नवभारत टाइम्‍स की हीरक जयंती-2

व्योमेश जुगरान ।

नवभारत टाइम्स ने क्षेत्रीय संस्करणों को बंद कर अपने लिए दिल्ली और एनसीआर की सूबेदारी चुनी। उसने बाजार और व्यावसायिकता के मद्देनजर अपने कलेवर में संपूर्ण बदलाव लाकर दिल्ली में सबसे अधिक बिकने वाले दैनिक पंजाब केसरी को पीछे ठेलने के लिए उसी के जैसे कंटेंट की पैरवी करना आरंभ किया। परिवर्तन की इस पैरोकारी को नवभारत टाइम्स की स्वर्ण जयंती पर छपे एक लेख में वरिष्ठ पत्रकार मधुसूदन आनंद के इन परिपक्व विचारों से भी समझा जा सकता है। उन्होंने लिखा था-


हर रोज फेशियल कराना पड़ता है अखबार को

‘अखबारों को रोज नया होकर आना पड़ता है। उन्हें अपने अस्तित्व के लिए बच्चों और किशोरों में लगातार अपनी पैठ बनाए रखनी पड़ती है। अखबार अगर समय के अनुसार अपने आपको न बदले तो मर जाए….। विचार अखबार की आत्मा है। बेशक विचारहीन होकर कोई अखबार नहीं चल सकता लेकिन अखबार बुनियादी तौर पर खबरों के लिए पढ़ा जाता है और जब तक खबरों की ताजगी है, कोई चलता हुआ अखबार मरना नहीं चाहिए…। आज देश के अखबारों में गलाकाट प्रतियोगिता है। हर अखबार के सामने चुनौती है कि वह कैसे कम कीमत पर अधिक पृष्ठ और अधिक जानकारी दे। अखबार को हर रोज अपना फेशियल कराना पड़ता है ताकि वह ज्यादा आकर्षक लगे.. । हिन्दी अखबारों के सामने समस्या यह है कि वे अंग्रेजी अखबारों की तरह कारोबार को ही अपना लक्ष्य नहीं बना सकते। उन्हें अपनी सामाजिक भूमिका भी निभानी पड़ती है। हिन्दी भाषा-भाषी समाज के सरोकारों से कटकर वे कारोबार नहीं कर सकते। जाहिर है उन्हें समाज और देश की राजनीति से अपने को सर्वाधिक जोड़कर रखना पड़ता है।’

पाठकीय रुचि के बहाने…

खास बात यह है कि मधुसूदन आनंद के इन विचारों को भी करीब ढ़ाई दशक  बीत गए। इस कालखंड में तकनीक से लेकर सरोकारों तक जो कुछ बदला, उसकी प्रतिध्वनियों को इन विचारों से साफ सुना जा सकता है। देश का सबसे बड़ा हिन्दी अखबार पाठकीय रुचि के बहाने बदलाव की जिन चौड़ी सड़कों से गुजरा और अपने पीछे कॉरपोरेट पत्रकारिता का जो गुबार छोड़ता चला गया, वह कमोबेश आज हिन्दी के प्रत्येक अखबार का ट्रेण्ड बन चुका है। बदलते अखबार के इस कलेवर पर नाक-भवें भले ही सिकोड़ ली जाएं, पर चौखट पर सुबह-सुबह दस्तक देने वाले आज के कलरफुल अखबार से हरगिज अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह वही दशकों पुराना काली स्याही और लुग्दी कागज का बूढ़ा सा अखबार दिखे।

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‘जनसत्ता’ के अनूठे प्रयोग

अस्सी के दशक में इंडियन एक्सप्रेस समूह के हिन्दी अखबार ‘जनसत्ता’ ने राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता को वाणी, मुद्रण और कलेवर की दृष्टि से जो ओज दिया, उसे नब्बे के दशक तक आते-आते नवभारत टाइम्स ने काफी कुछ उलट डाला। ऑफसेट छपाई के साथ निराले अंदाज में प्रकाशित जनसत्ता के कई अनूठे प्रयोग हिन्दी पत्रकारिता की कल्पना में इससे पहले कहीं नहीं थे। आक्रामक रिपोर्टिंग, बोलचाल की मुहावरेदार भाषा, आठ कालम के पारंपरिक ग्रिड की बजाय छह कालम का पन्ना, बाक्स स्टोरी की गोलाकार किनारी, हारिजेंटल शैली में संपादकीय और पाठकों के पत्रों को खासी तरजीह इत्यादि अनेकानेक पहलू थे जो जनसत्ता को सबसे अलग दिखाते थे। सफलता का आलम यह था कि अखबार को सर्कुलेशन बढ़ाने के नाम पर हाथ खड़े करने पड़े और पाठकों से कहना पड़ा कि जनसत्ता को पड़ोसी से साझा कर लिया जाए।

अपने पूरे तेवर में हिन्दी पत्रकारिता

यह जरूर था कि अखबार समकालीन राजनीतिक घटनाओं का हलाहल पीकर मुटा रहा था, चाहे वह पंजाब के आतंकवाद का घिनौना रूप ही क्यों न हो। जनसत्ता में काम कर रही पत्रकारों की टीम का जुनून देखते ही बनता था। जनसत्ता के अलावा कोलकाता से प्रकाशित ‘रविवार’ और इलाहाबाद की ‘माया’ ने मिलकर हिन्दी पत्रकारिता को अपने पूरे तेवर में ला दिया। पत्रकारों की इस जुनूनी टीम को नेतृत्व भी ऐसा मिला हुआ था जिसके अंदर संचार के अन्य माध्यमों की तरह पत्रकारिता में पूंजी के बढ़ते महत्व और सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों से जुड़े बोध के बीच गजब का संतुलन बिठाने की काबिलियत थी। ‘रविवार’ के युवा संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह तो बाद में अपनी इसी प्रबंधकीय क्षमता के कारण नवभारत टाइम्स के कार्यकारी संपादक के रूप में आसीन हुए।

शरद जोशी का ‘प्रतिदिन’

Twitter पर Rajkamal Prakashan 📚: "“शरद जोशी को आप भारत का पहला ऐसा व्यंग्यकार कह सकते हैं जो कवि सम्मेलनों में भी गद्य सुनाकर सबसे ज्यादा तारीफ ले जाते थे ...

राजेन्द्र माथुर के संपादकत्व में निकलने वाला नवभारत टाइम्स लेखकीय क्षमता के लिहाज से तो जनसत्ताई पत्रकारिता से स्पर्धा कर रहा था लेकिन नए प्रयोगों के अनुसरण का साहस जुटाने में वह अभी सहमा हुआ था। उसके प्रयोग धैर्य का परिचय देते दीख रहे थे। संपादकीय पृष्ठ पर मेहरउद्दीन खां उर्फ संत मेहरदास का ‘कबीर चौरा’ और अंतिम पृष्ठ पर शरद जोशी का ‘प्रतिदिन’ जैसे कॉलम इसी कड़ी में थे। ‘प्रतिदिन’ तो इतना सफल हुआ कि नवभारत टाइम्स को लोग अंतिम पृष्ठ से पढ़ना शुरू करने लगे थे।

खुद राजेंद्र माथुर भी इस बात को स्वीकार करते थे कि उन्हें बिल्कुल नहीं लगता था कि कोई व्यंग लेखक हर रोज ऐसी तीखी कलम चला सकता है। जब शरद जोशी जी ने कॉलम लिखने का प्रस्ताव दिया तो माथुर साहब का कहना था- ‘लेखकों को अपने विषय में बहुत भ्रम होता है। तुम भी सिर्फ जगह घेरोगे और पाठकों को बोर करोगे।… शरद जोशी ने 29 अप्रैल 1985 के अपने प्रथम प्रतिदिन ‘श्री गणेशाय नमः’ में इसी वाकये को विषय बना कर लिखा- ‘अज्ञान के साथ आत्मविश्वास का संयम हमसे क्या कुछ नहीं करवा सकता। देश और देशवासियों की प्रगति का यही रहस्य है। यह संगम समुचित मात्रा में हो तो आप मुख्यमंत्री बन सकते हैं। प्रधानमंत्री बन सकते हैं। राष्ट्रपति हो सकते हैं। संगीतज्ञ बन सकते हैं। चित्रकार, समीक्षक, अफसर, संपादक सबकुछ बन सकते हैं। और जब यह हो सकता है तो मैं ‘प्रतिदिन’ क्यों नहीं लिख सकता। बहुत हुआ तो यही होगा ना कि मैं वही लिखूंगा जैसा यह देश चल रहा है।’ (जारी)


हिन्दी पत्रकारिता में नई धमक