मान लीजिए तो लगभग 500 परिवार मतदाता सूची में होते हैं। उनके यहां बीएलओ को दो बार जाना है और उसको बहुत दूर ट्रैवल नहीं करना है। फिर उसको इस काम के लिए चुनाव आयोग से अतिरिक्त मानदेय मिल रहा है। जो उसका रेगुलर काम है, उससे छुट्टी मिली हुई है। कोई भी सरकारी कर्मचारी को अमूमन 8 घंटे तो काम करना ही होता है। अब आप इन 500 परिवारों के लिए 30 दिन का समय दिया गया है। इसे 30 से डिवाइड कर दीजिए तो आपके पास संख्या आ जाएगी कि रोज कितने परिवारों के पास बीएलओ को जाना है। इसको अगर काम का बोझ कहते हैं और इस बोझ से अगर लोग आत्महत्या कर रहे हैं तो मुझे लगता है इस देश में जितने हमारे सुरक्षा बल हैं,पुलिस बल हैं, उनमें तो 90% लोगों को सुसाइड कर लेना चाहिए। क्योंकि जितने तनाव में,जितने दबाव में भारी काम के बोझ के तहत वे काम करते हैं, उनको तीज त्योहार पर भी छुट्टी नहीं मिलती है,कोई काम नहीं करता। लेकिन ममता बनर्जी को कोई तो बहाना चाहिए। दरअसल उनका सिंहासन डोल रहा है। 2021 में जो स्थिति थी और 2026 में जब चुनाव होगा, उस समय जो स्थिति होगी, जमीन आसमान का अंतर आ गया है। यह बात मैं केवल पॉलिटिकल आधार पर नहीं कह रहा हूं कि ममता बनर्जी के खिलाफ 15 साल की एंटी इनकंबेंसी हो जाएगी, भारतीय जनता पार्टी ने अपना संगठन और मजबूत कर लिया है,मुद्दे उसके साथ हैं, बिहार, उड़ीसा,महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली में चुनावी जीत का आत्मविश्वास लेकर भाजपा पश्चिम बंगाल के चुनाव में उतरेगी। इन सब बातों को छोड़ दीजिए। दरअसल ममता बनर्जी का जो कोर वोट है, वह मतदाता सूची से बाहर होता हुआ अभी से नजर आ रहा है। भारत बांग्लादेश सीमा पर जिस तरह की भीड़ है,जिस तरह से बांग्लादेशी भाग रहे हैं,वह दृश्य जरूर ममता बनर्जी ने देखा होगा और उनके दिल को वह हिला रहा है। आप मानकर चलिए कि पश्चिम बंगाल में 2021 का जो नतीजा आया था उससे 2026 का नतीजा बहुत ही भिन्न होगा। तो ममता बनर्जी की सारी कोशिश इस बात पर है कि किसी तरह से एसआईआर रुकवा दें। अब उनकी मुश्किल यह है कि न चुनाव आयोग सुन रहा है और न ही सुप्रीम कोर्ट। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर सुनवाई जरूर हो रही है पर इसे रोका जाएगा ऐसा कोई संकेत नहीं है। ममता बनर्जी की मुश्किल यह भी है कि इस मुद्दे पर इंडी अलायंस की कोई और पार्टी उतने सक्रिय रूप में उनके साथ नहीं है। जो कांग्रेस पार्टी एसआईआर का विरोध कर भी रही है,उसके साथ उनका 36 का आंकड़ा है। इंडी अलायंस में ममता के सबसे करीबी समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव बिल्कुल विपरीत धारा में चल रहे हैं।

वे अपने कार्यकर्ताओं,नेताओं को बुलाकर कह रहे हैं कि बीएलओ फार्म लेकर आएगा, इसको भरिए और जमा कराइए। अखिलेश एसआईआर का विरोध करना तो चाहते हैं,लेकिन बिहार में तेजस्वी यादव की जो हालत हुई, उसको देखते हुए उनकी हिम्मत नहीं हो रही है। उनकी पार्टी एसआईआर के विरोध में सड़क पर नहीं उतरी। तो आप इससे अंदाजा लगाइए कि यह जो विपक्षी खेमा है,उसमें कितना मतभेद है। राहुल गांधी का स्टैंड देखिए,ममता बनर्जी का देखिए,तेजस्वी यादव का आपने देखा,अखिलेश यादव का देखिए। तमिलनाडु में एमके स्टालिन ने जरूर विरोध किया, लेकिन वह विरोध ज्यादा आगे बढ़ा नहीं। उन्होंने अभी तक वह गलती नहीं की है जो राहुल गांधी ने और तेजस्वी यादव ने बिहार में की। तेजस्वी यादव भी बाद में पीछे हट गए थे। बस राहुल गांधी की यात्रा के समय ही उसके साथ रहे और उस यात्रा से ही उनको समझ में आ गया कि एसआईआर बिहार के चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है। यूपी में अखिलेश यादव के लिए मायावती का फिर से एक्टिव होना भी बड़ी चुनौती है। मायावती लखनऊ में एक विशाल रैली कर चुकी हैं। अब 5 या 6 दिसंबर को नोएडा में उनकी दूसरी रैली होने वाली है। मायावती की हर रैली समाजवादी पार्टी का वोट घटाने वाली होगी। अब आप कह सकते हैं कि यह किस आधार पर कह रहे हैं? तो इसका सिर्फ एक आधार है कि मुस्लिम वोट में डिवीजन हो सकता है। अभी जो स्थिति है उसमें मुस्लिम मतदाता के सामने समाजवादी पार्टी के अलावा कोई विकल्प नहीं है। मायावती के रूप में एक विकल्प होगा। ऐसा नहीं है कि पूरे प्रदेश के स्तर पर ऐसा होने जा रहा है। इसकी शुरुआत होगी उम्मीदवार के स्तर पर। बहुजन समाज पार्टी अगर मजबूत मुस्लिम उम्मीदवार उतारती है तो उसको मुस्लिम वोट मिलेगा और खासतौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां समाजवादी पार्टी एक तरह से नदारद है क्योंकि वहां यादव है नहीं और मुसलमानों को लगता है कि अखिलेश यादव की पार्टी को यहां वोट देने से कोई फायदा नहीं है। तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दो ही कॉम्बिनेशन बनते हैं। एक जाटव मुस्लिम और दूसरा जाट मुस्लिम। अखिलेश यादव के साथ न जाट है और न जाटव। तो इसलिए अखिलेश यादव की पार्टी को कम से कम पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो मुस्लिम वोट नहीं मिलने वाला। उसके अलावा मायावती पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी मुस्लिम वोटों पर असर डालेंगी। जिन सीटों पर भाजपा और सपा में कांटे की लड़ाई होती है, वहां मायाावती थोड़ा भी वोट काटती हैं तो सपा को मुश्किल होगी।
आपको आजमगढ़ का उपचुनाव याद होगा,जब उन्होंने मुस्लिम उम्मीदवार उतारा था और अखिलेश यादव के चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव चुनाव हार गए थे। जबकि आजमगढ़ मुलायम सिंह यादव का गढ़ माना जाता है।
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तो एसआईआर के कारण परेशानी तेजस्वी यादव झेल चुके हैं। एसआईआर के कारण जो कुछ होने जा रहा है ममता बनर्जी उससे बिल्कुल एकदम बौखलाई हुई हैं। अखिलेश यादव दो नावों की सवारी कर रहे हैं। उनको समझ में नहीं आ रहा कि समर्थन करें या विरोध करें। उनको लग रहा है कि अगर एसआईआर के विरोध में खड़े हुए तो ज्यादा नुकसान होगा। इसलिए अपनी पार्टी के लोगों से कह रहे हैं कि फॉर्म भरवाइए। अपने लोगों को वोटर बनवाइए।
ऐसे में मतदाता सूची का शुद्धिकरण भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छा है। चुनावी प्रक्रिया के लिए अच्छा है। जनादेश की विश्वसनीयता के लिए अच्छा है। जो जनादेश के विरोध में हैं,जो लोकतंत्र के विरोध में हैं,जो चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता के विरोध में हैं,वे सब ही एसआईआर के विरोध में हैं। कुछ ऐसे विद्वान हैं जिनको लगता है कि एसआईआर के रूप में राहुल गांधी के हाथ बहुत बड़ा गेम चेंजर वाला मुद्दा लग गया है। अब इन अकल के अंधों को क्या कहें कि भैया बिहार देख लो अभी-अभी हुआ है। राहुल गांधी की पार्टी छह सीटों पर सिमट गई है। अब स्थिति यह हो गई है कि विपक्ष की लड़ाई भाजपा के बजाय एसआईआर और चुनाव आयोग से हो गई है, लेकिन इन दोनों के बीच में खड़ा है सुप्रीम कोर्ट। सुप्रीम कोर्ट जो काम कर रहा है,वह विपक्ष को ज्यादा परेशान कर रहा है। विपक्ष को लग रहा है कि सुप्रीम कोर्ट को हमारा साथ देना चाहिए। भले ही हम संवैधानिक प्रक्रिया का विरोध कर रहे हों,लेकिन ऐसा तो कुछ होने वाला नहीं है। फरवरी तक अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित हो जाएगी। उसके बाद असली चुनावी लड़ाई शुरू होगी। मैं बार-बार कह रहा हूं कि बिहार चुनाव के नतीजे का असर पूरे देश की राजनीति पर पड़ेगा और वह पड़ता हुआ दिखाई दे रहा है। 2026 में जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं,वहां के नतीजे आने के बाद आपको यह बात और स्पष्ट हो जाएगी।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)



