वल्लभाचार्य जयंती (7 मई, 2021)
राजीव रंजन।
पौराणिक कथा है: एक बार राजा मांधाता जंगल में तपस्या कर रहे थे, उसी समय एक भालू उनके पैरों को खाने लगा। मांधाता अपनी तपस्या में लीन रहे, लेकिन जब कष्ट असह्य हो गया, तो उन्होंने भगवान विष्णु को पुकारा। भगवान ने आकर भक्त के प्राण बचाए। लेकिन तब तक उनके पैर काफी क्षतिग्रस्त हो चुके थे। भगवान ने मांधाता से कहा कि यदि तुम मथुरा की भूमि पर वरुथिनी एकादशी का व्रत करो, तो तुम्हारे पैर ठीक हो जाएंगे। राजा ने भगवान की आज्ञा का पालन करते हुए ऐसा ही किया और राजा के पैर ठीक हो गए।
यूं तो सभी एकादशियां पवित्र और मोक्षदायिनी मानी जाती हैं। उनमें वैशाख कृष्ण की एकादशी यानी वरुथिनी एकादशी का अपना एक अलग महत्व है। इस एकादशी को विधिपूर्वक व्रत करने से जीवन में मृत्यु समान कष्टों से मुक्ति मिलती है।
सगुण कृष्णभक्ति के आधार स्तंभ
इसी वरुथिनी एकादशी के दिन ही सन् 1479 में कृष्णभक्ति परम्परा के महान संत वल्लभाचार्य का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम श्री लक्ष्मणभट्ट और माता का नाम इलम्मागारू था। वल्लभाचार्य जी के पूर्वज वर्तमान आंध्र प्रदेश राज्य के कांकरवाड़ के निवासी थे। लक्ष्मण भट्ट प्रकांड विद्वान और धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। उनके यशस्वी पुत्र वल्लभाचार्य भक्तिकाल की सगुणधारा की कृष्णभक्ति के आधार स्तंभ हैं। इन्होंने पुष्टिमार्ग की स्थापना की थी और शुद्धाद्वैत दर्शन के भी प्रणेता थे। श्री वल्लभाचार्य को हिन्दी साहित्य में कृष्णभक्ति काव्य का प्रेरणास्रोत माना जाता है। उनके कई शिष्यों ने कृष्णभक्ति में अमर काव्य की रचना की है। कृष्णभक्ति काव्य के सबसे महान संत कवि सूरदास भी महान संत वल्लभाचार्य के ही शिष्य थे।
जन्म के बाद पुत्र को मृत समझ लिया माता-पिता ने
वल्लभाचार्य के जन्म की कथा बहुत अद्भुत है। उनके पिता लक्ष्मण भट्ट अपने संगी-साथियों के साथ जब वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर जिले के चंपारण्य नामक वन से गुजर रहे थे, तब उनकी पत्नी इलम्मागारू को अचानक तेज प्रसव-पीड़ा हुई। संध्या का समय था, वे आगे एक कदम जाने में भी असमर्थ थीं। मजबूरीवश लक्ष्मण भट्ट को अपनी पत्नी के साथ उस सुनसान वन में रुकना पड़ा। उसी रात इल्लम्मागारू ने सुनसान वन में एक विशाल शमी वृक्ष के नीचे गर्भ के आठवें माह में ही एक पुत्र को जन्म दिया। जन्म के बाद बालक के शरीर में किसी प्रकार की कोई हलचल नहीं थी। इल्लम्मागारू को लगा कि उनका पुत्र मृत ही पैदा हुआ है। यह बात उन्होंने अपने पति लक्ष्मण भट्ट को बताई। रात्रि के गहन अंधेरे में लक्ष्मण भट्ट भी ठीक से नहीं देख सके। उन्होंने इसे ईश्वर की इच्छा मान, पुत्र को वस्त्र में लपेट कर उसी शमी वृक्ष के नीचे एक गड्ढे में रख दिया और पत्तों से ढक दिया। उसके बाद वे पत्नी सहित पास में ही स्थित चौड़ा नगर में रात्रि विश्राम के लिए चले गए। उसके बाद वे अपने संगी-साथियों के साथ काशी की ओर चल दिए। जब वे उस स्थान में पहुंचे, जहां उन्होंने अपने पुत्र को मृत समझ कर छोड़ दिया था, तो देखा कि उनका पुत्र जीवित है। लोक मान्यता है कि उस गड्ढे, जिसमें उन्होंने अपने पुत्र को रखा था, उसके चारों ओर अग्नि का एक घेरा बना हुआ था और उस घेरे के बीच वह नवजात शिशु खेल रहा था। इस दिव्य दृश्य को देख कर पति-पत्नी आश्चर्य और हर्ष से भर गए। फिर उसी सुनसान वन में बालक का जातकर्म और नामकरण संस्कार संपन्न हुआ। उसका नाम वल्लभ रखा गया। अग्निकुण्ड से उत्पन्न होने के कारण ही उन्हें ‘वैश्वानर अवतार’ अर्थात् अग्नि का अवतार माना जाता है।
कम आयु में ही वेद-वेदांग के विद्वान
वल्लभाचार्य का आरंभिक जीवन काशी में बीता था। वहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध किया गया था। श्री रुद्रसंप्रदाय के श्री विल्वमंगलाचार्य ने इन्हें ‘अष्टादशाक्षर गोपाल मन्त्र’ की दीक्षा दी थी और त्रिदंड संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्र तीर्थ ने दी थी। महाप्रभु वल्लभाचार्य का उपनयन संस्कार सात वर्ष की आयु में हुआ और उन्होंने 11 वर्ष की आयु तक वेद वेदांगों का अध्ययन पूरा कर लिया था। अपनी विद्वता के कारण ये बहुत कम आयु में ही विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय के दरबार में प्रमुख आचार्य बन गए थे। इन्होंने श्रीमद्भागवत् की सुबोधिनी टीका लिखी है, जो वैष्णव संप्रदाय के सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है। इन्होंने ब्रह्मसूत्र का अणु भाष्य और वृहद् भाष्य लिखा। वृहद् भाष्य अब उपलब्ध नहीं है। इसके अलावा, इन्होंने भागवत तत्वदीप निबंध, पूर्व मीमांसा भाष्य, गायत्री भाष्य, पुरुषोत्तम सहस्रनाम, दशमस्कंध अनुक्रमणिका, त्रिविध नामावली आदि कई ग्रंथों की रचना की। वे वैष्णव धर्म के साथ-साथ जैन, बौद्ध, शैव, शाक्त, शांकर आदि धर्म-संप्रदायों के भी प्रकांड ज्ञाता थे। विशद् ज्ञान और पांडित्य के कारण उन्हें काशी के विद्वत समाज में बहुत आदरणीय स्थान प्राप्त था।
पुत्र विट्ठलनाथ ने की ‘अष्टछाप’ की स्थापना
वल्लभाचार्य का विवाह पंडित श्रीदेव भट्ट की पुत्री महालक्ष्मी से हुआ था, जिनसे इनके दो पुत्र पैदा हुए- श्री गोपीनाथ और विट्ठलनाथ। गोपीनाथ और विट्ठलनाथ भी अपने समय के महान विद्वान व संत थे। विट्ठलनाथ ने अपने पिता के चार शिष्यों- कुंभनदास, सूरदास, परमानंद दास और कृष्णदास तथा अपने चार शिष्यों- चतुर्भुजदास, गोविन्द स्वामी, छीतस्वामी और नंददास को मिलाकर ‘अष्टछाप’ की स्थापना की। हिन्दी साहित्य में श्रीकृष्ण भक्त कवियों में ‘अष्टछाप कवियों’ का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्रीनाथजी के मंदिर में सेवा-पूजा के समय इन्हीं ‘अष्टछाप कवियों’ के पद गाए जाते थे।
ज्ञान से ज्यादा भक्ति को महत्त्व
आदि शंकराचार्य ने ‘अद्वैत दर्शन’ का प्रतिपादन किया था। इसी ‘अद्वैत दर्शन’ के खंडन और समर्थन में में बाद में वेदान्त के कई अन्य सम्प्रदायों की स्थापना हुई। रामानुजाचार्य ने अद्वैत दर्शन की प्रतिक्रिया में ‘विशिष्टाद्वैत’ दर्शन दिया। रामानुजाचार्य के अलावा निम्बार्काचार्य, मध्वाचार्य और वल्लभाचार्य ने भी ज्ञान के स्थान पर भक्ति को अधिक महत्त्व देते हुए वेदान्त को लोकमानस तक पहुंचाने की सफल कोशिश की। उपनिषद्, गीता और ब्रह्मसूत्र ही शंकराचार्य के अद्वैतवाद का आधार था। इसीलिए बाद के अन्य आचार्यों ने भी प्रस्थानत्रयी यानी उपनिषद्, गीता और ब्रह्मसूत्र के साथ-साथ भागवत को भी अपने मत का आधार बनाया। वल्लभाचार्य ने मध्य मार्ग अपनाते हुए वेद, उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र के साथ-साथ श्रीमद्भागवत की व्याख्याओं के माध्यम से अपने दर्शन को लोगों के सामने रखा। लेकिन उन्होंने इनमें श्रीमद्भागवत को अधिक महत्त्व दिया।
श्री वल्लभाचार्य जिस समय में पैदा हुए थे, वह समय हिन्दू धर्म के लिए राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक सभी दृष्टियों से बड़े संकट का समय था। उस कठिन समय में महान संत वल्लभाचार्य ने सगुण भक्ति का प्रसार कर हिन्दुओं के मन की निराशा को दूर किया, उनमें अपने धर्म के प्रति आत्मविश्वास जगाया और हिन्दू पुनर्जागरण में बहुत बड़ा योगदान दिया। उन्होंने इस संसार का त्याग सन् 1531 में किया।
आचार्य महाप्रभु जी की ‘84 बैठकें’
ऐसा माना जाता है कि श्री वल्लभाचार्य ने तीन बार पूरे भारत का भ्रमण किया था। अपनी इन यात्राओं के दौरान इन्होंने 84 जगहों पर श्रीमद्भागवत की विशिष्टता और माहात्म्य पर प्रवचन दिया था। इन स्थानों को 84 बैठक या ‘आचार्य महाप्रभु जी की बैठकें’ कहा जाता है। श्री वल्लभाचार्य के पुत्र श्री विट्ठलनाथ द्वारा स्थापित वल्लभ संप्रदाय में इन बैठकों को मन्दिरों और देवालयों की तरह ही पवित्र माना जाता हैं। इन 84 बैठकों में से से 24 बैठकें ब्रजमंडल (मथुरा, वृंदावन, गोकुल, नंदगांव) में हैं, जो ब्रज चौरासी कोस की यात्रा के विविध स्थानों पर हैं। ये 24 बैठकें हैं-
गोकुल में गोविन्दघाट पर, जो संवत् 1550 में वल्लभाचार्य के पहली बार ब्रज भूमि पर पधारने और वहां भागवत् का प्रचलन करने तथा दामोदरदास हरसानी को ब्रह्म संबंध की पहली दीक्षा देने की स्मृति में बनाई गई है। गोकुल में श्री द्वारकानाथ मन्दिर के बाहर स्थित बैठक ‘बड़ी बैठक’ कहलाती है। गोकुल में ही एक बैठक शैया मन्दिर की बैठक के नाम से प्रसिद्ध है। मथुरा में विश्राम घाट पर एक बैठक है, जो संवत् 1550 में उनके पहली बार मथुरा आने और श्रीमद्भागवत कथा सुनाने की स्मृति में स्थापित है। एक बैठक मधुवन में कृष्णकुण्ड पर है और एक बैठक कुमुदवन में विहार कुण्ड पर है।
इसके अलावा, बहुलावन में कुण्ड पर वट वृक्ष के नीचे, राधाकुण्ड में वल्लभघाट पर, राधाकुण्ड में ही चकलेश्वर के निकट मानसी गंगा के गंगा घाट पर महाप्रभु जी की बैठकें हैं। एक बैठक गोवर्धन में चंद्रसरोवर पर छोंकर वृक्ष के नीचे, एक अन्य गोवर्धन में ही आन्यौर में सद्दू पांडे के घर में है। इस स्थान पर ही वल्लभाचार्य ने संवत् 1556 में श्रीनाथ जी की आरम्भिक सेवा का आयोजन किया था। एक बैठक गोवर्धन में गोविन्द कुण्ड पर, एक गोवर्धन में ही जतीपुरा में श्री गिरिराज जी के मुखारविंद के सन्मुख है। यहां पर श्रीनाथ जी के प्राकट्य की स्मृति में ब्रज-यात्रा के अवसर पर ‘कुनवाड़ा’ किया जाता है। एक बैठक कामवन में श्रीकुण्ड पर, एक बरसाना में गह्वरवन के कृष्णकुण्ड पर, एक करहला में कृष्णकुण्ड पर, एक संकेत में कुण्ड पर छोंकर के वृक्ष के नीचे और एक बैठक प्रेमसरोवर में कुण्ड पर है।
व्रजमंडल की 24 बैठकों में से एक बैठक नन्दगांव में पान सरोवर पर है। एक कोकिलावन में कृष्णकुण्ड पर, एक शेषशायी में क्षीरसागर कुण्ड पर, एक चीरघाट में यमुना तट पर कात्यायनी देवी के मन्दिर के निकट, एक मानसरोवर में कुण्ड पर और एक वृन्दावन में वंशीवट पर है।