स्मरण: आज अब्बास साहब को दुनिया से गए 34 साल हो गए।

रेहान फ़ज़ल।
उन दिनों अब्बास फ़िल्म ‘सात हिंदुस्तानी’ के लिए अभिनेताओं की तलाश में थे। एक दिन ख़्वाजा अहमद अब्बास के सामने कोई एक लंबे युवा व्यक्ति की तस्वीर ले कर आया।

अब्बास ने कहा, “मुझे इससे मिलवाइए”। तीसरे दिन शाम के ठीक छह बजे एक शख़्स उनके कमरे में दाख़िल हुआ। वो कुछ ज़्यादा ही लंबा लग रहा था, क्योंकि उसने चूड़ीदार पायजामा और नेहरू जैकेट पहनी हुई थी।
ख़्वाजा अहमद अब्बास ने इस बातचीत का पूरा विवरण अपनी आत्मकथा, ‘आई एम नॉट एन आईलैंड’ में लिखा है-

अभी तक किसी ने मुझे अपनी फ़िल्म में नहीं लिया

“बैठिए। आपका नाम?”
“अमिताभ”(बच्चन नहीं)
“पढ़ाई?”
“दिल्ली विश्वविद्यालय से बीए।”
“आपने पहले कभी फ़िल्मों में काम किया है?”
“अभी तक किसी ने मुझे अपनी फ़िल्म में नहीं लिया।”
“क्या वजह हो सकती है ?”
“उन सबने कहा कि मैं उनकी हीरोइनों के लिए कुछ ज़्यादा ही लंबा हूँ।”
“हमारे साथ ये दिक्कत नहीं है, क्योंकि हमारी फ़िल्म में कोई हीरोइन है ही नहीं। और अगर होती भी, तब भी मैं तुम्हें अपनी फ़िल्म में ले लेता।”
“क्या मुझे आप अपनी फ़िल्म में ले रहे हैं? और वो भी बिना किसी टेस्ट के?”
“वो कई चीज़ों पर निर्भर करता है। पहले मैं तुम्हें कहानी सुनाऊंगा। फिर तुम्हारा रोल बताऊंगा। अगर तुम्हें ये पसंद आएगा, तब मैं तुम्हें बताऊंगा कि मैं तुम्हें कितने पैसे दे सकूंगा।”

जीवन में इस तरह के चांस लेने ही पड़ते हैं

amitabh bachchan signed his first film saat hindustani on 15 february in 1969 read complete story 76th birthday

इसके बाद अब्बास ने कहा कि पूरी फ़िल्म के लिए उसे सिर्फ़ पांच हज़ार रुपए मिलेंगे। वो थोड़ा झिझका, इसलिए अब्बास ने उससे पूछा, “क्या तुम इससे ज़्यादा कमा रहे हो?”
उसने जवाब दिया, “जी हाँ. मुझे कलकत्ता की एक फ़र्म में सोलह सौ रुपए मिल रहे थे। मैं वहाँ से इस्तीफ़ा दे कर यहाँ आया हूँ।”
अब्बास आश्चर्यचकित रह गए और बोले, “तुम कहना चाह रहे हो कि इस फ़िल्म को पाने की उम्मीद में तुम अपनी सोलह सौ रुपए महीने की नौकरी छोड़ कर यहाँ आए हो? अगर मैं तुम्हें ये रोल ना दूँ तो?”
उस लंबे व्यक्ति ने कहा, “जीवन में इस तरह के चांस तो लेने ही पड़ते हैं।”
अब्बास ने वो रोल उसको दे दिया और अपने सचिव अब्दुल रहमान को बुला कर कॉन्ट्रैक्ट डिक्टेट करने लगे। उन्होंने उस शख़्स से इस बार उसका पूरा नाम और पता पूछा।
“अमिताभ।”
उसने कुछ रुक कर कहा, “अमिताभ बच्चन, पुत्र डॉक्टर हरिवंशराय बच्चन।”

कॉन्ट्रैक्ट पर तब तक दस्तख़्त नहीं हो सकते…

Amitabh Bachchan on Twitter: "T 1814 -My first film SAAT HINDUSTANI, poster .. ! From left - Anwar Ali, Madhukar, Utpal Dutt, AB, Jalal Agha, Madhu http://t.co/kMY5wKF7nz"

“रुको.” अब्बास चिल्लाए। “इस कॉन्ट्रैक्ट पर तब तक दस्तख़्त नहीं हो सकते, जब तक मुझे तुम्हारे पिता की इजाज़त नहीं मिल जाती। वो मेरे जानने वाले हैं और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड कमेटी में मेरे साथी हैं। तुम्हें दो दिनों तक और इंतज़ार करना होगा।”
इस तरह ख़्वाजा अहमद अब्बास ने कॉन्ट्रैक्ट की जगह डॉ. बच्चन के लिए एक टेलिग्राम डिक्टेट किया और पूछा, “क्या आप अपने बेटे को अभिनेता बनाने के लिए राज़ी हैं?”
दो दिन बाद डॉक्टर हरिवंशराय बच्चन का जवाब आया, “मुझे कोई आपत्ति नहीं। आप आगे बढ़ सकते हैं।”
आगे की घटनाएं इतिहास हैं।

मामूजान भी हमारे साथ ही ज़मीन पर सोते

Film History Pics on Twitter: "(1969) Making of Amitabh Bachchan 's debut film 'Saat Hindustani'. Director KA Abbas with Utpal Dutt, Jalal Agha, Anwar Ali, Amitabh Bachchan & others. @SrBachchan… https://t.co/zoBECuGo1i"

अमिताभ बच्चन बताते हैं, “हम उन्हें मामू जान कहा करते थे। जब हम सात हिंदुस्तानी की शूटिंग करने गोवा गए, तो हम सबने ट्रेन के तीसरे दर्जे में सफ़र किया। ये उनका भारत के आम आदमी को सम्मान देने का अपना तरीका था।”
“लोकेशन पर हम सभी सरकारी गेस्ट हाउसों में रुकते, जहाँ बहुत ही मामूली सुविधाएं होतीं। रात में हम लोग एक हॉल में ज़मीन पर अपना होल्डाल बिछा कर सोते। वहाँ कोई बिजली नहीं होती थी। मामूजान भी हमारे साथ ही ज़मीन पर सोते और रात में जब कभी मेरी आँख खुलती तो मैं देखता कि वो देर रात लालटेन की रोशनी में अगले दिन होने वाली शूटिंग के डायलॉग लिख रहे होते।”

कोई बताए के हम बताएं क्या

बहुआयामी शख़्सियत थी ख़्वाजा अहमद अब्बास की। लेखक कहते कि वो पत्रकार हैं। पत्रकार कहते कि वो फ़िल्मकार हैं। फ़िल्मकार कहते कि वो कहानियाँ लिखते हैं।
ऐसे में उनके मुंह से अक्सर ग़ालिब का ये मिसरा निकलता- ‘पूछते हैं वो कि ग़ालिब कौन है, कोई बताए के हम बताएं क्या!’

अब्बास के लेखन में कोई गड्ढ़े नहीं हैं

Meeting of the stalwarts: Big B meets Rajinikanth | IndiaToday

तीस सालों तक उनके दोस्त रहे मशहूर उपन्यासकार कृष्ण चंदर ने उनके कहानी संग्रह ‘पाओं में फूल’ के प्राक्कथन में लिखा था, “जब मैं अपनी, इस्मत और मंटो की कहानियों को पढ़ता हूँ तो मुझे लगता है कि हम लोग एक ख़ूबसूरत रथ पर सवार हैं। जबकि अब्बास की कहानियों से लगता है जैसे वो हवाई जहाज़ पर उड़ रहा हो। हमारे रथों में चमक है। उनके पहियों तक में नक्काशी है। उनकी सीटों में बेल बूटे लगे हुए हैं। उनके घोड़ो की गर्दनों से चाँदी की घंटियाँ लटक रही हैं।”
“लेकिन उनकी चाल बहुत सुस्त है। उनकी सड़के गंदी हैं और उनमें बहुत गड्ढ़े हैं। जबकि अब्बास के लेखन में कोई गड्ढ़े नहीं हैं। उनकी सड़क पक्की और समतल है। ऐसा लगता है कि उनका कलम रबर टायरों पर चल रहा है। पश्चिम में साहित्य और पत्रकारिता की सीमाएं धुंधली पड़ रही हैं। वाक्य छोटे होते जा रहे हैं। हम लेखकों में ये ख़ूबी सिर्फ़ अब्बास में है।”

‘दि एंड’ की जगह जब स्क्रीन पर ‘द बिगनिंग’ आया

सय्यदा हमीद

सय्यदा सैयदेन हमीद जानी-मानी लेखिका हैं और ख़्वाजा अहमद अब्बास की भतीजी हैं। वो योजना आयोग की सदस्य भी रह चुकी हैं। सय्यदा याद करती हैं, “अब्बास साहब एक ‘ह्यूमन डायनेमो’ थे। बहुत चुलबुली तबियत थी उनकी। बच्चों के साथ हमेशा बच्चे बन जाते थे। हम लोग बंबई की फ़िल्मी ज़िंदगी से बहुत मुतास्सिर थे और उतनी ही सख़्ती से हमें उस तरफ़ बढ़ने से रोका जाता था। जब हम उनकी फ़िल्म देखते थे तो हमें बहुत तनाव होता था और हम दुआएं करते थे कि काश ये फ़िल्म हिट हो जाए।”
“मुझे याद है कि हम सब लोगों ने उनके साथ दिल्ली के दरियागंज के गोलचा सिनेमा में उनकी फ़िल्म ‘परदेसी’ देखी थी। अंत में ‘दि एंड’ की जगह जब स्क्रीन पर ‘द बिगनिंग’ आया था तो सभी दर्शकों ने ज़ोर से तालियाँ बजाई थीं और हमारी जान में जान आई थी कि ये फ़िल्म तो हिट होगी ही। मुझे याद है शो ख़त्म होने के बाद हम बीस के बीस लोग पास के मोतीमहल रेस्तराँ में गए थे जहाँ अब्बास साहब ने हमारे लिए चार मेज़ें बुक करा रखी थीं…”

राजकपूर बोले, अब यह कहानी मेरी हो गई

New Narratives for the New Age: The Cinema of K.A. Abbas | Sahapedia

राज कपूर के लिए ख़्वाजा अहमद अब्बास ने कई फ़िल्में लिखीं। अब्बास अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “मैं, वीपी साठे और इंदरराज आनंद मरोसा रेस्तराँ में मिला करते थे। एक बार राज कपूर ने किसी से सुना कि मैंने एक कहानी लिखी है। वो मेरे पास आए और कहानी सुन कर बोले कि अब्बास अब ये कहानी मेरी हो गई। इसे किसी और को मत दे देना।”
“राज ने ये ज़िम्मेदारी मुझे दी कि मैं उनके पिता पृथ्वीराज कपूर के पास जाऊँ और उन्हें हीरो के पिता का रोल करने के लिए राज़ी करूँ। उन्होंने कहानी सुनते ही कहा, “तो तुम मुझे हीरो के बाप का रोल देना चाहते हो?” मैंने कहा, “नहीं हज़ूर, आप हीरो के बाप नहीं हैं। आप हीरो हैं और राज आपके बेटे का रोल कर रहा है।”

क्या हमारी फ़िल्म इतनी ख़राब है?

Awara Full Movie | Raj Kapoor | Nargis | Superhit Old Classic Movie - YouTube

राज कपूर को ‘आवारा’ बनाने में दो साल लग गए। अब्बास अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “आवारा के प्रीमियर के दिन राज कपूर ने पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री को बुला रखा था। मुझे याद है शो के बाद हर कोई चुपचाप राज कपूर के पास जाता। उनसे हाथ मिलाता और बाहर निकल जाता। राज कपूर दरवाज़े पर खड़े थे। लोगों की भावभंगिमा ऐसी थी जैसे वो उन्हें मुबारकबाद देने की बजाए सांत्वना दे रहे हों।”
“जब सब चले गए तो राज ने मुझसे और साठे से पूछा, ‘बताओ क्या हमारी फ़िल्म इतनी ख़राब है?’ मैंने कहा ये बहुत अच्छी फ़िल्म है। अगले दिन का इंतज़ार करिए और देखिए लोग इसे किस तरह हाथों-हाथ लेते हैं। बिल्कुल यही हुआ। फ़िल्म ज़बरदस्त हिट रही। उस ज़माने में फ़िल्मों के लिए पुरस्कार नहीं होते थे। लेकिन अगर होते तो इसमें कोई शक नहीं कि ‘आवारा’ को हर श्रेणी में पुरस्कार मिलता और वो साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म घोषित की जाती।”

नेहरू ने कहा इतिहास को बनते हुए देखिए भी

Buy KA Abbas Pictures, Images, Photos By Pramod Pushkarna - Archival pictures

ख़्वाजा अहमद अब्बास ने अपने छात्र जीवन में ही जवाहरलाल नेहरू को अपना आदर्श मान लिया था। एक बार जब वो अलीगढ़ में पढ़ रहे थे तो उन्हें पता चला कि नेहरू कलकत्ता मेल से अलीगढ़ होते हुए इलाहाबाद जा रहे हैं।
अब्बास लिखते हैं, “जब हमें पता चला कि नेहरू की ट्रेन अलीगढ़ से हो कर गुज़रेगी, तो हमने तय किया कि हम एक स्टेशन पहले खुर्जा चले जाएंगे और उनके साथ उनके डिब्बे में बैठ कर अलीगढ़ आएंगे।
रास्ते में नेहरू ने हमसे पूछा, “आप कौन सा विषय पढ़ रहे हैं?” हमने कहा, “इतिहास।” नेहरू का जवाब था, “इतिहास को सिर्फ़ पढ़ें ही नहीं, उसको बनते हुए देखिए भी।”

तुम प्लेटफ़ार्म पर नहीं उतर पाओगे

Background & History | SAIL

जब ट्रेन अलीगढ़ के बाहरी इलाके में पहुंची तो मैंने उनके सामने अपनी ऑटोग्राफ़ बुक बढ़ा दी। उस पर उन्होंने कुछ लिखा। तब तक स्टेशन आ गया। वो नेहरू के प्रशंसकों से खचाखच भरा हुआ था। नेहरू ने कहा, “तुम प्लेटफ़ार्म पर नहीं उतर पाओगे, इसलिए दूसरी तरफ़ से उतरो।”
उतर कर रेलवे लाइन क्रॉस करने के बाद जब मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो नेहरू तमाम जयजयकार के बीच दरवाज़े पर खड़े हो कर मुझे हाथ हिला रहे थे। जब मैंने अपनी ऑटोग्राफ़ बुक खोली तो उस पर लिखा था, ‘लिव डेंजरसली, जवाहरलाल नेहरू।’

नेहरू से आखिरी मुलाकात

Khwaja Ahmad Abbas: The Renaissance Man

जवाहरलाल नेहरू की मौत से कुछ दिनों पहले उनसे अब्बास की आख़िरी मुलाकात हुई थी। अब्बास की फ़िल्म ‘शहर और सपना’ को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। अब्बास उस पुरस्कार की राशि को अपनी यूनिट में बराबर बराबर बांटना चाहते थे।
अब्बास के ख़ास इसरार पर नेहरू ये इनाम बांटने के लिए तैयार हो गए। डा. सय्यदा सैयदेन बताती हैं, “नेहरू के डाक्टरों ने अब्बास और उनकी टीम को उनसे मिलने के लिए सिर्फ़ पंद्रह मिनट दिए। अब्बास ने तय किया कि इनाम में मिले पच्चीस हज़ार रुपयों को पूरी यूनिट में बराबर बांटा जाएगा, चाहे वो स्पॉट बॉय हो या फ़िल्म का हीरो। इसे नेहरू के हाथों से दिलवाया जाएगा।”
“वो छोटे छोटे बटुए लाए थे नेहरू के हाथ से दिलवाने के लिए। नेहरू ने अचानक अब्बास से पूछा, ‘तुम्हारी फ़िल्म में कोई गाना नहीं है?’ अब्बास ने बताया कि गाना तो नहीं, हमारी फ़िल्म में अली सरदार जाफ़री की एक ग़ज़ल है। फिर मनमोहन कृष्ण ने बहुत सुरीली आवाज़ में वो ग़ज़ल नेहरू को गा कर सुनाई थी।”
‘वो जो खो जाएं तो खो जाएगी किस्मत सारी, वो जो मिल जाएं तो साथ अपने ज़माना होगा’ – जब मनमोहन कृष्ण वो ग़ज़ल गा रहे थे, तो उनकी आखों में आँसू थे। क्योंकि उन्हें पता था कि ये नेहरू से उनकी आख़िरी मुलाकात है।
इस ग़ज़ल के बाद सब लोग जाने के लिए उठ खड़े हुए। बाहर से नेहरू के डाक्टर घड़ी दिखा कर इशारा कर रहे थे कि आपका समय ख़त्म हो चुका है।
अब्बास ने नेहरू से कहा, “पंडितजी अब इजाज़त दीजिए”। नेहरू बोले, “क्यों? मेरा तो किसी के साथ कोई अपॉएंटमेंट नहीं है। इस पर ख़्वाजा अहमद अब्बास का जवाब था, “तो समझ लीजिए कि हम लोग बहुत मसरूफ़ हैं।”

ब्लिट्ज का लास्ट पेज

Indo Islamic Culture on Twitter: "Khwaja Ahmad Abbas talking about his early career as writer and journalist In an interview clip from vividh bharati program dedicated to him @Bollywoodirect @SrBachchan @Javedakhtarjadu @filmfare @

ख़्वाजा अहमद अब्बास ने ब्लिट्ज़ के आख़िरी पन्ने पर लिखे जाने वाले साप्ताहिक कॉलम ‘लास्ट पेज’ से भी बहुत नाम कमाया। दुनिया और भारत के हर ज्वलंत मुद्दे पर उन्होंने अपनी लेखनी चलाई, जिसे पूरे भारत ने बहुत ध्यान से पढ़ा।
सय्यदा सयदैन बताती हैं, “दिलचस्प बात ये थी कि लोग आख़िरी पेज से ब्लिट्ज़ पढ़ना शुरू करते थे। आख़िरी पेज पर ही एक पिन-अप मॉडल की तस्वीर भी रहती थी। लोग पहले वो तस्वीर देखते थे और फिर अब्बास साहब का लेख पढ़ते थे। उनका वही कॉलम ‘आज़ाद कलम’ के नाम से हिंदी और उर्दू ब्लिट्ज़ में भी प्रकाशित होता था। जो भी घटनाएं होती थीं, उनको वो बातचीत के अंदाज़ में लिखा करते थे।”
आख़िरी ‘लास्ट पेज’ कॉलम में उन्होंने अपनी वसीयत लिखी थी। उन्होंने लिखा था, “मेरी इच्छा है कि जब मैं मरूँ तो कफ़न के बदले मेरे सीने पर ब्लिट्ज़ के लास्ट पेज के पन्ने रखे जाएं।”
(लेखक बीबीसी में वरिष्ठ ब्रॉडकास्ट जर्नलिस्ट हैं। आलेख सोशल मीडिया से साभार)