चंद सालों में ही राजनीतिक हाशिए पर धकेल दिए गए कई नेता।

प्रदीप सिंह।
राजनीति बड़ी निष्ठुर होती है। इसमें भावनात्मक मुद्दों का सबसे ज्यादा असर होता है। जनता भावना में बहकर किसी को अर्श पर पहुंचा देती है और जब भावना का ज्वार ठंडा होता है या जनता को लगता है कि अब परिस्थितियां बदल गई है या व्यक्ति बदल गया है और हमारे लिए अब वह फायदेमंद नहीं है तो उसको फर्श पर लाने में भी देर नहीं लगाती। सत्ता के चले जाने से भी ज्यादा नेताओं को यह बात चुभती है कि उनकी चर्चा बंद हो गई। उनका प्रभाव खत्म हो गया। सत्ता में नहीं रहने पर भी प्रभाव होता है, लेकिन जब नेता जनता की नजर में गिर जाते हैं तब वह प्रभाव भी नहीं रह जाता। तब उनके विरोधी भी उनको कोई भाव नहीं देते क्योंकि वे उनको थ्रेट के रूप में नहीं देखते।

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यहां हम कुछ ऐसे ही नेताओं की बात करेंगे पिछले कुछ सालों में जिनको जनता ने अर्श से फर्श पर पहुंचा दिया है। स्थानीय निकाय चुनाव और दूसरे कारणों से आजकल महाराष्ट्र चर्चा में है तो वहीं के दो नेताओं से बात शुरू करते हैं। एक समय शरद पवार देश में सबसे बड़े मराठा नेता माने जाते थे। कभी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के दावेदार थे। वे 10 साल तक लगातार इस देश के कृषि मंत्री रहे और उन 10 सालों में भी लगातार महाराष्ट्र और खासतौर से विदर्भ में किसान आत्महत्या करते रहे। मेरा मानना है कि शरद पवार का भाव सबसे पहले पीवी नरसिम्हा राव ने गिराया। जब उनको न तो पार्टी का अध्यक्ष बनने दिया और न ही प्रधानमंत्री पद की दौड़ में सफल होने दिया। हालांकि उनका भौकाल महाराष्ट्र की राजनीति में बना रहा। उसको अगर किसी ने खत्म किया तो उस व्यक्ति का नाम है अमित शाह। शरद पवार जब उद्धव ठाकरे को भाजपा के खिलाफ उकसाकर अपने साथ ले आए तो उनको लगा था कि अब हमारी पार्टी बहुत आगे निकल जाएगी, लेकिन सिर्फ ढाई साल बाद अमित शाह ने शरद पवार को राजनीति के हाशिये पर धकेल दिया। आज उनकी हालत यह है कि पुणे और पिपरी चिंचवाड़ के म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के लिए उनको अपने भतीजे से हाथ मिलाना पड़ रहा है। अकेले दम पर दो कॉरपोरेशन मिल जाएं इतना भी दम शरद पवार में नहीं बचा है।

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अर्श से फर्श पर आए दूसरे नेता हैं उद्धव ठाकरे। उनको यह गलतफहमी हो गई थी कि वह अगर भाजपा के साथ हुए गठबंधन से हट जाएंगे तो महाराष्ट्र में बीजेपी खत्म हो जाएगी। हुआ यह कि वह खत्म हो गए। उनकी पार्टी चली गई,पार्टी का निशान चला गया,पार्टी का झंडा चला गया और बाला साहब ठाकरे की राजनीतिक विरासत एकनाथ शिंदे ले गए। उद्धव ठाकरे को आज उन राज ठाकरे से हाथ मिलाना पड़ा है,जिनकी झोली में कुछ नहीं है। आप कल्पना कीजिए कि एक समय उद्धव ठाकरे शर्त रखते थे कि बातचीत के लिए अमित शाह को मातोश्री आना पड़ेगा। आज स्थिति यह है कि अमित शाह का चपरासी भी मातोश्री नहीं जाएगा। और यह सब पिछले सिर्फ छह सालों में हुआ है।

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ऐसे ही तीसरे नेता हैं लालू प्रसाद यादव। कभी वह विपक्षी गठबंधन के सबसे चर्चित और लोकप्रिय नेता थे। उनके परिवार ने बिहार में 15 साल राज किया। हालांकि चारा घोटाला में जेल जाने के बाद उनकी राजनीति वैसे भी खत्म हो गई थी,लेकिन अपने बेटे तेजस्वी यादव को उन्होंने अपनी राजनीतिक विरासत सौंप दी थी। बिहार में हाल के चुनाव ने बताया कि लालू परिवार की जो राजनीतिक विरासत थी,उसको मतदाता ने पूरी तरह से रिजेक्ट कर दिया है। उनकी पार्टी को इस हालत में भी नहीं छोड़ा कि वह राज्यसभा की एक सीट भी जीत पाए।

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अर्श से फर्श  पर आए चौथे नेता हैं पंजाब के सुखबीर सिंह बादल। उनके पिता प्रकाश सिंह बादल बहुत कद्दावर नेता थे। प्रकाश सिंह बादल ने गलती यह की कि अपने मुख्यमंत्री रहते हुए बेटे को उप मुख्यमंत्री बना दिया और बेटे ने जो ट्रेलर दिखाया, उसने पंजाब की जनता खासतौर से सिखों को डरा दिया कि अगर यह मुख्यमंत्री बन गए तो पूरे पंजाब का बेड़ा गर्क हो जाएगा और वो दिन और आज का दिन पंजाब के लोग सुखबीर बादल को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। अकाली दल अब पंजाब की राजनीति में कोई मेन प्लेयर नहीं रह गया है।

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इसी कड़ी में पांचवीं नेता हैं उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती। 2009 के चुनाव में लेफ्ट ने उन्हें कंधे पर उठाकर घुमाया और प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया। सत्ता से हटने के बाद उनका जो पतन शुरू हुआ वह अब तक रुकने का नाम ही नहीं ले रहा है। जिस पार्टी की 2007 में 206 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत की सरकार थी,आज उस पार्टी का 403 में से सिर्फ एक विधायक है। तो यह होता है जब जनता की नजर घूम जाती है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में किसी को एमएलसी बनाने की भी उनकी हैसियत नहीं रह गई है।

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छठे नेता के रूप में मैंने रखा है राजस्थान के सचिन पायलट को। एक समय राहुल गांधी से उनकी तुलना होती थी। खैर, राहुल गांधी से मुझे लगता है अब भी वह बेहतर ही हैं। करीब चार साल लगाकर राजस्थान में उन्होंने संगठन खड़ा किया और पार्टी को सत्ता में ले आए। वही उनका सबसे बड़ा अपराध बन गया। उनकी जगह मुख्यमंत्री वह अशोक गहलोत बन गए,जो प्रदेश की राजनीति से भी बाहर थे और बाद में उन्होंने सचिन पायलट को ही उप मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष दोनों पदों से हटा दिया। कांग्रेस हाईकमान भी कुछ नहीं कर पाया। हालांकि सचिन पायलट की अधूरी बगावत उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल रही। या तो वे बगावत करते नहीं या बगावत की तो उसको पूरा करते। नतीजा यह हुआ कि आज देश की राजनीति छोड़िए प्रदेश की राजनीति में भी वह हाशिये पर हैं।

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ऐसे ही सातवें नेता हैं आंध्र प्रदेश के पूर्व सीएम जगन मोहन रेड्डी। राजशेखर रेड्डी के बेटे हैं। सोनिया गांधी से बगावत करके अपनी पार्टी खड़ी की और 2019 में प्रचंड बहुमत से सत्ता में आए। अर्श से फर्श पर पहुंचने में उनको सिर्फ 5 साल लगे। एक समय देश भर में नए उभरते हुए नेता के रूप में उनकी चर्चा होती थी। आज वे आंध्र प्रदेश में भी चर्चा का विषय नहीं है। सत्ता मिलते ही उन्होंने अपनी मां और बहन को किनारे कर दिया और उसके बाद बदले की राजनीति पर उतर आए। चंद्रबाबू नायडू को जेल भेजा। यह उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी गलती थी।

अर्श से फर्श पर आए एक अन्य नेता हैं तेलंगाना के दो टर्म मुख्यमंत्री रहे चंद्रशेखर राव। वे अपने को राष्ट्रीय नेता मानने लगे थे और चौथा मोर्चा बनाने की कोशिश करने लगे। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने दो बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अपमान किया। प्रोटोकॉल है कि प्रधानमंत्री किसी राज्य में जाते हैं तो उस राज्य का मुख्यमंत्री एयरपोर्ट पर उनको रिसीव करने के लिए आता है। राव एक बार प्रदेश से बाहर चले गए और दूसरी बार राजधानी में थे फिर भी रिसीव करने नहीं गए। उनको लगता था कि उन्हें सत्ता से कभी कोई हटा ही नहीं सकता। आज हालत यह है कि अगले चुनाव तक उनकी पार्टी का अस्तित्व भी बचा रहेगा,इसमें शंका है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)