जातियों के ज्यादातर नेता प्रादेशिक स्तर पर बढ़े, केवल दो जातियां बना सकती हैं सार्वदेशिक नेता।
प्रदीप सिंह।
भारत में जातियों की राजनीति की बहुत बात होती है और जाति के आधार पर राजनीति चलती है। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। लेकिन जातियों का कितना प्रभाव है और जातियों के नेताओं की आगे बढ़ने की कितनी क्षमता या गुंजाइश है। कहां तक वे बढ़ सकते हैं? तो अगर आप पिछले 79 साल (आजादी के बाद) की राजनीति देखें तो पाएंगे कि ज्यादातर जातियों के नेता प्रादेशिक स्तर पर बढ़े हैं और मुख्यमंत्री के पद या प्रदेश अध्यक्ष के पद तक पहुंचे हैं। उसके अलावा जो केंद्रीय मंत्री बने उनकी मैं बात नहीं कर रहा हूं। मैं केवल राज्य में मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री पद की बात कर रहा हूं। कौन लोग वहां तक पहुंचे जिनकी अपनी जाति की पहचान थी यानी अपनी जातीय पहचान के कारण भी उनका प्रभाव था। ऐसा नहीं है कि जिनकी जातीय पहचान थी,उनमें और कोई योग्यता नहीं थी। योग्यताएं बहुत थीं,गुण बहुत थे,लेकिन जातीय पहचान भी उनका एक बड़ा पक्ष था। इस तरह से अगर आप भारतीय राजनीति और भारतीय राजनेताओं का विश्लेषण करें तो आप इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि इस देश में सिर्फ दो जातियां हैं, जिनसे निकले हुए नेता शीर्ष पद तक पहुंच सकते हैं या अगर पद तक न भी पहुंचे तो सार्वदेशिक नेता (पैन इंडिया) का रुतबा हासिल कर सकते हैं। हालांकि केवल प्रधानमंत्री बनना पैन इंडिया लीडर बनने का पैमाना नहीं हो सकता। इन दो जातियों में एक हैं ब्राह्मण समाज से आने वाले और दूसरे दलित समाज से आने वाले। दलित समाज में भी एक जाति है,जिसको पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटव कहते हैं,जिससे मायावती आती हैं।

ब्राह्मण समाज की बात करें तो उसके सबसे बड़े नेता अब तक जवाहरलाल नेहरू हुए। उन्होंने अपनी जातीय पहचान को बहुत सतर्क और सजग रूप से आगे बढ़ाया और नाम के साथ ही पंडित जवाहरलाल नेहरू लगाया। वे ब्राह्मण समाज के सबसे बड़े नेता के रूप में जाने गए। उनके बाद अगर आप प्रदेशों में नजर दौड़ाएं तो बहुत से नेता हुए। मध्य प्रदेश में द्वारका प्रसाद मिश्र,रविशंकर शुक्ल का परिवार। अगर उत्तर प्रदेश में देखें तो कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा,गोविंद वल्लभ पंत,कृष्ण चंद्र पंत और एनडी तिवारी। गोविंद वल्लभ पंत के अलावा उत्तर प्रदेश से कोई ब्राह्मण नेता सार्वदेशिक नेता बन सकता था तो वह नारायण दत्त तिवारी हो सकते थे। लेकिन हो सकते थे का कोई मतलब नहीं है,हुए नहीं। गोविंद वल्लभ पंत के साथ समस्या यह हुई कि वे जवाहरलाल नेहरू नाम के वट वृक्ष के नीचे आगे बढ़े। इसलिए उनके लिए ज्यादा विस्तार का कोई मौका नहीं था। वे देश के दूसरे गृह मंत्री थे। गोविंद वल्लभ पंत की क्या हैसियत थी,यह बात वे लोग अच्छी तरह जानते हैं,जिन्होंने कांग्रेस की राजनीति को पढ़ा है। वे नेहरू मंत्रिमंडल में शायद दूसरे सबसे शक्तिशाली मंत्री थे। वैसे दक्षिण से जयललिता भी ब्राह्मण समाज से आती थीं और मुख्यमंत्री बनीं, लेकिन वे दक्षिण भारत से बाहर कभी निकल नहीं पाईं। तो इस दृष्टि से देखें तो जवाहरलाल नेहरू ब्राह्मण समाज से आने वाले पहले ऐसे नेता थे,जो पैन इंडिया लीडर थे। सार्वदेशिक नेता का रुतबा हासिल करने वाले इस समाज के एक अन्य नेता अटल बिहारी वाजपेयी थे। उनके कद का कोई ब्राह्मण नेता इस समय देश में नहीं है। कोई उभरेगा इसकी अभी कोई संभावना नजर नहीं आती। दो राज्यों में भाजपा में जरूर दो नेता दिखाई देते हैं। एक असम में हेमंत विश्वकर्मा और दूसरे महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस। लेकिन दोनों अपने राज्य तक सीमित हैं। देवेंद्र फडणवीस में संभावना है कि वह सार्वदेशिक नेता बन सकते हैं, लेकिन बनेंगे कि नहीं अभी कहना मुश्किल है।

दूसरी जाति जिससे पैन इंडिया लीडर बन सकते हैं,वह है दलित समाज। हालांकि आबादी के लिहाज से देखें तो देश में ब्राह्मण समाज की आबादी से कहीं ज्यादा दलित समाज, खासतौर से जाटव जाति के लोगों की संख्या है। केवल उत्तर प्रदेश में इस जाति के करीब 13% लोग हैं। दलित समाज से सबसे बड़े नेता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर रहे, लेकिन चुनावी राजनीति की दृष्टि से देखें तो उनको वह सफलता नहीं मिली क्योंकि वे महार जाति से आते थे। वे जाटव समाज से नहीं आते थे। इसलिए वह उस चुनावी अर्थ में पैन इंडिया लीडर नहीं बन पाए। हालांकि उनका कद बहुत बड़ा था। महाराष्ट्र से बाहर उनकी राजनीति की जमीन नहीं बन पाई। दलित समाज से दो और नेता हुए जो पैन इंडिया लीडर बने। एक बाबू जगजीवन राम जो बिहार से आते थे। दूसरी हैं सुश्री मायावती। हालांकि काशीनाम में भी यह संभावना थी लेकिन उन्होंने चंद्रगुप्त बनने की बजाय चाणक्य बनना पसंद किया। मायावती से बड़ा दलित नेता इस समय देश में कोई नहीं है। अपने कामकाज के तरीके से और शायद पैसे की लालसा के कारण वे वहां नहीं पहुंच पाईं,जहां पहुंच सकती थीं। आज उनकी पार्टी की हालत बहुत खराब है फिर भी उत्तर प्रदेश और देश के कुछ अन्य राज्यों में बहुजन समाज पार्टी का कुछ न कुछ जनाधार जरूर है। उत्तर प्रदेश में जाहिर है उनका जनाधार सबसे ज्यादा है। उन्होंने अपनी पार्टी का दूसरे राज्यों में विस्तार ही नहीं किया। कभी कुछ करने की कोशिश की तो दूसरी पार्टियों ने होने नहीं दिया। उनके विधायक जीते तो उनको तोड़ लिया। मायावती में क्षमता थी कि वे संगठन भी बना सकती थीं और जनाधार भी बढ़ा सकती थीं। आप इसी से अंदाजा लगाइए कि आज जब वे अपनी राजनीति के सबसे बुरे दौर से गुजर रही हैं। उस समय भी वे देश की सबसे बड़ी दलित नेता हैं।
क्षत्रिय जाति के साथ विडंबना यह रही कि इस जाति को सार्वदेशिक जाति ही नहीं बनने दिया गया। उत्तर भारत में जो क्षत्रिय है,वह दक्षिण भारत में नहीं माना जाता। कई राज्यों में तो क्षत्रिय समाज के लोग आरक्षित समाज में आते हैं। लेकिन दो नेता ऐसे हुए एक विश्वनाथ प्रताप सिंह और दूसरे चंद्रशेखर जो प्रधानमंत्री बने। लेकिन इन दोनों नेताओं के साथ सबसे बड़ी समस्या यह रही कि उनके पास अपनी पार्टी का कोई संगठन नहीं था और नेता संगठन के बिना नहीं बन सकता। कांग्रेस के संगठन के कारण ही नेहरू का कद इतना बड़ा हुआ। जरा कल्पना कीजिए कि आज की कांग्रेस में कोई नेता नेहरू के कद का बन सकता है। संगठन बड़ा होगा तो आपका जनाधार बढ़ेगा। आपके वोट बढ़ेंगे। संगठन छोटा होगा तो लोकप्रियता के बावजूद आपका जनाधार नहीं बढ़ेगा।
जाति के बंधन को तोड़कर नेता बनने की क्षमता अगर किसी में थी तो वे थे सरदार वल्लभ भाई पटेल। वह गुजरात के पाटीदार समुदाय से आते थे,जिसे उत्तर भारत की कुर्मी जाति से जोड़ दिया जाता है। हालांकि दोनों में फर्क है। सरदार पटेल की जो छवि थी वह उनकी जातीय पहचान के कारण नहीं थी। सही मायने में देश की आजादी के बाद कोई सार्वदेशिक नेता हुआ तो वह सरदार वल्लभ भाई पटेल ही थे। उनके बारे में सोचते हुए लोगों के मन में कभी उनकी जाति नहीं आती थी। भारत की राजनीति में अपनी जाति की पहचान को तोड़कर सार्वदेशिक नेता की हैसियत पा जाना किसी चमत्कार से कम नहीं है,जो सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया। सरदार पटेल इस देश के सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री हो सकते थे, लेकिन गांधी जी ने ऐसा होने नहीं दिया। गांधी ने अपनी वीटो पावर न लगाई होती तो सरदार पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री बनते। लेकिन वे प्रधानमंत्री नहीं बने केवल इतना ही नहीं हुआ। उसके बाद उनका निधन भी 1950 में बहुत जल्दी हो गया। उसके बाद उनके सारे काम,उनकी सारी उपलब्धि,उनकी सारी योग्यता को दबाने की कोशिश की गई। उनके पूरे इतिहास को दफन करने की कोशिश की गई। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जिस व्यक्ति ने 562 रियासतों का भारत में विलय कराया 1947 से 77 तक लगातार राज करने वाली कांग्रेस पार्टी ने उनको भारत रत्न देने की जरूरत नहीं समझी।

सरदार पटेल के ही रास्ते पर उसी राज्य गुजरात से आने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चल रहे हैं। उनकी जाति के लोगों की संख्या गुजरात में 2% भी नहीं है, लेकिन वे सार्वदेशिक नेता हैं इस पर कोई विवाद नहीं हो सकता। देश के हर जातीय समाज और हर वर्ग में उनका अपना जनाधार है। मोदी इस समय देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। मोदी ने साबित किया है कि सफल होने या सार्वदेशिक नेता बनने के लिए जाति की पहचान का होना जरूरी नहीं है। मेरा मानना है कि उनके बाद अगर कोई उस रास्ते पर चल रहा है या चल सकता है तो वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं। उनका आज जो भी कद है उनकी जातीय पहचान के कारण नहीं है। और जातियों की सीमा को तोड़कर आगे निकलने की क्षमता उनमें है। जिस पंथ से वह आते हैं उस पंथ की स्थापना ही जातियों की सीमा को तोड़ने के लिए हुई थी । तो इसलिए जो लोग उनमें उनकी जाति खोजने की कोशिश करते हैं, वे दरअसल अपना नुकसान करते हैं। उनको मालूम नहीं है कि वह ऐसा प्रयास कर रहे हैं जिसमें वह कभी सफल नहीं हो सकते।
तो भारत की राजनीति कितनी भी जातियों के जकड़न में हो, लेकिन इस जकड़न को तोड़कर आगे निकलने वाले नेता हुए हैं और भविष्य में भी होंगे। जिन लोगों के दिमाग में बैठा हुआ है कि एक जाति विशेष में पैदा होने से ही आप बड़े नेता बन सकते हैं, ऐसा जरूरी नहीं है। आपकी विचारधारा,आपका काम,आपका आचरण,आपकी विश्वसनीयता और लोग आपको किस नजरिए से देखते हैं,इन सब से तय होता है कि आप कहां तक पहुंच सकते हैं।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)



