नवभारत टाइम्स की हीरक जयंती-3
व्योमेश जुगरान ।
बहरहाल, नब्बे के दशक तक आते-आते स्थितियों में बदलाव आने लगा। बाजार की ताकतें पत्रकारिता को अपनी ओर खींचने लगीं। इसमें वैश्वीकरण और आधुनिक संचार व प्रोद्यौगिकी के त्वरित विकास ने अहम भूमिका निभाई। ऐसे में दो ही स्थितियां हो सकती थीं। या तो निरंतर बड़े होते बाजार के सामने अखबार वैचारिक और सरोकारी पत्रकारिता के खोल में कुम्हलाते रहें या फिर व्यावसायिकता का बाना पहन एक कोरोबारी स्पर्धा में शामिल हो जाएं। दूसरे विकल्प के मायने होते, सरोकारों की बजाय व्यावसायिक हितों को तरजीह देकर ताकत ग्रहण करना।
मालिकों की युवा पीढ़ी
यह वह दौर था जब मालिकों की युवा पीढ़ी कारोबार में हाथ बंटाने लगी थी और खोजी पत्रकारिता के उस एवरेस्ट में उनकी कोई रुचि नहीं थी जो कई बार फतह किया जा चुका था। उनके सामने खुशवंत सिंह जैसे अनुभवी संपादकों के निष्कर्ष भी चुनौती बनकर खड़े थे जिनमें टीवी पत्रकारिता की आहट को ताड़ते हुए कहा जा रहा था कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आगे अखबारों के दिन लद जाएंगे। नए मालिकों की दिलचस्पी राजनीतिक खबरों की बजाय बाजार और व्यापार से जुड़े प्रसंगों में अधिक थी। उनके निशाने पर अखबार को चाटकर पढ़ने वाले बूढ़ों की बजाय तेजी से उभर रहे युवा पाठकों का अपरिमित वर्ग था। बाजार के दोहन की पहली शर्त इसी युवा पाठक की अभिरुचियों से जुड़ी हुई थी।
संक्रमण छोटा, अनुभव संगीन
नई पीढ़ी के मालिक की महत्वाकांक्षाओं का असर पत्रकारिता पर पड़ना स्वाभाविक था और जल्द ही अख़बार नए रूप में निखरने लगा। लेकिन इस तक पहुंचने के लिए इसे एक आक्रामक संक्रमण से गुजरना पड़ा जिसमें कई नामचीन संपादकों और पत्रिकाओं का बोलबाला ध्वस्त हो गया। यह संक्रमण छोटा भले ही हो, लेकिन इसके अनुभव बेहद संगीन रहे। जिस नवभारत टाइम्स ने आक्रामक जनसत्ताई पत्रकारिता के आगे घुटने नहीं टेके और अपनी पेशेवर छवि के साथ कोई समझौता नहीं किया, उसे बाजार और व्यावसायिकता के आग्रहों के सामने लोटते देर नहीं लगी।
बदलाव के आग्रहों की यह चील यशस्वी संपादक राजेंद्र माथुर के निधन के बाद कार्यकारी संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह के कंधों पर चढ़ बैठी। जब तक वह सह सकते थे, पंजों की गड़न सही और समर्पण की बजाय किनाराकशी का रास्ता चुना। एसपी के चले जाने के बाद संपादक की कुर्सी पर रिक्तता की कसक ने मालिकों के समक्ष अखबार की प्रतिष्ठा का सवाल खड़ा कर दिया। बाजार के दबाव तो थे ही लेकिन प्रतिष्ठा का आग्रह भी कम न था। एक बार पुनः किसी प्रतिष्ठित संपादक को लाने की विवशता नजर आई और काशी विद्यापीठ के कुलपति रहे डा. प.विद्यानिवास मिश्र को सन 1992 में प्रधान संपादक के रूप में लाया गया। चेयरमैन श्री अशोक जैन ने अपने दोनों पुत्रों समीर और विनीत की मौजूदगी में जिस सम्मान और गरिमा के साथ पंडितजी को संपादक की कुर्सी पर आरूढ़ कराया, वह नवभारत टाइम्स के इतिहास में संपादक की गौरवमय सत्ता का जीवंत प्रतीक था। राजेन्द्र माथुर की खाली कुर्सी पर अर्से बाद कोई संपादक विराजा था।
नभाटा की लुढ़कती प्रसार संख्या को पंडित जी के ललित निबंधों और चिंतन भरे लेखन ने न सिर्फ थामा, बल्कि कुछ हद तक आगे भी बढ़ाया। उन्होंने अखबार पर अपनी छाप छोड़ी और कई ऐसे महत्वपूर्ण प्रयोग किए जो आज हिन्दी के बदले हुए अखबार में स्थायी जगह पा चुके हैं। उन्होंने ‘उत्सव’ नामक फीचर पन्ना शुरू किया जिसमें धार्मिक व सांस्कृतिक सामग्री होती थी। इस पन्ने को पंडितजी स्वयं अंतिम रूप देते थे और यह खूब लोकप्रिय भी हुआ। इसके अलावा उन्होंने संपादकीय पृष्ठ पर ‘एकदा’ कालम शुरू किया जिसमें प्रेरक प्रसंग से जुड़ी छोटी सी नीतिकथा हुआ करती थी। पाठक इसे बड़े चाव से पढ़ते थे।
उन्हें जल्द अहसास हो गया
पंडितजी के प्रयोगों के मद्देनजर कई बार यह निष्कर्ष जल्दबाजी भरा लगता है कि नए दौर के भाषाई अखबारों में वैचारिक निबंधों और गंभीर साहित्यक अभिव्यक्तियों का स्थान कोई मायने नहीं रखता। लेकिन बदलती पत्रकारिता के उस दौर में पंडितजी दीये की उस लौ सरीखे थे जिसकी लपक अंतिम क्षण में थोड़ी बढ़ जाती है। वह मालिकों की नई और पुरानी पीढ़ी के बीच जारी द्वंद्व का एक संक्रमणकालीन संतुलन भर थे जिसका अहसास उन्हें जल्द हो गया।
दो सालों तक संपादक का पदभार संभालने के बाद पंडितजी क्लांत भाव से विदा हुए। 27 अक्टूबर 1994 को अपने अंतिम हस्ताक्षयुक्त संपादकीय में उन्होंने लिखा-
जो भी छोड़े जा रहा हूं, वह आपका है मेरा नहीं
“मैं अनजाने बेगाने व्यक्ति के रूप में इस अपरिचित संसार में आया। संशय की दृष्टि से देखा गया, कई-कई कोणों से जैसे शीशे में तैरती मछली की तरह परखा गया, तैरता रहा। आज उस शीशे के बक्से से बाहर अपने परिचित अनंत महासागर में प्रवेश कर रहा हूं….।
सबने अपने-अपने ढंग से उलाहने दिए। इन उलाहनों की थाती यहीं छोड़कर जा रहा हूं….। अब बिसाती की भूमिका छोड़ता हूं। अत्यंत अनाड़ी, अपरिचित को आपने स्नेह दिया, मन से अनमने ढंग से स्वीकार किया, आपके प्रति कृतज्ञ हूं। इस गली में फिर आना नहीं होगा। आपके पास जो भी छोड़े जा रहा हूं, वह आपका है मेरा नहीं। वह सपना हो, यथार्थ हो, सुख हो, दुख हो, आपका है। (जारी)