डॉ. राकेश तैलंग ।
हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी होने की अपनी अंतर्यात्रा में मैंने चंद्रधर शर्मा गुलेरी जैसे प्रयोगशील रचना शिल्पी के अवदान को शताधिक उन मसिजीवियों से कहीं बढ़कर पाया जो मानवीय संवेदनाओं में अनेक रंगों से स्नात् होने के उपरांत गुलेरी जी के रचना चैतन्य का मुकाबला नहीं कर पाये।
“सुखमय जीवन” और “बुद्धू का कांटा” उनके कथा लेखन कर्म का उषा और पूर्वाह्न काल था लेकिन “उसने कहा था” शिल्पकारी के अन्यतम मध्याह्न का प्रखर दृष्टांत कहा जा सकता है।
तेरी कुड़माई हो गयी
अमृतसर के भीड़ भरे बाजार के बीच “तेरी कुड़माई हो गयी” के निरर्थक लेकिन दूरगामी संबंधों के निर्माणाधीन पुल से शुरू होकर एक किशोरवय के प्रश्न से हुलसित किशोरी के “धत्” कहकर भाग जाने वाली किशोरवयी के अव्याख्यायित निमिष मिलन की प्रस्तावना है जो तात्कालिक विश्राम पाती है “हां! हो गयी। देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू” कथन से और… प्रत्यक्ष में थम गये लेकिन परोक्षत: चल पड़े इस “कोमलकांत भाव” की यात्रा यकायक अतीत से वर्तमान घटनाक्रम की ओर यू टर्न ले लेती है।
गहन सौरम्य में डूबा प्रेम
जर्मन और फ्रांस के बीच फ्रांस की रणभूमि पर द्वितीय विश्व युद्ध की भाग्यरेखा लिखे जाने वाली लड़ाई में तब भारतवर्ष के सिख योद्धाओं के अतुलनीय साहस पूर्ण कृत्य का मुख्यपात्र लहनासिंह अपने अफसर सूबेदार हजारासिंह और उसके पुत्र बोधासिंह की जर्मन शत्रुओं से रक्षा कर अपने सैनिक होने के कर्तव्य का तो निष्ठापूर्वक निर्वाह करता ही है, किशोरावस्था के उस पवित्र अनुर्वर और अदृप्त प्रेम के समर्पण का भी परिणाम प्रस्तुत करता है। यह अप्रस्फुटित किन्तु गहन सौरम्य में डूबा प्रेम था उस बालिका के प्रति जो लहना को अमृतसर के बाजार में मिलती थी और जिसने रेशम से कढ़े सालू को बताकर अपनी कुड़माई के समाचार दिये थे। अतीत का वह प्रेम वर्तमान में लहना के लिये अपनी उसी प्रेयसी के पति सूबेदार हजारा और पुत्र बोधा के प्राणों की रक्षा कर उऋण होने के रूप में अंत पाता है।
गुलेरी जी ने इस कहानी के अंत में इस प्रेम कथा का पुन:स्मरण करा कहानी में अनुस्यूत “पूर्वार्द्ध शैली” (flash back) के खूबसूरत प्रयोग को स्थापित किया था।
प्रेम और कर्तव्य की भावधारा
अतीत,वर्तमान और पुन:अतीत के ताने बाने में बुनी “उसने कहा था” प्रेम और कर्तव्य के सुन्दर समन्वय से उभरी हिन्दी साहित्य की कालजयी कहानी है। भाग्यशाली हूं मैं जिसने विश्वविद्यालय के युवा छात्र के रूप में इसे हृदयंगम किया और अपने शिक्षकीय जीवन में रिसर्च फेलो के रूप में बड़ौदा विश्वविद्यालय की हिन्दी कक्षाओं के साथ बाद में उच्च माध्यमिक स्तरीय किशोर विद्यार्थियों के बीच उनकी संवेदनों के स्फुरण के साथ इसे पढ़ा और पढ़ाया।
आज भी बालकृष्ण विद्याभवन की शांत, भाव शबल और जिज्ञासु अश्रुपूरित उम्र की परिवर्तनीय दहलीज पर खड़े बच्चों की कक्षाओं के बीच इस कहानी के अंत को अंजाम देने के पलों में नि:सृत कथन मुझे याद आते हैं-
“वजीरासिंह! पानी पिला… उसने कहा था।”
(लेखक वरिष्ठ शिक्षाविद और पूर्व जिला शिक्षा अधिकारी हैं)