फिल्म समीक्षा : ‘सरदार का ग्रैंडसन’
कलाकार- अर्जुन कपूर, रकुलप्रीत सिंह, नीना गुप्ता, कुमुद मिश्रा, कंवलजीत सिंह, सोनी राजदान, अदिति राव हैदरी और जॉन अब्राहम (अतिथि भूमिका में)
निर्देशक- काशवी नायर
निर्माता- जॉन अब्राहम, भूषण कुमार, कृषण कुमार, दिव्या खोसला कुमार, निखिल आडवाणी, मोनिषा आडवणी
स्टार- 5 में से 2.5
दादी-पोते के रिश्तों की डूबती-उतराती कहानी
राजीव रंजन।
ओटीटी प्लेटफॉर्म ‘नेटफ्लिक्स’ पर रिलीज हुई ‘सरदार का ग्रैंड सन’ के नाम से एकबारगी यह लग सकता है कि यह 2012 में आई अजय देवगन की फिल्म ‘सन ऑफ सरदार’ से सम्बंधित होगी। उसका सीक्वल या उस सीरीज की अगली फिल्म। लेकिन दोनों में नाम की थोड़ी समानता के अलावा, और कोई सम्बंध नहीं है। दोनों फिल्मों की कहानी अलग है, कलाकार अलग हैं, निर्माता अलग हैं और निर्देशक भी अलग हैं। यह फिल्म दादी और पोते के रिश्ते पर आधारित है। दादा-दादी और पोते-पोतियों के रिश्तों, पारिवारिक रिश्तों पर कई फिल्में बन चुकी हैं। लेकिन इस फिल्म में पाकिस्तान और भारत का कोण भी डाला गया है और वह कोण कहानी का एक बेहद अहम हिस्सा है।
कहानी का प्लॉट
अमरीक (अर्जुन कपूर) अमेरिका में रहता है और अपनी गर्लफ्रेंड राधा (रकुलप्रीत) के साथ मिलकर मूवर्स एंड पैकर्स कंपनी ‘जेंटली जेंटली’ चलाता है। एक दिन अमरीक के पास उसके पिता गुरकीरत (कंवलजीत सिंह) का फोन आता है कि उसकी दादी सरदार कौर (नीना गुप्ता) लाहौर जाना चाहती है। अपने उस घर को देखने, जो उसने अविभाजित भारत में अपने पति गुरशेर सिंह (जॉन अब्राहम) के साथ बसाया था। जहां उन्होंने अपनी साइकिल कंपनी ‘चैम्पियन साइकिल’ शुरू की थी, जो आज एक बड़ी कंपनी में तब्दील हो चुकी है। आजादी के समय दंगाइयों ने सरदार के पति गुरशेर सिंह की हत्या कर दी थी। सरदार किसी तरह अपने नवजात बेटे को लेकर वर्तमान भारत के अमृतसर पहुंची। 90 साल की उमर में सरदार अपना पुराना घर देखना चाहती है। अब अमरीक ही उसे समझा सकता है, क्योंकि वह सरदार का सबसे चहेता है। अमरीक अमृतसर पहुंचता है। दादी की भावनाओं को समझकर उसे लाहौर ले जाने का वादा करता है। लेकिन समस्या यह है कि दादी को पाकिस्तान ने ब्लैकलिस्ट कर रखा है। दरअसल, भारत में हुए एक भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच में कहा-सुनी में सरदार ने एक पाकिस्तानी अधिकारी सकलैन नियाजी (कुमुद मिश्रा) की दाढ़ी नोच ली थी। अब वह पाकिस्तानी अधिकारी लाहौर का मेयर है। सारी कोशिशों के बावजूद सरदार को पाकिस्तान का वीजा नहीं मिलता। सरदार का दिल टूट जाता है। अमरीक यह तय करता है कि दादी लाहौर के अपने घर नहीं जा सकती, लेकिन आधुनिक तकनीक की मदद से घर तो अमृतसर आ सकता है। वह पाकिस्तान पहुंच जाता है। वहां उसे क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं, बाद की आधी फिल्म उसी पर आधारित है।
प्रस्तुतिकरण
इस फिल्म की कहानी ठीक है, लेकिन पटकथा दमदार नहीं होने की वजह से यह एक अच्छी फिल्म के स्तर पर नहीं पहुंच पाई है। पटकथा में जो कसावट होनी चाहिए, वह नदारद है। कभी-कभी तो वह कुछ प्रभावित करती है और कभी एकदम से फीकी पड़ जाती है। संवाद भी कुछ जगह ठीक हैं, लेकिन कई मौकों पर स्थिति के अनुरूप प्रभाव पैदा नहीं कर पाते। इस तरह की फिल्मों में भावनात्मक पक्ष बहुत मायने रखता है। कई चीजें बहुत यथार्थपूर्ण नहीं होने के बावजूद भावनात्मक रूप से सशक्त होने के कारण दर्शकों से जुड़ जाती हैं, उन्हें अपनी ओर खींच लेती हैं। यह फिल्म इस मोर्चे पर चूक जाती है। इस फिल्म में दादी-पोते का भावनात्मक रिश्ता और देश विभाजन के समय हुए दंगों के कारण अपना बहुत कुछ खो देने, घर छूटने की पीड़ा को केंद्रीय विषय बनाया गया है। कई जगह यह फिल्म भावुक भी करती है, लेकिन अधिकांश दृश्य दिल को छू पाने में असफल हैं। खासकर विभाजन के समय के कुछ दृश्य, जो फिल्म की जान हो सकते थे, बस हल्के से छूकर निकल गए, दिल में नहीं उतर पाए। क्लाईमैक्स भी इस फिल्म का कमजोर पहलू है। बहुत सपाट लगता है। यह तनाव या रोमांच पैदा नहीं कर पाता।
निर्देशन और गीत-संगीत
जैसाकि पहले ही बता चुके हैं, कहानी में संभावनाएं थीं, लेकिन पटकथा पर ज्यादा मेहनत नहीं किए जाने की वजह से यह एक बेहद औसत फिल्म बन कर रह गई। हालांकि कई बार साधारण पटकथा को भी निर्देशक अपनी कल्पनाशीलता के जरिये एक औसत से बेहतर फिल्म में तब्दील कर देते हैं, लेकिन काशवी नायर बतौर निर्देशक एक रोचक संसार रचने में ज्यादा सफल नहीं हो पाई हैं। फिल्म बार-बार उनकी पकड़ से छूटती रहती है। कुछ देर पटरी पर चलती है, फिर पटरी से उतर जाती है। फिर पटरी पर आती है, फिर उतर जाती है। वैसे यह कोई बहुत बुरी फिल्म नहीं है, लेकिन इसमें निरंतरता (कंटीन्यूटी) नहीं है। काशवी नायर निर्देशक और लेखक, दोनों भूमिकाओं में छाप नहीं छोड़ पाती हैं। ऐसी फिल्मों में गीत-संगीत के लिए काफी संभावनाएं मौजूद होती हैं, लेकिन इसमें वह पक्ष भी सशक्त नहीं है। फिल्म के अन्य तकनीकी पक्ष भी खास उल्लेखनीय नहीं हैं, हां कुछ दृश्य जरूर सुंदर हैं।
अभिनय
अर्जुन कपूर और नीना गुप्ता, इन्हीं दो कलाकारों के कंधे पर फिल्म का दारोमदार था। अर्जुन ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है। फिल्म में उनका वजन थोड़ा ज्यादा नजर आ रहा है, जो थोड़ा अखरता है, खासकर यह देखते हुए कि इन दिनों अभिनेता अपनी फिटनेस पर बहुत जोर देते हैं। मलाइका अरोड़ा जैसी फिट अभिनेत्री की संगत भी शायद अर्जुन पर असर नहीं डाल पाई है। खैर, फिटनेस का जो भी मसला हो, उन्होंने अपने काम में कोई कोताही नहीं बरती है। नीना गुप्ता का काम अच्छा है, लेकिन दिक्कत है कि वो टाइप्ड हो गई हैं। एक जैसी ही भूमिकाएं ही उन्हें ज्यादा दी जा रही हैं, इसलिए उनका अभिनय अच्छा होते हुए भी असरदार नहीं लगता। पटकथा और प्रस्तुतिकरण भी इसकी अहम वजह है। दूसरी बात, वह 90 वर्ष की बुजुर्ग महिला की भूमिका में हैं, लेकिन इतनी उम्र की लग नहीं रही हैं। कंवलजीत सिंह की मां तो बिल्कुल नहीं लग रही हैं। रकुलप्रीत को कम सीन मिले है, लेकिन उन्होंने भी अपना काम ठीक किया है। कुमुद मिश्रा के पास ज्यादा कुछ करने को था नहीं, जितना था, उसमें वह ठीक रहे हैं। युवा सरदार की भूमिका में अदिति राव हैदरी औसत हैं। फिल्म के निर्माताओं में से एक जॉन अब्राहम इस फिल्म में अतिथि भूमिका में हैं। बस थोड़ी देर के लिए आए हैं। उनके अभिनय में ऐसा कुछ नहीं हैं, जिसकी चर्चा की जाए। कंवलजीत सिंह, सोनी राजदान सहित अन्य कलाकार भी औसत रहे हैं। सच कहें, तो फिल्म की स्टारकास्ट ठीक है, लेकिन ज्यादातर किरदारों को इस तरह गढ़ा गया है कि वे उभर ही नहीं पाए हैं।
कुल मिलाकर कोरोना काल में घर पर समय बिताने के लिए यह फिल्म देख सकते हैं, अगर नेटफ्लिक्स का सब्सक्रिप्शन है तो। यह एक टाइमपास फिल्म है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।