स्मृतिशेष : शेष नारायण सिंह

राज खन्ना ।
गाँव की हुड़क मशहूर पत्रकार स्व. शेष नारायण सिंह को रह-रह कर अधीर करती थी। मौका मिलते ही मामपुर का रुख करते। इस बार भी वापस आये। लेकिन कलश में सिमटे हुए। वह गोमती किनारे कुटिया बनाकर बसने के सपने बुनते थे। रविवार की उदास सुबह पैतृक गाँव के निकट मकसूदन में पुत्र सिद्धार्थ और परिजनों ने उनकी अस्थियों को पवित्र गोमती के आँचल के सिपुर्द कर दिया। दुनियावी नजरिये से शेष भाई अब शेष नहीं हैं। लेकिन जिस पढ़ने-लिखने को वह जीते थे, उस विपुल शब्द सम्पदा के जरिये वह जिंदा रहेंगे।

5 मार्च  2020 को उन्होंने अरुण कुमार सिंह को टैग करते हुए तमाम हमउम्र दोस्तों को सम्बोधित एक चिट्ठी पोस्ट की। अगर पढ़ी रही हो तो एक बार फिर पढ़ियेगा। न पढ़ी हो तो जरूर पढ़ियेगा। शेषजी को समझने में मदद मिलेगी। खुद को भी आस-पास पा सकते हैं। चिठ्ठी इस प्रकार है…

साठ और सत्तर साल के मेरे दोस्तों के नाम एक चिट्ठी : शेष नारायण सिंह 

मेरे प्यारे दोस्त,
मैं खैरियत से हूं और उम्मीद करता हूं कि तुम भी जहां होगे, खैरियत से ही होगे। मार्च का महीना है और तुम्हारी याद बहुत ही शिद्दत से आ रही है। हर साल मार्च के महीने में जब नीम के पत्ते पीले होने लगते हैं तो लगता है एक साल गया। तुमको याद  है जब तुम कहते थे कि औरों का साल जनवरी से शुरू होता है, लेकिन हमारा साल तो जुलाई से शुरू होता है क्योंकि स्कूल खुलने के साथ ही सब कुछ नया होने लगता है।
तुम्हारे इस बयान पर मैं अपनी राय देता था कि नहीं, मेरे गाँव में तो साल चैत से शुरू होता है जब महुआ के फूलों की खुशबू, आम के बौर की खुशबू, चना  मटर की कटिया और  खलिहान में सज रहे जौ और गेहूं के बोझ, माघ पूस की अधपेट खाने की यादों को पीछे धकेलते नज़र आते थे। काफी जद्दो जहद के बाद, तुमसे झिड़की खाने के बाद तुम्हारी आँखों के गुस्से वाले लाल डोरों की दहशत में मैं मान लेता था कि  तुम ही सही हो। नए साल की हिम्मत नहीं है कि वह जुलाई के अलावा किसी और महीने में शुरू हो जाय।
तुम्हारा आतंक था मुझपर। अब वह आतंक बहुत याद आता है। लेकिन मैं आज तक तुम्हारा शुक्रगुजार हूं कि तुमने यह मान लिया था कि पढ़ाई लिखाई के लिहाज से मार्च ही साल का अंतिम महीना है। हाई स्कूल और इंटर के इम्तिहान तो मार्च में ही हो जाते थे लेकिन जब मेरी तुमसे दोस्ती हुई, उसके बाद हमारे इम्हितान अप्रैल मई में होते थे। मार्च के महीने में परीक्षा की तैयारी करना एक अच्छा अनुभव है।
Journalist shesh narayan singh passed away - Satyahindi
पता नहीं क्यों मार्च के महीने में मैं मरियल सी शक्ल लेकर घूमता रहता था। तुम्हारे अलावा आज तक किसी को नहीं बताया। जब तुमको बताया कि मेरे मन में डर लगता रहता है कि पता नहीं अगले साल फिर अगली कक्षा में पढ़ने की अनुमति मिलेगी कि नहीं। तुमने दिलासा दिया था कि चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा। तुम्हारे कहने पर ही मैंने प्रिंसिपल हृदय नारायण सिंह और डॉ. अरुण कुमार सिंह से अपनी इस शंका को शेयर किया था। शुक्रिया मेरे दोस्त, उन दोनों ही महानुभावों ने गारंटी ले  ली थी कि न केवल पढ़ाई पूरी करोगे बल्कि अगर तुम चाहोगे तो तुमको कालेज में काम भी मिल जाएगा। हालांकि कालेज में काम करने की आइडिया को तुमने खारिज कर दिया था लेकिन प्रिंसिपल साहब का वह वादा बहुत बड़ा संबल था।
तुमसे मिलने के पहले मैं मेक-बिलीव की दुनिया में रहता था। असंभव सी कल्पनाएँ करना और उनमें ही कल्पना लोक का विचरण। लेकिन तुमने सच्चाई से बावस्ता रहने का सबक सिखाया और ऐसे लक्ष्य  निर्धारित करने की तमीज सिखाई जिनको जल्दी से जल्दी हासिल किया जा सके। उसके बाद ही मैंने बहुत मामूली लक्ष्य बनाने की रीति का पालन शुरू किया था। याद है उन दिनों परिवार नियोजन का नारा था, “दो  या तीन बच्चे, होते हैं घर में अच्छे।“ बाद में तो नारा बदल गया था। हमारी पढाई पूरी होते होते नारा हो गया था, “हम दो, हमारे दो ।“ बहुत बाद में तो नारा बहुत बदल गया और हो गया, ”हम दोनों एक, हमारा एक।“ खैर हम दो या तीन बच्चों की बात करते थे। मैंने सोचा था कि पहला बच्चा बेटी होगी जबकि तुमने पहले बेटे की इच्छा जताई थी। बच्चों की पढ़ाई लिखाई के बारे में हमने जो योजनायें बनाई थीं, आज देखता हूं कि सब हवा हो चुकी हैं। जीवन में  हमारे और  तुम्हारे लक्ष्य अलग अलग थे। हम अलग अलग रास्तों पर चले गए। लेकिन आज लगता है कि हमारे रास्ते फिर एक हो गए  हैं।
जो कुछ भी सोचा था, वह सारा तो नहीं मिल सका लेकिन सपने देखने के पचास साल बाद पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि बहुत कुछ मिल गया है। शरीर पुराना हो रहा है, शरीर पर झुर्रियां साफ़ नज़र आने  लगी हैं, और अपनी उम्र के उन लोगों को देखकर हंसी आती है जो अब भी आर्थिक रूप से कुछ अधिक हासिल करने के लिए दौड़ रहे हैं। उन लोगों को मैं यह बताता हूँ कि अपने आप को संभालो, साथ लेकर  कुछ नहीं जाना है। जितना संभव हो अपने हाथ पाँव को दुरुस्त रखो, बहुत ज्यादा टॉनिक आदि के चक्कर में मत पड़ो। शरीर को तो एक दिन जाना ही है। बच्चे अपने हिसाब से अपनी ज़िंदगी जी रहे हैं उनको सलाह देने की कोशिश मत करो। जिद छोड़ दो, सबसे बड़े शुभचिंतक आपके अपने बच्चे ही होते हैं। उनकी सलाह मानो। हाँ यह सही है कि उनके पास आप जैसा अनुभव नहीं है तो उनको किसी भी फैसले के संभावित परिणामों से अवगत करवा  दो। फैसला उनका ही फाइनल मानो क्योंकि नतीजों का सामना उनको ही करना है। मकान आदि में कोई बहुत संशोधन आदि करवाने की ज़रूरत नहीं है।
सन 1950 और सन 1955 के बीच पैदा हुए मेरे हम उम्र साथियों, आपको जो भी करना था, आप कर चुके। आपने अपने परिवार को, अपने समाज को जितना दिया, वही आपकी सीमा थी। आपने अपनी सीमा के हिसाब से काम किया। अगर आपके बच्चे आपके साथ रहते हैं तो वे आपका ख्याल रख रहे होंगे लेकिन अगर वे आपके साथ नहीं रह रह रहे तो मेरा विश्ववास करो-  वे आपके बारे में हमेशा चिंतित रहते हैं।आपको बस यह दुआ करना है कि आप खुद बीमार न पड़ें क्योंकि अगर आप बीमार पड़ जायेंगे तो आपकी एक नहीं चलेगी। आपके बच्चे अपना बड़ा से बड़ा नुकसान करके आपकी तीमारदारी में लग जायेंगे। उनका नुकसान होगा। उससे बचने की पूरी कोशिश करनी चाहिए लेकिन सब कुछ अपने अधीन नहीं है।
हां, यह भी सोचने की ज़रूरत नहीं है कि मेरे जाने के बाद मेरे बच्चों को बहुत परेशानी होगी, बहुत दुखी होंगे बेचारे। मेरी बात मानो दोस्त, कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है। अगर आपके बच्चे आपके साथ रहते हैं तो आपके जाने के बाद उनको खुशी होगी कि चलो एक कमरा खाली हुआ और अगर बच्चे दूर रहते हैं तो आपकी देखभाल का एक बोझा उनके सर से उतर जाएगा। हाँ, इसमें एक पेंच है। अगर आपको पेंशन मिलती है तो आपके परिवार की आमदनी थोडा कम हो जायेगी। लेकिन जाना तो है ही उसको कोई नहीं रोक सकता। उसके लिए जीते जी में ही बहुत दुखी होने की ज़रूरत नहीं है।
तुमको याद है एमए के पहले साल में मैंने आईआईएम, अहमदाबाद में प्रवेश का फॉर्म मंगवाया था। तुमने फॉर्म भरने से मना कर दिया था क्योंकि किसी पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा के लिए फॉर्म क्यों भरोगे जबकि एमए का कोर्स पूरा होने पर डिग्री मिलने वाली थी। कितने बेवकूफ थे तुम और हम भी। पता है आईआईएम से उसी पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा की पढ़ाई करने के बाद मेरे बेटे ने ज़िंदगी को बहुत ही खूबसूरत बना लिया है। विदेश की शिक्षा के हमने तो सपने भी नहीं देखे थे लेकिन जब बच्चे विदेशी शिक्षा लेकर आते हैं तो लगता है कि- सब कुछ खुदा से मांग लिया, इक तुमको मांगकर, उठते नहीं हैं हाथ मेरे इस दुआ के बाद। जब तुम दिल्ली आये थे और हम साथ साथ श्री वेंकटेश्वर कालेज गए थे, किसी प्रो. पति से मिलने. तुमने कहा था कि अगर इस कालेज में किसी बच्चे का एडमिशन हो जाए तो मज़ा आ जाये। जब एक बेटी का एडमिशन वहां हुआ था तो मैंने तुमको कितनी खुशी भरा सन्देश भेजा था। वह बेटी अब बड़ी हो गयी है और दिल्ली शहर में वही मेरी गार्जियन है। प्लाज़ा सिनेमा से निकल कर जब हम नई दिल्ली स्टेशन जाते हुए रास्ता भूलकर गोल गोल घूम रहे थे तो जिस सड़क पर हम कई बार आ जाते थे, उसी बसंत रोड पर उसका मकान है।
याद है जब हम अपने कोर्स के एजुकेशन टूर में मुंबई गये थे। कितना अच्छा लगा था पहली बार समुद्र देखना। समुद्र की विशालता से मन ने अपनी औकात का एक बार फिर दर्शन करवा दिया था। लगभग वैसी ही  अनुभूति थी जो सबसे पहले हिमालय देखने पर हुई थी। जब तुम्हारे बाबूजी के किसी दोस्त ने हमको  मुंबई के सन एन सैंड होटल में ले जाकर खाना खिलाया था, वह  खुशी आज तक है। बाद में जब मैं काम के सिलसिले में मुंबई गया तो उस होटल का दर्शन करने गया था। उसी यात्रा के दौरान तुमने पता किया था कि जुहू में घर कितने में मिलेगा तो जो कीमत बताई गयी थी वह कितनी हास्यास्पद लगी थी। हमने  कहा था कि इतने महंगे मकान में रहना कितनी बड़ी बेवकूफी है। वहीं अब हमारा पौत्र अपने माता पिता के साथ रहता है और बेवकूफी करता है। मेरा वह दुबला पतला दोस्त याद है जिससे हम मिले थे। मेरे हास्टल का साथी- ठाकुर प्रसाद। वह अब बहुत मोटा हो गया है। लंबा तो था ही। अट्ठावन इंच तो तोंद का घेरा है उसका। फुल सेठ लगता है। जब मैं 2004 में मुंबई गया था काम की तलाश में तो वह एक बार  सन-एन-सैंड होटल ले गया। लेकिन कहा कि यहाँ आने की ज़रूरत नहीं है, अब उससे बहुत अच्छे होटल वहीं जुहू बीच पर हैं। तुमने मुम्बई में रहने की बड़ी इच्छा जताई थी लेकिन वह कभी पूरी नहीं हुई।
मुंबई शहर सपनों को शक्ल देने वाला शहर है। लेकिन अगर सपने व्यावहारिक न हुए तो दुनिया में सपनों का सबसे बड़ा कब्रिस्तान भी मुंबई ही है। वह शहर सच्चाई को स्वीकार करने के सैकड़ों अवसर देता है। लेकिन अगर कोई कल्पनालोक में ही खोया रहना चाहता है तो उसको अपने सपने दफन करने पड़ते हैं। अपने गाँव गिरांव में वह स्वप्नदर्शी अपनी हैसियत के बारे में इतनी झूठ बोल चुका होता है कि वापस अपनी मां या अपनी माटी की गोद में नहीं लौटता। उसी मुंबई शहर में अपने सपनों के शमशान के आसपास ही भीख मांगकर या धोखेबाजी का कारोबार करके पेट पालता  है। इसीलिए तुमने मुझसे वचन लिया था कि काम की तलाश में मुंबई नहीं जाना। मैं नहीं गया लेकिन बच्चों के यहाँ जाना अच्छा लगता है।
मैंने दिल्ली आकर अपने सपनों को शक्ल देने का फैसला किया और तुमको बताते हुए खुशी हो रही है, यहाँ भी कुछ ऐसे शानदार दोस्त मिले कि ज़िंदगी में कोई कमी नहीं रह गयी। अगली चिट्ठी में अपनी दिल्ली यात्रा की कहानी लिखूंगा।