नवभारत टाइम्स की हीरक जयंती-4
व्योमेश जुगरान ।
सब कुछ किसी दंतकथा सरीखा लगता है लेकिन यह सच है कि पंडितजी के रूप में वह अंतिम कड़ी भी ढह चुकी थी जिसे राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी पत्रकारिता के वैचारिक और सरोकारी स्वरूप से लेना-देना था। इसके बाद न संपादक की सत्ता रही और न सरोकार। बचा रहा तो सिर्फ बाजार। इस बाजार ने अखबारी जगत में एक कॉरपोरेट संस्कृति को जन्म दिया और संपादक के अधिकार ब्रांड मैनेजर को हस्तांतरित होते चले गए।
तेजी से बदला परिदृश्य
पंडित जी के जाने के बाद परिदृश्य तेजी से बदला और नवभारत टाइम्स में बाहर से किसी नामचीन को संपादक के रूप में लाने की परिपाटी अस्त हो गई। अंदर से ही किसी को बाजार के हिसाब से तराशने विकल्प चुना गया। इस क्रम में राजेंद्र माथुर परंपरा के एक वरिष्ठ पत्रकार को अखबार की कमान सौंपी गई और उन्हें संपादकीय टीम का नेतृत्व करने के अलावा नई छपाई मशीनों से लेकर सर्कुलेशन, मार्केटिंग और कार्मिक विभाग तक की बारीकियां समझाई गईं।
कंटेन्ट पर बाजार की छाप
जल्द ही अखबार के कंटेन्ट पर बाजार की छाप दिखाई देने लगी। राजनीतिक खबरों और राजनेताओं की तस्वीर से परहेज किया जाने लगा। कहानी, कविता और अन्य साहित्यिक विधाओं से नीतिगत फैसले के तहत मुंह फेर लिया गया। रविवारीय परिशिष्ट का स्थान लाइफ स्टाइल और फिल्मी गॉशिप से जुड़े रुझानों वाले पूल-आउट ने ले लिया। प्रथम पृष्ठ की बॉटम स्टोरी जो कि पहले गंभीर विषय पर आधारित होती थी, अब लाइट और बोल्ड सब्जेक्ट चुनने लगी। लोकल खबरों के पन्ने बढ़ा दिए गए और उनमें क्राइम स्टोरीज पर फोकस किया जाने लगा।
पहले पन्ने पर फैशन परेड
अखबार में पहले पन्ने पर पश्चिमी मुल्कों में लोकप्रिय फैशन परेड से संबंधित तस्वीरें जगह पाने लगीं। हिन्दी को अंग्रेजी के मुल्लमे में लपेटकर एक खास लहजे यानी हिंगलिश के साथ परोसने की जुगलबंदी संपादन कला का सर्वश्रेष्ठ हुनर माना जाने लगा। इन्हीं सब बातों को अपमार्केट पत्रकारिता कहा गया और संपादकीय विभाग में काम करने वाले पत्रकारों को इसी के अनुसार ढलने के फॉर्मूले सुझाए गए।
बाजार की ताकतें और पत्रकारिता की नई परिभाषा
कम अंतराल में ही दशकों पुरानी परंपराएं बदल चुकी थीं। अखबार ब्रांड बन चुका था और इस ब्रांड को बाजार में चलाने के लिए काबिल पत्रकारों के समान ही पारंगत सेल्समैनों की भी जरूरत थी। बाजार की ताकतें पत्रकारिता की नई परिभाषा गढ़ चुकी थी। खास बात यह कि नई पीढ़ी के मालिक का यह प्रयोग न सिर्फ सफल रहा, बल्कि उसने कामयाबी के ऐसे झंडे गाढ़े कि प्रतिष्ठान की पूंजी को पंख लग गए और फिर पीछे मुड़कर देखने को कुछ बचा ही नहीं। आज पत्रकारिता के मुक्ताकाश में उससे ऊंची परवाज़ भरने वाला कोई और नहीं है।
संप्रेषण, विचार और मिशन अखबारों के टिके रहने की गारंटी नहीं
हिन्दी पत्रकारिता के कॉरपोरेट कल्चर के पक्षपातियों की इन दलीलों में दम है कि संप्रेषण, विचार और मिशन जैसी जुमलेबाजी सूचना माध्यमों के अत्याधुनिक साधनों के बीच अखबारों के टिके रहने की गारंटी नहीं हो सकती। करोड़ों की पूंजी लगाकर खड़ी की गई आधुनिक मुद्रण तकनीक को मिशनरी सरोकारों के लिए न्यौछावर नहीं किया जा सकता। इसकी बजाय एक कारोबारी और व्यापारिक लक्ष्य तय करना जरूरी है। इसके लिए नई मनोवृत्ति के पाठक वर्ग की तलाश और तराश दोनों ही जरूरी है। लिहाजा पाठक की इस नई मनोवृत्ति का स्वागत करना होगा जिसने उसके अंदर संपन्न और ऐश्वर्यवान होने की जिजीविषा जगाई है।
‘दृष्टि पत्र’ में भावी कंटेंट की झांकी
यहां एक ‘दृष्टि पत्र’ का जिक्र करना समीचीन है जो तत्कालीन स्थानीय संपादक आदरणीय सूर्यकान्त बाली जी ने डेस्क पर हम सभी साथियों को वितरित किया था। इस पत्र में अखबार के भावी कंटेंट की झांकी थी। जाहिर है, हमें इसके लिए तैयार होना था। संदेश यह था कि नया पाठक एकदम नए मूड में है। वह अखबार को राजनीतिक अटकलों का अड्डा नहीं, बल्कि हर तरह की सूचनाओं और जानकारियों के भंडारगृह के रूप में देखना चाहता है। वह कॅरियर, फैशन, सेक्स, ग्लैमर, नए सामाजिक रिश्ते, तरोताजा रहने की कला और दबावमुक्त मनोरंजन इत्यादि से जुड़े नए प्रवाह में तेजी से बहना चाहता है।
दृष्टि पत्र में कुछ बातें बहुत स्पष्ट थीं और इन बातों के पक्ष में दी गई दलीलों से सहमति-असहमति का सवाल नहीं था क्योंकि यह इकतरफा पत्र था। इसमें कहा गया था-
अखबार से ‘अपेक्षा’
“कभी अखबार आजादी की लड़ाई लड़ते थे, आजादी मिल गई तो वैसी लड़ाई की जरूरत नहीं रही। कभी अखबारों में साहित्य छपता था, अब साहित्य छपने स्रोत और जरिये बहुत फैल चुके है, प्रकाशन की दुनिया व्यापक और समृद्ध हो चुकी है कि लोग अखबार से कहानी, छोटे उपन्यास, साहित्य समालोचना इत्यादि की अपेक्षा नहीं रखते।
सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वासों और अज्ञान से मुक्ति दिलाने का मिशन भी अखबारों द्वारा इतना ज्यादा और जोरदार तरीके से संप्रेषित किया जा चुका है कि अखबारों के पास सामाजिक बदलाव के कथ्य को लेकर पुरानी बातों को दोहराने के अलावा और कुछ खास नहीं रह गया है। इसलिए एक मिशनरी की उसकी भूमिका भी अब खत्म होने लगी है।
नए पाठक की मनोवृत्ति का स्वागत
सदियों से दरिद्र बनाकर रखे गए हमारे समाज में संपन्न और ऐश्वर्यवान होने की आकांक्षा बढ़ रही है। समाज में राजनीतिज्ञों और शासकों के प्रति हिकारत की भावना बढ़ रही है।… इसलिए आज का पाठक यदि अखबारों में राजनीतिक प्रभुत्व को हाशिए पर रखना चाहता है और राजनीतिकों को पूजने से इनकार कर रहा है तो वह राजनीति नहीं, अन्य सूचनाएं और दबावयुक्त मनोरंजन की नूतन सामग्री चाहता है। वह ऐसा अखबार चाहता है जो उसे विपुल समृद्धि, ऐश्वर्य और इसे पाने की मानसिकता दे सके। उसे शोकविहीन रहने और वर्तमान से जुड़ने की मानसिकता दे सके। तो क्यों न हम अपने समाज के इस नए पाठक की इस उम्दा मनोवृत्ति का स्वागत करें।” (समाप्त)