महाराष्ट्र की सियासत में अस्तित्व बचाने की मजबूरी है उद्धव और राज ठाकरे का मिलन।  

प्रदीप सिंह।
मुंबई में बुधवार को दो भाइयों उद्धव और राज ठाकरे का मिलन हुआ। आज से करीब 20 साल पहले राज ठाकरे बाला साहब ठाकरे का साथ छोड़कर शिवसेना से निकल गए थे और अपनी अलग पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) बनाई। उनकी 20 साल की एकमात्र उपलब्धि उत्तर भारतीयों पर हमले हैं। इसके अलावा राज ठाकरे ने महाराष्ट्र की राजनीति में कोई काम नहीं किया। वे अपने बेटे तक को विधानसभा का चुनाव जिताने की स्थिति में नहीं है,लेकिन उनको अब भी लगता है कि वे बहुत बड़ी ताकत हैं। उद्धव ठाकरे को भी यही लगता था। उन्होंने जब 2019 में भाजपा को धोखा दिया तो देखा नहीं कि महाराष्ट्र की राजनीति कैसे बदल रही है।

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1999 में जब शिवसेना और भाजपा मिलकर महाराष्ट्र में चुनाव लड़े थे और सरकार बनाई, उस समय शिवसेना को 288 में से 71 सीटें ही मिली थीं। तो यह थी राज्य में शिवसेना की ताकत,वह भी तब जब बाला साहब ठाकरे का सूरज चमक रहा था। शिवसेना का यह बेस्ट परफॉर्मेंस है। तब भाजपा को 62 सीटें मिली थीं। इसके बाद 2004 के चुनाव में शिवसेना को लगा कि भाजपा बढ़ रही है। उसको रोकना जरूरी है तो गठबंधन के बावजूद भाजपा के कई उम्मीदवारों को हराने का काम शिवसेना ने किया। उस चुनाव में 163 सीटों पर लड़कर शिवसेना ने 62 सीटें जीतीं और उसका स्ट्राइक रेट 38% रहा। जबकि बीजेपी 111 सीटों पर लड़कर 54 जीतीं और उसका स्ट्राइक रेट कहीं बेहतर 49% रहा। यहां से भाजपा ने खुद को और मजबूत बनाने पर काम शुरू किया। नतीजतन 2009 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की सीटें शिवसेना से ज्यादा हो गई। 2014 के चुनाव में तो बीजेपी प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बन गई और उसने सरकार बनाई। पहले शिवसेना ने साथ आने से मना किया लेकिन बाद में सरकार में शामिल हो गई। भाजपा नेता देवेंद्र फडनवीस मुख्यमंत्री बने और भाजपा ने तय कर लिया कि अब शिवसेना को उसकी हैसियत बतानी है। तो पहला काम उसने यह किया कि डिप्टी सीएम का पद शिवसेना को नहीं दिया। शिवसेना जो मंत्रालय चाहती थी वे भी नहीं दिए।

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इसके बाद 2019 के चुनाव में भाजपा 150 के आसपास सीटों पर लड़ी और 105 सीटें जीती और उसका स्ट्राइक रेट 2014 से भी बेहतर था। मतलब साफ संकेत था कि भाजपा अगर गठबंधन से अलग लड़ती तो शायद पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लेती। उस चुनाव में उद्धव ठाकरे अंदर खाने शरद पवार से मिल गए थे। दोनों को देवेंद्र फडनवीस के नेतृत्व से चिढ़ थी। दोनों ने चुनाव में भाजपा को नीचे गिराने का काफी प्रयास किया लेकिन सफल नहीं हो पाए। भाजपा ही नंबर वन पार्टी रही। भाजपा के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन होने के बावजूद उद्धव ने मुख्यमंत्री बनने के लिए चुनाव के बाद शरद पवार और कांग्रेस से हाथ मिला लिया। वे मुख्यमंत्री तो बन गए,लेकिन उसके बाद जो दुर्दशा हुई उसे सब जानते हैं। अब चाहे शरद पवार की पार्टी हो,चाहे कांग्रेस या उद्धव ठाकरे की पार्टी। महाराष्ट्र में इन तीनों पार्टियों का अस्तित्व नाम मात्र के लिए बचा है। 288 में से 233 सीटें महायुति के पास हैं। इनमें से भी 132 सीटें अकेले भाजपा ने जीती हैं।

तो अब जो बीएमसी (बृहन्मुंबई नगर निगम) चुनाव में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे उद्धव और राज ठाकरे साथ आ गए हैं। बीएमसी का बजट 7000 करोड़ रुपये से ज्यादा का है और यही उद्धव ठाकरे की शिवसेना का ब्रेड एंड बटर है। इसी के लिए उन्होंने राज ठाकरे से हाथ मिलाया है लेकिन दोनों के साथ आने से भी कुछ बदलने वाला नहीं है क्योंकि जीरो और जीरो मिलकर कोई संख्या नहीं बनाते। राज ठाकरे जब शिवसेना से अलग हुए थे तो उनको लग रहा था कि वे बाला साहब ठाकरे को रिप्लेस कर देंगे। नतीजा क्या हुआ? वे महाराष्ट्र की राजनीति में एकदम हाशिए पर हैं। उद्धव ठाकरे को भी लगा कि बीजेपी से बगावत करके कांग्रेस और शरद पवार के साथ चले जाने से मुसलमान उनके साथ आ जाएगा। उन्होंने अपनी हिंदुत्व की राजनीति भी छोड़ दी। मुसलमानों ने उद्धव का इस्तेमाल बीजेपी को नुकसान पहुंचाने में किया। लोकसभा चुनाव में ऐसा हुआ भी, लेकिन बहुत जल्दी महाराष्ट्र के लोगों को समझ में आ गया कि खेल क्या हो रहा है। यह खेल बड़ा दूरगामी है।

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इसी समय टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस की एक रिपोर्ट आई है जिसमें कहा गया कि 1961 में मुंबई में हिंदुओं की आबादी 68% थी। लेकिन उनके अध्ययन का नतीजा है कि 2051 तक मुंबई में हिंदुओं की आबादी सिर्फ 54% रह जाएगी और मुसलमानों की आबादी 30% हो जाएगी। यह राष्ट्र की एकता-अखंडता और हिंदू धर्म के लिए बहुत बड़ा खतरा है। इसके सामने चुनाव की जीत,हार के कोई मायने नहीं हैं। इस रिपोर्ट की खास बात यह है कि मुस्लिम पापुलेशन की यह ग्रोथ ऑर्गेनिक नहीं है। यानी ज्यादा बच्चे पैदा होने से होने वाली ग्रोथ नहीं है। यह ग्रोथ इनऑर्गेनिक है। यानी घुसपैठ के कारण हुई पापुलेशन ग्रोथ है। भारत के शहर-शहर में हो रही मुस्लिम पापुलेशन की यह ग्रोथ दरअसल एक और विभाजन का आधार तैयार कर रही है। इस खतरे से निपटने की अगर तैयारी नहीं की तो नतीजा बड़ा भयावह होने वाला है। तो बीएमसी का चुनाव केवल यह नहीं तय करेगा कि सत्ता में कौन होगा। बीएमसी का चुनाव यह भी तय करेगा जो मुंबई की डेमोग्राफी बदली जा रही है उस पर कोई रोक लगेगी या नहीं।

हालांकि महायुति के तीनों दलों भाजपा, शिंदे की शिवसेना और अजीत पवार की एनसीपी ने मिलकर लड़ने का फैसला किया है। मुंबई की 180 से ज्यादा सीटों पर तालमेल की बातचीत हो चुकी है। तो इस चुनौती को महायुति और भाजपा ने गंभीरता से लिया है। इस चुनाव का नतीजा तय करेगा कि ठाकरे परिवार की राजनीति कितने दिन और बची हुई है। मुझे लगता है कि यह चुनाव ठाकरे परिवार की राजनीति का खात्मा कर देगा।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)