नवभारत टाइम्स की हीरक जयंती-1
व्योमेश जुगरान।
किसी भी अखबार के लिए 75 वर्षों से निरंतर प्रकाशन असाधारण उपलब्धि है। इस पर सीना सिर्फ प्रकाशकों का नहीं, संबंधित अख़बार के पत्रकार व गैर-पत्रकारों का भी फूलता है। मेरा भी फूल रहा है क्योंकि मैंने नवभारत टाइम्स के संपादकीय विभाग में बतौर पत्रकार करीब दो दशक से अधिक बिताए।
पटना और जयपुर संस्करणों के शुरुआती चरण के बाद करीब 19 साल की लंबी पारी नभाटा के दिल्ली संस्करण में खेली। इस अवधि के दौरान बदलावों का जो उतार-चढ़ाव देखा, वह मेरे लिए समकालीन पत्रकारिता के अतीत, वर्तमान और भविष्य को गहराई से समझने का भी अवसर था। निःसंदेह नभाटा मुझ जैसे श्रमजीवी पत्रकार की रोजी-रोटी का साधन तो था, मगर मैंने यहां हिन्दी पत्रकारिता के शीर्षस्थ संपादकों और अनेक मूर्धन्य विद्वानों/पत्रकारों का जो सानिध्य पाया, उसके अनुभव अनमोल थे। अखबार के 75 साल पूरे होने पर अपने कुछेक अनुभवों को यहां साझा कर रहा हूं।
विस्तार की योजना का मकसद
अस्सी के दशक में जब टाइम्स ऑफ इंडिया समूह ने खासकर हिन्दी प्रान्तों में नवभारत टाइम्स के विस्तार की योजना बनाई, तब इस कदम का मकसद हिन्दी पत्रकारिता का एक परिपक्व विस्तार था। तब संचार और प्रौद्योगिकी के अविष्कार सूचनाओं की बढ़ती जिजीविषा के साथ औद्योगिक समूहों को ऊंची छलांग के लिए प्रेरित कर रहे थे। खासकर टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के बरक्स विस्तार की इस योजना का उत्साह देखते ही बनता था। दिल्ली और बंबई की विरासत के बाद जयपुर, पटना और लखनऊ से नवभारत टाइम्स का चरणबद्ध प्रकाशन पत्रकारिता जगत के लिए अत्यधिक हलचलभरी खबर थी। देशभर में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के लिए पत्रकारों का चयन अब तक जिस कसौटी पर होता आया था, उससे इतर पहली बार हिन्दी पट्टी से टाइम्स समूह अपने क्षेत्रीय संस्करणों के लिए पत्रकारों की टीम खड़ी कर रहा था।
ट्रेनी पत्रकारों की भर्ती की परीक्षा
टाइम्स समूह में ट्रेनी पत्रकारों की भर्ती की सालाना परीक्षा देश में उस दौर की सबसे कठिन परीक्षा मानी जाती थी। आवेदन-पत्र के साथ आमंत्रित निबंध की पहली सीढ़ी को ही पार करना बहुत बड़ी बात हुआ थी। इसके बाद लिखित परीक्षा और फिर साक्षात्कार। अंतिम रूप से चयन किसी के लिए भी असाधारण उपलब्धि थी। देश के अनेक नामचीन पत्रकार इसी कसौटी से होकर निखरे थे। इनमें एक नाम सुरेन्द्र प्रताप सिंह यानी एसपी का भी था जिन्होंने रविवार, नवभारत टाइम्स और आजतक जैसे नामचीन ब्रांडों का नेतृत्व कर पत्रकारिता के नए प्रतिमान गढ़े।
क्षेत्रीय संस्करणों की परिकल्पना
नवभारत टाइम्स के क्षेत्रीय संस्करणों की परिकल्पना अखबार समूह के यशस्वी संपादक आदरणीय राजेन्द्र माथुर की थी जो उस दौर की पत्रकारिता के भावी स्वरूप और मिजाज को बखूबी भांप रहे थे कि राष्ट्रीय पत्रकारिता का विकास इसे एक क्षेत्रीय चेहरा दिए बिना संभव नहीं है। यह अलग बात है कि हिन्दी जगत के अखबारों के बीच जिलास्तरीय सूबेदारियों की मौजूदा गलाकाट स्पर्धा की कल्पना उन्हें शायद ही रही हो। वैसे भी, खासकर भाषाई पत्रकारिता के विस्तार की कल्पना करने वाला राजेन्द्र माथुर सरीखा संपादक निश्चित ही इस क्षेत्रीय विस्तार को निचले दर्जे की व्यावसायिक स्पर्धा की बजाय पत्रकारिता के बहुकोणीय परिमार्जन से जोड़कर ही देखता होगा। हमारे सामने इसके उदाहरण भी हैं।
डूब गइल चंदवा के चांद
एक उदाहरण इस प्रकार है:
जब बाबू जगजीवन राम का निधन हुआ तो माथुर साहब पटना में ही थे। तब पटना से ‘पाटलिपुत्र टाइम्स’ नामक एक दैनिक अखबार बिहार में अपनी धाकड़ उपस्थिति दर्ज करा रहा था। बाबूजी के निधन पर उसने पहले पेज की लीड खबर का शीर्षक लगाया- ‘डूब गइल चंदवा के चांद..। ध्यान रहे कि बाबूजी के गांव का नाम चंदवा था। निश्चित ही किसी हिन्दी अखबार के लिए तब भाषा का यह प्रयोग अजीबोगरीब था। मगर माथुर साहब ने इसे हिन्दी पत्रकारिता में नई धमक माना और शीर्षक को संपादकीय विभाग के डेशबोर्ड पर टांक दिया। ऐसा कर वह नभाटा की संपादकीय टीम को पत्रकारीय आंचलिकता के प्रति आग्रही बनने का संदेश देना चाहते थे। नभाटा के क्षेत्रीय संस्करणों की सफलता को माथुर साहब ने खुद के लिए सफलता की एक कसौटी मान लिया था और इसीलिए वे खासकर पटना संस्करण को खूब समय देते रहे और कई-कई दिनों तक पटना में रहकर टीम को पत्रकारीय कौशल की बारीकयां समझाते रहे। इस कड़ी में उन्होंने अखबार के प्रसार से जुड़े एजेंटों और हाकरों तक की कार्यशालाएं आयोजित कीं।
पटना संस्करण ने गढ़े पत्रकारिता के प्रतिमान
पटना संस्करण के लिए राजेन्द्र माथुर और स्थानीय संपादक आदरणीय दीनानाथ मिश्र की जोड़ी ने पत्रकारों की एक जांची-परखी टीम खड़ी की थी। हिन्दी पट्टी में अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं के लिए समाचारों से लेकर सर्कुलेशन तक की एक उर्वरक जमीन के रूप में पहचाना जाने वाले बिहार ने नवभारत टाइम्स का जिस बुलंदी से स्वागत किया, वह पूरी टीम के लिए अत्यंत स्फूर्तिदायक था। तब बिहार के चर्चित ‘आर्यावर्त’ और ‘प्रदीप’ जैसे हिन्दी दैनिक आखिरी सांस ले रहे थे और नभाटा के विस्तार के लिए अपरिमित जगह छोड़ गए थे। अपने छोटे से जीवन काल में पटना संस्करण ने पत्रकारिता के एक से एक प्रतिमान गढ़े। लेकिन बाजार और व्यावसायिकता के गहराते आग्रहों के वशीभूत प्रकाशन समूह के लिए इन प्रतिमानों का कोई विशेष मोल नहीं था। 9 अप्रैल 1991 में माथुर साहब भी चल बसे और उनके अवसान के साथ ही नवभारत टाइम्स के क्षेत्रीय संस्करणों के सपने का भी पटाक्षेप हो गया और एक-एक कर तीनों क्षेत्रीय संस्करण बंद होते चले गए।
आंचलिकता की हूक
यह अलग बात है कि आज पाठक और बाजार पर कब्जे की होड़ में हमारे हिन्दी जगत के दैनिक अखबार जिलास्तरीय सूबेदारियों की गलाकाट स्पर्धा में शामिल हो चुके हैं लेकिन एक विचार के रूप में राष्ट्रीय पत्रकारिता के आंचलिक स्वरूप की परिकल्पना राजेन्द्र माथुर जैसे कालजयी संपादक की ही देन थी। नवभारत टाइम्स के दिल्ली संस्करण में उत्तर प्रदेश और हरियाणा के अलग पन्ने और उनकी लोकप्रियता राष्ट्रीय पत्रकारिता के भीतर इसी आंचलिकता की हूक थी।
‘ईश्वर करे वह पुनर्जन्म ले…’
सामाजिकता, आदर्शवादिता और कला एवं साहित्यिक रुझान वाली गलियों में भटकती हिन्दी पत्रकारिता को पटरी पर लाने इसके मूल स्वभाव और सरोकार के साथ आगे बढ़ाने में राजेन्द्र माथुर का योगदान अतुलनीय है। यह अलग बात है कि हिन्दी पत्रकारिता ने अपने इस पुरोधा को वह जगह आज तक नहीं दी जिसके वह प्रबल हकदार थे। इस मर्म को राजेन्द्र माथुर के निधन पर नभाटा में छपे श्रद्धांजलि लेख में उनके अनन्य सखा और हिन्दी के प्रख्यात व्यंग्यकार शरद जोशी के लेख की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है-
“ईश्वर करे कि वह पुनर्जन्म ले क्योंकि जो कसौटियां वह छोड़ गया है, उस पर खरा उतरने के लिए उसे ही बार-बार जन्म लेना होगा… (जारी)